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सोमवार, 20 दिसंबर 2010

पुण्य स्मरण: " १९ दिसम्बर की वह सुबह " -मिथिलेश दुबे

पुण्य स्मरण:

" १९ दिसम्बर की वह सुबह "

-मिथिलेश दुबे                                                                 

रोज की तरह उस दिन भी सुबह होती है, लेकिन वह ऐसी सुबह थी जो सदियों तक लोगों के जेहन में रहेगी । 

दिसंबर का वह दिंन तारीख १९ , फांसी दी जानी थी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी दी जानी थी । 
                                                                                                            
रोज की तरह बिस्मिल ने सुबह उठकर नित्यकर्म किया और फांसी की प्रतीक्षा में बैठ गए । निरन्तर परमात्मा के मुख्य नाम ओम् का उच्चारण करते रहे । उनका चेहरा शान्त और तनाव रहित था । ईश्वर स्तुति उपासना मंन्त्र ओम् विश्वानि देवः सवितुर्दुरुतानि परासुव यद्रं भद्रं तन्न आसुव का उच्चारण किया ।
बिस्मिल बुलंद हौसले के इंसान थे । वे एक अच्छे शायर और कवि थे, जेल में भी दोनों समय संध्या, हवन-व्यायाम करते थे । महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती को अपना आदर्श मानते थे । संघर्ष की राह चले तो उन्होंने दयानन्द जी के अमर ग्रन्थों और उनकी जीवनी से प्रेरणा ग्रहण की थी । 

१८ दिसंबर को उनकी अपनी माँ से जेल में भेट हुई । वे बहुत हिम्मत वाली महिला थी । माँसे मिलते ही बिस्मिल की आखों मे अश्रु बहने लगे थे । तब माँ ने कहा कहा: " हरीशचन्द्र, दधीचि आदि की तरह वीरता से धर्म और देश के लिए जान दो, चिन्ता करने और पछताने की जरूरत नहीं है ।'' बिस्मिल हँस पड़े और बोले: " हम जिंदगी से रुठ के बैठे हैं. माँ मुझे क्या चिंता हो सकतीहै  और कैसा पछतावा? मैंने कोई पाप नहीं किया । मैं मौत से नहीं डरता, लेकिन माँ ! आग के पास रखा घी पिघल ही जाता है । तेरा-मेरा संबंध कुछ ऐसा ही है कि पास आते ही मेरी आँखों सेआँसू निकल पड़े, नहीं तो मैं बहुत खुश हूँ ।

                                                अब जिंदगी से हमको मनाया न जायेगा।
यारों है अब भी वक्त हमें देखभाल लो,  
फिर कुछ पता हमारा लगाया न जाएगा ।  

ब्रह्मचारी रामप्रसाद बिस्मिल के पूर्वज ग्वालियर के निवासी थे । इनके पिता श्री मुरलीधर ने कौटुम्बिक कलह से तंग आकर ग्वालियर छोड़ दिया और शाहजहाँपुर आकर बस गये थे । परिवार बचपन से ही आर्थिक संकट से जूझ रहा था । बहुत प्रयास के उपरान्त ही परिवार का भरण-पोषण हो पाता था । बड़ी कठिनाई से परिवार आधे पेट भोजन कर पाता था । परिवार के सदस्य भूख के कारण पेट में घोटूं देकर सोने को विवश थे । उनकी दादी जी एक आदर्श महिला थी  उनके परिश्रम से परिवार में अच्छे दिंन आने लगे । आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ और पिता म्यूनिसपिल्टी में काम पर लग गए जिन्हे १५ रुपए मासिक वेतन मिलता था और शाहजहाँपुर में इस परिवार ने अपना एक छोटा सा मकान भी बना लिया । 

  ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष ११ (निर्जला एकादशी) सम्वत १९५४ विक्रमी तद्ननुसार ११ जून वर्ष १८९७ में रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म हुआ । बाल्यकाल में बीमारी का लंबा दौर भी रहा । पुजारियों की संगत में आने से इन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन किया । नियमित व्यायाम से देह सुगठित हो गई और चेहरे के रंग में निखार भी आने लगा । वे तख्त पर सोते और प्रायः चार बजे उठकर नियमित संध्या भजन और व्यायाम करते थे । केवल उबालकर साग, दाल, दलिया लेते । मिर्च-खटाई को स्पर्श तक नहीं करते थे, नमक खाना छोड़ दिया था । उनके स्वास्थ्य को लोग आश्चर्य से देखते थे । 

