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बुधवार, 22 सितंबर 2010

लेख : हिंदी की प्रासंगिकता और हम. संजीव वर्मा 'सलिल'

लेख :

हिंदी की प्रासंगिकता और हम.

संजीव वर्मा 'सलिल'

हिंदी जनवाणी तो हमेशा से है...समय इसे जगवाणी बनाता जा रहा है. जैसे-जिसे भारतीय विश्व में फ़ैल रहे हैं वे अधकचरी ही सही हिन्दी भी ले जा रहे हैं. हिंदी में संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, उर्दू , अन्य देशज भाषाओँ या अंगरेजी शब्दों के सम्मिश्रण से घबराने के स्थान पर उन्हें आत्मसात करना होगा ताकि हिंदी हर भाव और अर्थ को अभिव्यक्त कर सके. 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' बनाकर आत्मसात करने से भाषा असमृद्ध होती है किन्तु 'फ्रीडम' को 'फ्रीडमता' बनाने से नहीं. दैनिक जीवन में व्याकरण सम्मत भाषा हमेशा प्रयोग में नहीं लाई जा सकती पर वह समीक्षा, शोध या गंभीर अभिव्यक्ति हेतु अनुपयुक्त होती है. हमें भाषा के प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च तथा शोधपरक रूपों में भेद को समझना तथा स्वीकारना होगा. तत्सम तथा तद्भव शब्द हिंदी की जान हैं किन्तु इनका अनुपात तो प्रयोग करनेवाले की समझ पर ही निर्भर है. हिन्दी में अहिन्दी शब्दों का मिश्रण दल में नमक की तरह हो किन्तु खीर में कंकर की तरह नहीं.

हिंदी में शब्दों की कमी को दूर करने की ओर भी लगातार काम करना होगा. इस सिलसिले में सबसे अधिक प्रभावी भूमिका चिट्ठाकार निभा सकते हैं. वे विविध प्रदेशों, क्षेत्रों, व्यवसायों, रुचियों, शिक्षा, विषयों, विचारधाराओं, धर्मों तथा सर्जनात्मक प्रतिभा से संपन्न ऐसे व्यक्ति हैं जो प्रायः बिना किसी राग-द्वेष या स्वार्थ के सामाजिक साहचर्य के प्रति असमर्पित हैं. उनमें से हर एक का शब्द भण्डार अलग-अलग है. उनमें से हर एक को अलग-अलग शब्द भंडार की आवश्यकता है. कभी शब्द मिलते हैं कभी नहीं. यदि वे न मिलनेवाले शब्द को अन्य चिट्ठाकारों से पूछें तो अन्य अंचलों या बोलियों के शब्द भंडार में से अनेक शब्द मिल सकेंगे. जो न मिलें उनके लिये शब्द गढ़ने का काम भी चिट्ठा कर सकता है. इससे हिंदी का सतत विकास होगा.

सिविल इन्जीनियरिंग को हिंदी में नागरिकी अभियंत्रण या स्थापत्य यांत्रिकी क्या कहना चाहेंगे? इसके लिये अन्य उपयुक्त शब्द क्या हो? 'सिविल' की हिंदी में न तो स्वीकार्यता है न सार्थकता...फिर क्या करें? सॉइल, सिल्ट, सैंड, के लिये मिट्टी/मृदा, धूल तथा रेत का प्रयोग मैं करता हूँ पर उसे लोग ग्रहण नहीं कर पाते. सामान्यतः धूल-मिट्टी को एक मान लिया जाता है. रोक , स्टोन, बोल्डर, पैबल्स, एग्रीगेट को हिंदी में क्या कहें? मैं इन्हें चट्टान, पत्थर, बोल्डर, रोड़ा, तथा गिट्टी लिखता हूँ . बोल्डर के लिये कोई शब्द नहीं है?

