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बुधवार, 24 नवंबर 2010

मुक्तिका: जीवन की जय गायें हम.. संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

जीवन की जय गायें हम..

संजीव 'सलिल'.
*
जीवन की जय गायें हम..
सुख-दुःख मिल सह जाएँ हम..
*
नेह नर्मदा में प्रति पल-
लहर-लहर लहरायें हम..
*
बाधा-संकट -अड़चन से
जूझ-जीत मुस्कायें हम..
*
गिरने से क्यों डरें?, गिरें.
उठ-बढ़ मंजिल पायें हम..
*
जब जो जैसा उचित लगे.
अपने स्वर में गायें हम..
*
चुपड़ी चाह न औरों की
अपनी रूखी खायें हम..
*
दुःख-पीड़ा को मौन सहें.
सुख बाँटें हर्षायें हम..
*
तम को पी, बन दीप जलें.
दीपावली मनायें हम..
*
लगन-परिश्रम-कोशिश की
जय-जयकार गुंजायें हम..
*
पीड़ित के आँसू पोछें
हिम्मत दे, बहलायें हम..
*
अमिय बाँट, विष कंठ धरें.
नीलकंठ बन जायें हम..

*****

5 टिप्‍पणियां:

achal verma ने कहा…

जय हो , जय गाने वाले की ,
जीवन हरषाने वाले की ,
नई नई कविता की हरदिन ,
वर्षा करवाने वाले की |
रहे बरसता यह जल ऐसे ,
रहे भिगोता हमको ऐसे ,
सरस रहे यह सदा लेखनी ,
सलिल बहाए अमृत ऐसे ||


Your's ,

Achal Verma

sn Sharma ने कहा…

आ० आचार्य जी,
सुन्दर परिकल्पना ,भाव और बिम्बों से ओतप्रोत गीत के लिये साधुवाद !
विशेष-
बाधा, संकट ,अड़चन से
जूझ ,जीत मुस्काएं हम
और

अमिय बाँट विष कंठ धरें
नीलकंठ बन जाएँ हम

सादर
कमल

Divya Narmada ने कहा…

शुभाशीष हो अचल आपका.
अंतिम पल तक कलम चले.
पीड़ाओं को पी पाये मन-
तम हर ले जब बदन जले..

Divya Narmada ने कहा…

शतदल कमल न हो सकता पर
पंक न व्यापे यह वर दें.
सदय रहें माँ वीणापाणी-
दुःख सह, सुख दे वह स्वर दें..

navin c. chaturvedi. ने कहा…

चुपड़ी चाह न औरों की अपनी रूखी खायें हम.. दुःख-पीड़ा को मौन सहें. सुख बाँटें हर्षायें हम.. सादर अभिवादन आचार्य जी| नमन| बहुत ही सुसंस्कृत और सुद्रुढ विचारों के संप्रेषित करती पंक्तियाँ हैं ये| बधाई|