वे कट्टर आर्य समाजी थे, जबकि उनके पिता आर्य समाज के विरोधी थे इस कारण इन्हें घर छोड़ना पड़ा । वे दृढ़ सत्यव्रती थे । उनकी माता उनके धार्मिक कार्यों में और शिक्षा मे बहुत मदद करती थी । उस युग के क्रान्तिकारी गैंदालाल दीक्षित के सम्पर्क में आकर भारत में चल रहे असहयोग आन्दोलन के दौरान रामप्रसाद बिस्मिल क्रान्ति का पर्याय बन गये थे । उन्होंने बहुत बड़ा क्रान्तिकारी दल (ऐच आर ए) हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेसन के नाम से तैयार किया और पूरी तरह से क्रान्ति की लपटों के बीच बैठ गए । 

'अमरीका को स्वाधीनता कैसे मिली?' नामक पुस्तक उन्होनें प्रकाशन की जिसे बाद में ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया । बिस्मिल को दल चलाने लिए धन का अभाव हर समय खटकता था । धन के लिए उन्होंने सरकारी खजाना लूटने का विचार बनाया । बिस्मिल ने सहारनपुर से चलकर लखनऊ जाने वाली रेलगाड़ी नम्बर ८ डाऊन पैसेंन्जर में जा रहे सरकारी खजाने को लूटने की कार्ययोजना तैयार की । इसका नेतृत्व मौके पर स्वयं मौजूद रहकर रामप्रसाद बिस्मिल जी ने किया था । उनके साथ क्रान्तिकारीयों में पण्डित चन्द्रशेखर आजाद, अशफाकउल्ला खां , राजेन्द्र लाहिड़ी, मन्मनाथ गुप्त , शचीन्द्रनाथ बख्शी, केशव चक्रवर्ती, मुरारीलाल, बनवारीलाल और मुकुन्दीलाल इत्यादि थे । काकोरी ट्रेन डकैती की घटना की सफलता ने जहाँ अंग्रजों की नींद उड़ा दी वहीं दूसरी ओर क्रान्तिकारियों का इस सफलता से उत्साह बढ़ा । 

इसके बाद इनकी धर-पकड़ की जाने लगी । बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह , राजेन्द्र लाहिड़ी, मन्मनाथ गुप्त, गोविन्द चरणकार, राजकुमार सिन्हा आदि गिरफ्तार किए गए । सी. आई. डी की चार्जशीट के बाद स्पेशल जज लखनऊ की अदालत में काकोरी केस चला । भारी जनसमुदाय अभियोग वाले दिन आता था । विवश होकर लखनऊ के बहुत बड़े सिनेमा हाल रिंक थिएटर को सुनवाई के लिए चुना गया । बिस्मिल, अशफाक , ठा. रोशनसिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी को मृत्युदंड तथा शेष को कालापानी की सजा दी गई । फाँसी की तारीख १९ दिसंबर १९२७ तय की गई । 

फाँसी के फन्दे की ओर चलते हुए बड़े जोर से बिस्मिल जी ने वन्दे मातरम का उदघोष किया । राम प्रसाद बिस्मिल फाँसी पर झूलकर अपना तन मन भारत माता के चरणों में अर्पित कर गए । प्रातः ७ बजे उनकी लाश गोरखपुर जेल अधिकारियों ने परिवारवालों को दे दी । लगभग ११ बजे इस महान देशभक्त का अन्तिम संस्कार पूर्ण वैदिक रीति से किया गया । स्वदेश प्रेम से ओत-प्रोत उनकी माता ने कहा " मैं अपने पुत्र की इस मृत्यु से प्रसन्न हूँ, दुखी नहीं हूँ ।"  

उस दिन बिस्मिल की ये पंक्तियाँ वहाँ मौजूद हजारों युवकों-छात्रों के ह्रदय में गूँज रही थी: 

''यदि देशहित मरना पड़े, मुझको हजारों बार भी,  
तो भी नहीं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊँ कभी ।  
हे ईश ! भारतवर्ष मे शत बार मेरा जन्म हो  
कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो ।''

इस महान वीर सपूत को शत्-शत् नमन ।                                              आभार-- युग के देवता, LBA
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