रेत के परीक्षण में 'मटेरिअल रिटेंड ऑन सीव' तथा 'मटेरिअल पास्ड फ्रॉम सीव' को हिंदी में क्या कहें? मुझे एक शब्द याद आया 'छानन' यह किसी शब्द कोष में नहीं मिला. छानन का अर्थ किसी ने छन्नी से निकला पदार्थ बताया, किसी ने छन्नी पर रुका पदार्थ तथा कुछ ने इसे छानने पर मिला उपयोगी या निरुपयोगी पदार्थ कहा. काम करते समय आपके हाथ में न तो शब्द कोष होता है, न समय. कार्य विभागों में प्राक्कलन बनाने, माप लिखने तथा मूल्यांकन करने का काम अंगरेजी में ही किया जाता है जबकि अधिकतर अभियंता, ठेकेदार और सभी मजदूर अंगरेजी से अपरिचित हैं. सामान्यतः लोग गलत-सलत अंगरेजी लिखकर काम चला रहे हैं. लोक निर्माण विभाग की दर अनुसूची आज भी सिर्फ अंगरेजी मैं है. निविदा हिन्दी में है किन्तु उस हिन्दी को कोई नहीं समझ पाता, अंगरेजी अंश पढ़कर ही काम करना होता है. किताबी या संस्कृतनिष्ठ अनुवाद अधिक घातक है जो अर्थ का अनर्थ कर देता है. न्यायलय में मानक भी अंगरेजी पाठ को ही माना जाता है. हर विषय और विधा में यह उलझन है. मैं मानता हूँ कि इसका सामना करना ही एकमात्र रास्ता है किन्तु चिट्ठाजगत हा एक मंच ऐसा है जहाँ ऐसे प्रश्न उठाकर समाधान पाया जा सके तो...? सोचें...

भाषा और साहित्य से सरकार जितना दूर हो बेहतर... जनतंत्र में जन, लोकतंत्र में लोक, प्रजातंत्र में प्रजा हर विषय में सरकार का रोना क्यों रोती है? सरकार का हाथ होगा तो चंद अंगरेजीदां अफसर पाँच सितारेवाले होटलों के वातानुकूलित कमरों में बैठकर ऐसे हवाई शब्द गढ़ेगे जिन्हें जनगण जान या समझ ही नहीं सकेगा. राजनीति विज्ञान में 'लेसीज फेयर' का सिद्धांत है जिसका आशय यह है कि वह सरकार सबसे अधिक अच्छी है जो सबसे कम शासन करती है. भाषा और साहित्य के सन्दर्भ में यही होना चाहिए. लोकशक्ति बिना किसी भय और स्वार्थ के भाषा का विकास देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप करती है. कबीर, तुलसी सरकार नहीं जन से जुड़े और जन में मान्य थे. भाषा का जितना विस्तार इन दिनों ने किया अन्यों ने नहीं. शब्दों को वापरना, गढ़ना, अप्रचलित अर्थ में प्रयोग करना और एक ही शब्द को अलग-अलग प्रसंगों में अलग-अलग अर्थ देने में इनका सानी नहीं.

चिट्ठा जगत ही हिंदी को विश्व भाषा बना सकता है? अगले पाँच सालों के अन्दर विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में हिंदी के चिट्ठे अधिक होंगे. क्या उनकी सामग्री भी अन्य भाषाओँ के चिट्ठों की सामग्री से अधिक प्रासंगिक, उपयोगी व् प्रामाणिक होगी? इस प्रश्न का उत्तर यदि 'हाँ' है तो सरकारी मदद या अड़चन से अप्रभावित हिन्दी सर्व स्वीकार्य होगी, इस प्रश्न का उत्तर यदि 'नहीं" है तो हिंदी को 'हाँ' के लिये जूझना होगा...अन्य विकल्प नहीं है. शायद कम ही लोग यह जानते हैं कि विश्व के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने हमारे सौर मंडल और आकाशगंगा के परे संभावित सभ्यताओं से संपर्क के लिये विश्व की सभी भाषाओँ का ध्वनि और लिपि को लेकर वैज्ञानिक परीक्षण कर संस्कृत तथा हिन्दी को सर्वाधिक उपयुक्त पाया है तथा इन दोनों और कुछ अन्य भाषाओँ में अंतरिक्ष में संकेत प्रसारित किए जा रहे हैं ताकि अन्य सभ्यताएँ धरती से संपर्क कर सकें. अमरीकी राष्ट्रपति अमरीकनों को बार-बार हिन्दी सीखने के लिये चेता रहे हैं किन्तु कभी अंग्रेजों के गुलाम भारतीयों में अभी भी अपने आकाओं की भाषा सीखकर शेष देशवासियों पर प्रभुत्व ज़माने की भावना है. यही हिन्दी के लिये हानिप्रद है.

