दीपावली का रंग : हरिगीतिका के संग
हरिगीतिका छंद:
संजीव 'सलिल'
*
हरिगीतिका छंद में १६-१२ पर यति, पदांत में लघु-गुरु तथा रगण का विधान वर्णित है.हरिगीतिका हरिगीतिका हरि, गीतिका हरिगीतिका या
मुतफाइलुन मुतफाइलुन मुत, फाइलुन मुतफाइलुन में भी १६-१२ की यति है.
बिन दीप तम से त्राण जगका, हो नहीं पाता कभी.
बिन गीत मन से त्रास गमका, खो नहीं पाता कभी..
बिन सीप मोती कहाँ मिलता, खोजकर हम हारते-
बिन स्वेद-सीकर कृषक फसलें, बो नहीं पाता कभी..
*
हर दीपकी, हर ज्योतिकी, उजियारकी पहचान हूँ.
हर प्रीतका, हर गीतका, मनमीत का अरमान हूँ..
मैं भोरका उन्वान हूँ, मैं सांझ का प्रतिदान हूँ.
मैं अधर की मुस्कान हूँ, मैं हृदय का मेहमान हूँ..
*
हरिगीतिका छंद:
संजीव 'सलिल'
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हरिगीतिका छंद में १६-१२ पर यति, पदांत में लघु-गुरु तथा रगण का विधान वर्णित है.हरिगीतिका हरिगीतिका हरि, गीतिका हरिगीतिका या
मुतफाइलुन मुतफाइलुन मुत, फाइलुन मुतफाइलुन में भी १६-१२ की यति है.
बिन दीप तम से त्राण जगका, हो नहीं पाता कभी.
बिन गीत मन से त्रास गमका, खो नहीं पाता कभी..
बिन सीप मोती कहाँ मिलता, खोजकर हम हारते-
बिन स्वेद-सीकर कृषक फसलें, बो नहीं पाता कभी..
*
हर दीपकी, हर ज्योतिकी, उजियारकी पहचान हूँ.
हर प्रीतका, हर गीतका, मनमीत का अरमान हूँ..
मैं भोरका उन्वान हूँ, मैं सांझ का प्रतिदान हूँ.
मैं अधर की मुस्कान हूँ, मैं हृदय का मेहमान हूँ..
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1 टिप्पणी:
यह एक मात्रिक छंद है|
यह छंद कुल चार पंक्तियों का होता है|
प्रत्येक पंक्ति में २८ मात्राएँ होती हैं|
हर पॅक्ति के अंत में लघु गुरु [जहाँ] अपेक्षित है| रगण [गुरु लघु गुरु = दोजहाँ] हो तो अति उत्तम|
'भारत भारती' में 'श्री मैथिली शरण गुप्त जी' ने इसे काफ़ी प्रयोग किया है|
हालाँकि उपरोक्त के सिवा इस छंद में यति, गण वग़ैरह का कोई और विशेष विधान नहीं होता, परंतु इस छंद की अपनी एक अलग ही लय होती है, जिसे आप पढ़ते हुए भी महसूस कर सकते हैं| कुछ कुछ इस तरह से:
दिंदादिदिन दिंदादिदिन दिंदादिदिन दिंदाददा
यहाँ अंतिम वर्णों के अलावा लघु गुरु की बाध्यता नहीं होती और कवि इस लय को अपने हिसाब से व्यवस्थित कर सकता है| ऊपर की लय मैने अपने हिसाब से जो अपने लिए विकसित की थी, आप लोगों से शेयर की है|
साहित्य की सरिता बही, सब ने लगाईं डुबकियाँ|
दस दिन तलक हर एक ने लीं काव्य रस की चुसकियाँ|
जिस से बना जितना, जभी, जैसा, यहाँ प्रस्तुत किया|
दीपावली के पर्व पर इस लाभ को सब ने लिया||
पहली पंक्ति की मात्राएँ इस प्रकार हैं २१११ २ ११२ १२ ११ २ १२२ १११२ = २८ | बाकी पंक्तियों की मत्राएँ सर्व ज्ञात विधान के अनुसार आप लोग स्वयँ भी गिन सकते हैं|
इस छंद को आप लोग, अगर चाहें तो इस वज्ञ पर भी लिख के आजमा सकते हैं| यह मेरा व्यक्तिगत मत है, हिदी और उर्दू के उस्ताद लोग इसे मानें या न भी मानें|
मुतफाइलुन मुतफाइलुन मुतफाइलुन मुतफाइलुन
बस अंतर इतना ही आता है कि इस वज्ञ में अंत में लघु गुरु का विधान नहीं है, पर उच्चारण [इलुन] उस के समान ही आता है|
अस्तु!
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