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रविवार, 3 अक्तूबर 2010

मुक्तिका: घर तो घर है संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

घर तो घर है

संजीव 'सलिल'
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घर तो घर है, बैठिए,  आँगन में या परछी में आप.
बात  इतनी सी है सब पर छोड़िए कुछ अपनी छाप..

जब कहें कुछ, जब सुनें कुछ, गैर भी चर्चा में हों.
ये न हो कुछ के ही सपने, जाएँ सारे घर में व्याप..

मिठाई के साथ, खट्टा-चटपटा भी चाहिए.
बंदिशों-जिद से लगे, घर जेल, थाना या है खाप..

अपनी-अपनी चाहतें हैं, अपने-अपने ख्वाब हैं.
कौन किसके हौसलों को कब सका है कहें नाप?

परिंदे परवाज़ तेरी कम न हो, ना पर थकें.
आसमाँ हो कहीं का बिजली रहे करती विलाप..

मंजिलों का क्या है, पग चूमेंगी आकर खुद ही वे.
हौसलों का थाम तबला, दे धमाधम उसपे थाप..

इरादों को, कोशिशों को बुलंदी हर पल मिले.
विकल्पों को तज सकें संकल्प अंतर्मन में व्याप..

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