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शनिवार, 15 जनवरी 2011

नवगीत सड़क पर संजीव 'सलिल'

नवगीत
                                                                                सड़क पर

संजीव 'सलिल'
*
कहीं है जमूरा,
कहीं है मदारी.
नचते-नचाते
मनुज ही  सड़क पर...
*
जो पिंजरे में कैदी
वो किस्मत बताता.
नसीबों के मारे को
सपना दिखाता.
जो बनता है दाता
वही है भिखारी.
लुटते-लुटाते
मनुज ही  सड़क पर...
*
साँसों की भट्टी में
आसों का ईंधन.
प्यासों की रसों को
खींचे तन-इंजन.
न मंजिल, न रहें,
न चाहें, न वाहें.
खटते-खटाते
मनुज ही  सड़क पर...
*
चूल्हा न दाना,
मुखारी न खाना.
दर्दों की पूंजी,
दुखों का बयाना.
सड़क आबो-दाना,
सड़क मालखाना.
सपने-सजाते
मनुज ही  सड़क पर...
*
कुटी की चिरौरी
महल कर रहे हैं.
उगाते हैं वे
ये फसल चर रहे हैं.
वे बे-घर, ये बा-घर,
ये मालिक वो चाकर.
ठगते-ठगाते
मनुज ही  सड़क पर...
*
जो पंडा, वो झंडा.
जो बाकी वो डंडा.
हुई प्याज मंहगी
औ' सस्ता है अंडा.
नहीं खौलता खून
पानी है ठंडा.
पिटते-पिटाते
मनुज ही  सड़क पर...
*

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