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शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

गीत करवा चौथ पर: माटी तो माँ होती है... संजीव 'सलिल'

गीत करवा चौथ पर:

माटी तो माँ होती है...

संजीव 'सलिल'
**
माटी तो माँ होती है...
मैं भी माँ हूँ पर माँ बनने से पहले मैं नारी हूँ.
जो है मेरा प्रीतम प्यारा मैं भी उसको प्यारी हूँ.

सास नहीं सासू माँ ने मेरी आरती उतारी थी.
परिचय-पल से कुलवधू की छवि देखी, कमी बिसारी थी..

लगा द्वार पर हस्त-छाप मैंने पल में था जान लिया.
सासू माँ ने अपना वारिस मुझको ही है मान लिया..

मुझसे पहले कभी उन्हीं के हाथों की थी छाप लगी.
मुझ पर, छापों पर थीं उनकी नजरें गहरी प्रेम-पगी..

गले लगा, पूजा गृह ले जा पीढ़े पर बैठाया था.
उनके दिल की धड़कन में मैंने निज माँ को पाया था..

दीपक की दो बाती मुझसे एक करा वे मुस्काईं.
कुलवधू नहीं, मिली है बेटी, इसमें मेरी परछाईं.

सुन सिहरी, कुलदेवों की पूजा कर ज्यों ही पाँव छुए. 
'देख इसे कुछ कष्ट न हो, वरना डाटूंगी तुझे मुए.'

माँ बेटे से बोल रहीं थी: 'इसका बहुत ध्यान रखना.
कुल-लक्ष्मी गुणवती नेक है, इसका सदा मान रखना ..'

मेरे नयन सजल, वे बोलीं: 'बेटी! जा आराम करो.
देती हूँ आशीष, समुज्ज्वल दोनों कुल का नाम करो.'

पर्व और त्यौहार मनाये हमने साथ सदा मिलकर.
गृह-बगिया में सुमन-कली जैसे रहते हैं हम खिलकर..

आई करवा चौथ, पुलक मैं पति की कुशल मनाऊँगी.
निर्जल व्रत कर मन की मृदुता को दृढ़-जयी बनाऊँगी..

सोचा, माँ बोली: 'व्रत मैं कर लूँगी, तू कुछ खा-पी ले.
उमर पड़ी है व्रत को, अभी लड़कपन है, हँसकर जी ले'

'माँ मत रोकें, व्रत करने दें, मेरे मन की आस यही.
जीवन-धन की कुशल न मानूँ इससे बढ़कर त्रास नहीं..'

माँ ने रोका, सविनय मैंने उन्हें मनाया-फुसलाया.
अनुमति पाकर मन-प्राणों ने जैसे नव जीवन पाया..

नित्य कार्य पश्चात् करी पूजा की हमने तैयारी.
तन-मन हम दोनों के प्रमुदित, श्वास-श्वास थी अग्यारी..

सास-बहू से माँ-बेटी बन, हमने यह उपवास किया.
साँझ हुई कब पता न पाया,  जी भर जीवन आज जिया..

कुशल मनाना किसी स्वजन की देता है आनंद नया.
निज बल का अनुमान न था, अनुभूति नयी यह हुई पिया..

घोर कष्ट हो, संकट आये, तनिक न मैं घबड़ाऊँगी.
भूख-प्यास जैसे हर आपद-विपदा पर जय पाऊँगी..

प्रथा पुरातन, रीति सनातन, मैं भी इसकी बनी कड़ी.
सच ही मैं किस्मतवाली हूँ, थी प्रसन्नता मुझे बड़ी..

मैका याद न आया पल भर, प्रिय को पल-पल याद किया.
वे आये-बोले: 'पल भर भी ध्यान न तुमसे हटा प्रिया..''

चाँद देख पूजा की तो निज मन को था संतोष नया.
विजयी नारी भूख-प्यास पर, अबला नाहक कहा गया..

पिता-पुत्र के नयनों में, जो कुछ था कहा न सुना गया.
श्वास-श्वास का, आस-आस का, सरस स्वप्न नव बुना गया..

माँ का सच मैंने भी पाया, धरती धैर्य न खोती है.
पति-संतानों का नारी तपकर दृढ़ संबल होती है.
                       नारी ही माँ होती है.
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10 टिप्‍पणियां:

shriprakash shukla ✆ ekavita ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,
अद्वितीय, अति उत्तम भाव, सुन्दर शब्द संयोजन, एवं मार्मिक अभिव्यक्ति.
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल

- ibmital@gmail.com ने कहा…

१०/२३/१०
करवा चौथ केवल पति के स्वास्थ्य/सुख/दीर्घायु हेतु न मान कर इसे समस्त परिवार की मंगलकामना के हेतु क्यों न मानें? पति से संतान मिले, गृहस्थ आश्रम के सुख का आधार मिले. पति-पत्नी गृहस्थ रथ के दो पहिये सो यह व्रत इस रथ यात्रा की शोभा हेतु हो! आधुनिक युग के पति भी फलाहार, चाय-दूध ग्रहण करके व्रत का निर्वाह करें!
इंदिरा

sn Sharma ✆ ekavita ने कहा…

आ० आचार्य जी ,
अत्यंत भावपूर्ण और सामयिक रचना के हेतु साधुवाद !
आपकी सशक्त सक्षम लेखनी को नमन |
कमल

- drajanmejay@yahoo.com ने कहा…

आद० आचार्य जी अभिवादन,
बस इतना कि, आपकी लेखनी को नमन
डा० अजय जनमेजय

kusum sinha ekavita ने कहा…

dhanya hain sanjiv ji
aapki kavitva shakti ko mera bahut bahut naman
badhai
kusum

achal verma ekavita ने कहा…

सुनते आये थे अब तक तो
सास बहू की तकरारें ही

इतनी प्यारी रचना को
इतिहास सजा कर रख लेगी ही
माननीय आचार्य धन्य हैं आप ,
धन्य हैं ये रचनाएँ

इनके करते हो सकता है
सास बहू के मन मिल जाएँ ||
बदल रहा है समय,
खुशी की बात है

हर घर में सन्देश आपका
शीघ्र जाय
कपडे तन के घटें ना अब,

सबको सूझे अपनी रीत रिवाजों से
जीवन मुस्काए |

Your's ,

Achal Verma

Divya Narmada ने कहा…

आत्मीय इंदिरा जी!
वन्दे मातरम.
कुलवधु पति के माध्यम से ही अन्य कुल-जनों से जुड़ती है, इसलिए पति की मंगलकामना से करवा चौथ व्रत का अनुष्ठान करती है... उससे बलात करवाया नहीं जाता. सन्तान के माध्यम से वह स्वयं को जन्मती है जिससे वंश-बेल बढ़ती है, इसलिए सन्तान की मंगल कामना से सन्तान सप्तमी के व्रत का विधान है. स्त्री में मातृशक्ति को साक्षात मानते हुए सरस्वती पूजा (वसंत पंचमी), शक्ति पूजा (नव दुर्गा) तथा लक्ष्मी पूजा (दीपावली) का विधान है. इन व्रतों पर पुरुष भी उपवास करते हैं. भारतीय पारंपरिक जीवन मूल्य पश्चिम के रीति-रिवाजों से भिन्न हैं. परिवारों में पुरुष सामान्यतः धनार्जन करते हैं तथा आय को लाकर स्त्री (माँ, बहन, भाभी, पत्नि, बेटी) के हाथ में रखते थे तथा आवश्यकता पर उससे धन लेकर व्यय करते थे. यहाँ स्त्री-पुरुष एक दूसरे को समान नहीं मानते... स्त्री पुरुष को तथा पुरुष स्त्री को पूज्य मानें... यह प्रथा थी. हर मांगलिक अवसर पर स्त्री या मातृशक्ति के पूजन का विधान रहा है. स्त्री शक्ति के पूजन के लिये पथवारी मैया का व्रत (हर रास्ते की इष्ट शक्ति) किया जाता था... व्रतकर्ता राह की साफ़-सफाई कर किनारे छायादार पौधे लगाकर, कुए, धर्मशाला, मंदिर आदि बनवाता था. सियाऊ (सराय) माता का व्रत सराय आदि की देखभाल, निर्माण आदि से जुड़ा था. संक्रामक रोगों से बचाव के लिये शीतला माता का व्रत रखकर परिवेश की स्वच्छता रखी जाती थी. भारत में स्त्री पुरुष जीवन गाड़ी के न तो जड़ पहिये (निर्जीव) मान्य हैं, न दो बैल या अश्व... उन्हें संचालक और एक-दूसरे का पूरक माना गया है.
आधुनिकता बोध में पाश्चात्य जीवन मूल्य वरेण्य समझे जाने लगे हैं. अस्तु...

sn Sharma ✆ ekavita ने कहा…

आ० आचार्य जी,
आ० इंदिरा जी को स्पष्टीकरण के रूप में आपने अत्यंत मर्यादित
विवेकपूर्ण और तर्कसम्मत रूप से स्त्रीशक्ति एवं मातृशक्ति का
विवेचन किया है | मेरा नमन !
कमल

रानीविशाल ने कहा…

अवसरानुसार बहुत ही सुन्दर रचना प्रस्तुत की आपने ...इतने सुन्दर भाव लिए एक और अनुपम कृति के लिए बहुत बहुत धन्यवाद !

Divya Narmada ने कहा…

रानी हृदय विशाल है, पढ़कर समझा गीत.
हर्षित कवि की कलम है, भली लगी यह नीत..