भारत विश्व का सबसे बड़ा बाज़ार है तो भारतीयों की भाषा सीखना विदेशियों की विवशता है. विदेशों में लगातार हिन्दी शिक्षण और शोध का कार्य बढ़ रहा है. हर वर्ष कई विद्यालयों और कुछ विश्व विद्यालयों में हिंदी विभाग खुल रहे हैं. हिन्दी निरंतर विकसित हो रहे है जबकि उर्दू समेत अन्य अनेक भाषाएँ और बोलियाँ मरने की कगार पर हैं. इस सत्य को पचा न पानेवाले अपनी मातृभाषा हिन्दी के स्थान पर राजस्थानी, मारवाड़ी, मेवाड़ी, अवधी, ब्रज, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, बुन्देली या बघेली लिखाकर अपनी बोली को राष्ट्र भाषा या विश्व भाषा तो नहीं बना सकते पर हिंदी भाषियों की संख्या कुछ कम जरूर दर्ज करा सकते हैं. इससे भी हिन्दी का कुछ बनना-बिगड़ना नहीं है. आगत की आहट को पहचाननेवाला सहज ही समझ सकता है कि हिंदी ही भावी विश्व भाषा है. आज की आवश्यकता हिंदी को इस भूमिका के लिये तैयार करने के लिये शब्द-निर्माण, शब्द-ग्रहण, शब्द-अर्थ का निर्धारण, अनुवाद कार्य तथा मौलिक सृजन करते रहना है जिसे विश्व विद्यालयों की तुलना में अधिक प्रभावी तरीके से चिट्ठाकर कर रहे हैं.

नए रचनाकारों के लिये आवश्यक है कि भाषा के व्याकरण और विधा की सीमाओं तथा परम्पराओं को ठीक से समझते हुए लिखें. नया प्रयोग अब तक लिखे को जानने के बाद ही हो सकता है. काव्य के क्षेत्र में हाथ आजमानेवालों को 'पिंगल' (काव्य-शास्त्र) में वर्णित नियम जानने ही चाहिए. इसमें किसी कठिन और उच्च कक्षा की पुस्तक की जरूरत नहीं है. १० वीं कक्षा तक की हिन्दी की किताबों में जो जानकारी है वह लेखन प्रारंभ करने के लिये पर्याप्त है. लिंग, वाचन, क्रिया, कारक, शब्द-भेद, उच्चारण के अनुसार हिज्जे कर शब्द को शुद्ध रूप में लिखना आ जाए तो गद्य-पद्य दोनों लिखा जा सकता है. बोलते समय हम प्रायः असावधान होते हैं. शब्दों के देशज (ग्रामीण या भदेसी) रूप बोलने में भले ही प्रचलित हैं पर साहित्य में दोष कहे गए हैं. कविता लिखते समय पिंगल (काव्य-शास्त्र) के नियमों और मान्यताओं का पालन आवश्यक है. कोई बदलाव या परिवर्तन विशेषज्ञता के बाद ही सुझाई जाना चाहिए.

