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शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

मुक्तिका: आँखों जैसी गहरी झील - संजीव 'सलिल'

मुक्तिका

संजीव 'सलिल'
*
आँखों जैसी गहरी झील.
सकी नहीं लहरों को लील..

पर्यावरण प्रदूषण की
ठुके नहीं छाती में कील..

समय-डाकिया महलों को
कुर्की-नोटिस कर तामील..

मिष्ठानों का लोभ तजो.
खाओ बताशे के संग खील..

जनहित-चुहिया भोज्य बनी.
भोग लगायें नेता-चील..

लोकतंत्र की उड़ी पतंग.
थोड़े ठुमके, थोड़ी ढील..

पोशाकों की फ़िक्र न कर.
हो न इरादा गर तब्दील..

छोटा मान न कदमों को
नाप गये हैं अनगिन मील..

सूरज जाये महलों में.
'सलिल' कुटी में हो कंदील..

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1 टिप्पणी:

shar_j_n ekavita ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,

फ़िर से ज़मीन से जुड़ी सुन्दर मुक्तिका.

पतंगें तो खूब उडी होंगी भारत में ...

आभार,
सादर शार्दुला