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रविवार, 3 अक्तूबर 2010

परिचर्चा: अयोध्या का सबक आचार्य संजीव 'सलिल'

परिचर्चा:

अयोध्या : कल, आज और कल                                                               
आचार्य संजीव 'सलिल'

राम-मंदिर और बाबरी मस्जिद विवाद का निर्णय आ ही गया. न्यायालय ने चीन्ह-चीन्ह कर रेवड़ी बाँट दी. न किसी पक्ष को संतुष्ट होना था, न हुआ. दोनों उच्चतम न्यायलय में जाने को तैयार हैं.

अयोध्या का अथवा बहर का आम आदमी न इसके साथ है, न उसके. अयोध्या में न कोई उद्योग-धंधा, कल-कारखाना नहीं है. खेती या धर्मस्थान जाने जानेवाले तीर्थ यात्री ही उनकी आजीविका का साधन उपलब्ध कराते हैं. स्वाभाविक है कि स्थानीय जन बाहरी नेताओं और लोगों सर अलग सिर्फ शांति चाहते हैं ताकि उन्हें गुजर-बसर के लिये धन-अर्जन के अवसर मिलते रहें.

भविष्य में शांति के लिये विवादित स्थल को न्यायालय द्वारा राम-जन्म भूमि मान लिये जाने, स्थल पर राम भक्तों का आधिपत्य तथा श्री राम का पूजन होने के कारण मूर्ति या मन्दिर को हटाया जाना लगभग असंभव है,

अयोध्या मुसलमानों के लिये तीर्थ न था, न है, न होगा. वहाँ तो विवाद के कारण विघ्नसंतोषी चंद मुसलमान सक्रिय हो गए थे. स्थानीय मुसलमानों को रोजी-रोटी राम मंदिर जानेवाले यात्रियों से ही मिलती है. वहाँ अन्य कई मस्जिदें हैं जिनमें वे नमाज़ पढ़ते हैं. विवादित ढाँचे में विवाद के पहले भी नमाज़ नहीं पढ़ी जाती थी. अब मंदिर के समीप नयी मस्जिद बनाने का अर्थ नए विवाद के बीज बोना है. बेहतर है कि अन्य मस्जिदों का विस्तार और सुद्रढ़ीकरण हो. नयी मस्जिद बनानी ही हो तो मंदिर से दूर बने ताकि एक-दूसरे के कार्यक्रमों में विघ्न न हो.

जनता का साथ न होने, निर्णय में हुए विलम्ब के कारण थकन व् साधनाभाव तथा पूर्ण जीत न होने  से राम मंदिर पक्ष के लोग अभी वाराणसी के विश्वनाथ मंदिर तथा मथुरा के कृष्ण मंदिर के सम्बन्ध में मौन  हैं किन्तु यह निश्चित है कि राम मंदिर पूर्ण होते ही इन दोनों स्थानों से मस्जिदें हटाने की माँग जोर पकड़ेगी.

आप का इस सन्दर्भ में क्या सोचना है? आइये निष्पक्ष तरीके से तथ्यपरक बातें करें....

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