विश्व वाणी हिन्दी के उन्नयन और उत्थान में हमारी भूमिका शून्य हो तो भी हिन्दी की प्रगति नहीं रुकेगी किन्तु यदि हम प्रभावी भूमिका निभाएँ तो यह जीवन की बड़ी उपलब्धि होगी. आइए, हम सब इस दिशा में चिंतन कर अपने-अपने विचारों को बाँटें.

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम/ सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम

14 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

विचारणीय एवं उम्दा आलेख. बधाई.

Ghulam Murtaza Shareef ने कहा…

हिन्दी हमारी भाषा है,
यही हमारी आशा है,
यदी सच्ची सेवा करना है,
यदी सच्चा सेवक बनना है,
तो तोड़ फोड़ का त्याग करो
दूसरी भाषाओं का सत्कार करो
अंग्रेजी़ के "साइन बोर्ड" पर-
स्याही फेरने से कुछ ना मिलेगा!
मातृ भाषा पर कलंक लगेगा!
क्या किसी अंग्रेज़ ने कहा कि-
अंग्रेज़ी बोलो?

परंतु तुम बोलते हो!
मजबूर हो, बोलने पर!
इस मजबूरी का बहिष्कार करो,
हिन्दी का विस्तार करो
नये नये अविष्कार करो
फिर वह दिन भी आ जायेगा
अंग्रेज़ "फूड" नही-
भोजन माँगेगा!!

Kalpnik : ने कहा…

हिन्दी हमारी भाषा है...पर हमको कुछ नहीं आता है......

Sanjiv Verma 'Salil' ने कहा…

वाह... वाह... कडवे सच को ईमानदारी से स्वीकारने पर आपको बधाई. जो यह जानता है कि वह नहीं जानता, वही सीख सकता. जिसे न जानने पर भी जानने का भ्रम रहता है वह कुछ नहीं सीख पाता. आपको काल्पनिक नहीं यथार्थ होना चाहिए. सीखने के लिये तो प्रगट होना पड़ता है.

kalpana gavli ने कहा…

आ. सलिल.संजीवजी नमस्कार, ब हु त ही सुं द र ले ख हे.

Sanjiv Verma 'Salil' ने कहा…

कल्पना जी, धन्यवाद.

Vijay Sappatti . ने कहा…

Vijay :

sir ,

jab ye dictionary poori ho jaaye to mujhe ek copy bhijwaye jarur

Sanjiv Verma 'Salil' ने कहा…

विजय जी!
वन्दे मातरम.
यह शब्द कोष बिना आपके सहयोग के पूरा नहीं होगा.
आप जहाँ हैं और जहाँ से हैं, वहाँ प्रचलित लोक भाषा के ऐसे शब्, उनके अर्थ, वचन, लिंग आदि एकत्र कर भेजें जिन्हें हिन्दी में जोड़ा-प्रचलित किया जा सके. यदि हिन्दी में हर प्रदेश की भाषा के शब्द हों तो समझने में आसानी होगी तथा हिन्दी का विरोध मिटेगा.

Jogendra Singh ने कहा…

संजीव जी ,
आपका आर्टिकल पढा ,
सच में छू गया ...

Sanjiv Verma 'Salil' ने कहा…

जोगिंदर जी

धन्यवाद.
सिर्फ़ 2 पाठकों की टिप्पणी यही बताती है की हिन्दी के प्रति हमारा लगाव कितना है?

Jogendra Singh ने कहा…

नहीं ऐसी बात नहीं है @ संजीव जी ... कभी कभी लिखा हुआ लेखा जानकारी में न आना भी वज़ह हो सकता है ... मैंने भी इसी विषय पर अलग अंदाज़ में कुछ लिखा है , ठीक समझें तो इसे भी देखिएगा >>> http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:19661

Ganesh Jee 'Bagi' ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,

आपकी बातों से मैं सहमत हूँ ,

यह कहने मे मुझे जरा भी झिझक नहीं है कि आज की युवा पीढ़ी जिसमे मैं भी शामिल हूँ न तो हिंदी ही शुद्ध बोल पाती है और ना ही अंग्रेजी,

मुझे आज भी याद है जब अभियांत्रिक सर्वेक्षण की मौखिक परीक्षा मे मैं हिंदी मे सोपविद और प्रवेशी गज कह कर फस गया था जिसको मेरे प्राध्यापक महोदय ने परीक्षक को समझाया कि लड़का टेलीस्कोपिक स्टाफ को बता रहा है तब जाकर कही मेरी जान बची नहीं तो सही बताते हुए भी मेरे अंक कट जाते,

आज Reinforcement को सभी लोग जान जाते है पर प्रबलन कहने पर दिक्कत है,

अभियांत्रिक और चिकित्सा विज्ञान की हिंदी पुस्तके मिलनी मेरे समझ से असंभव है, पथ निर्माण विभाग बिहार की अनुसूची दर भी अंग्रेजी मे ही है IS और BS code भी हिंदी मे नहीं है, हलाकि हम लोग कार्यालयों मे संचिका का कार्य अधिकतर हिंदी मे ही करने का प्रयत्न करते है, फिर भी कुछ चलताऊ शब्द अंग्रेजी के लिखने ही पड़ते है क्योकि संचिका ऊपर के स्तर पर पहुचने पर क्लिष्ट हिंदी को समझने में पदाधिकारियों को परेशानी होती है और वार्ता करे की टिप्पणी के साथ संचिका पुनः नीचे आ जाती है,
मैं अभी तक इस लेख पर टिप्पणी इस लिये नहीं दिया था कि अन्य गुनीजनो से व्यापक चर्चा की अपेक्षा कर रहा था, पर आज जब आचार्य जी की मीठी डाट पड़ी तो मुझसे रहा नहीं गया, और कुछ लिख बैठा |

Sanjiv Verma 'Salil' ने कहा…

गणेश जी!

मुख्य प्रश्न इच्छा शक्ति का ही. हम सबको हिन्दी बोलने में शर्म आती है.

दफ्तर के बाबू जो अंकेक्षण या लेखा लिपिक का कम करते हैं हमेशा गलत अंगरेजी लिखते हैं, हिन्दी कहने पर भी नहीं लिखते. ठेकेदार और समयपाल भी यही करते हैं.

मैंने जब माप पुस्तिका में ''माप की जाँच की'' और ''देयक की जाँच की'' लिखा तो अंकेक्षण और लेखाधिकारी ने आपत्ति की कि 'मैजर्मेंट्स चेक्ड' और 'बिल चेक्ड'' लिखिए. मेरे न मानने पर उच्चाधिकारी तक बात गयी. वे बोले क्यों फालतू का झगड़ा करते हैं लिख दें. मैंने कहा: लिख कर आदेश करें कि हिन्दी नहीं लिखूँ. अंगरेजी में लिखना जरूरी है.' तो वे लिख कर नहीं दे सके पर बुरा मान गए और मेरे यात्रा भत्ता देयक नामंजूर कर दिये.

मेरे अधीनस्थ कर्मचारी कहने पर भी हिन्दी नहीं लिखते. 'संदाबी शक्ति परीक्षण करें' लिखूँ तो परीक्षण शाला सहायक नहीं समझता, 'कोम्प्रेसिव स्ट्रेंग्थ टेस्ट' जानता है. हद तो तब हुई कि रिक्शेवाले से शास्त्री पुल कहने पर नहीं समझा और 'शास्त्री ब्रिज' कहने पर ले गया. लोग अपने पाटों में अमुक रोड लिखते हैं अमुक मार्ग नहीं... यह मानसिकता न जाने कब बदलेगी.

जोगेंद्र जी!

अपने अपने लेख में विचारणीय मुद्दे उठाये हैं. आपको स्पष्ट लेखन हेतु साधुवाद.

Vijay Sappatti . ने कहा…

jarur sanjiv ji , main apne tarf se koshish karunga .

dhanywaad.