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शुक्रवार, 25 मार्च 2011

प्रश्नोपनिषद: काव्यानुवाद- मृदुल कीर्ति

प्रश्नोपनिषद: काव्यानुवाद- मृदुल कीर्ति

 ॐ श्री परमात्मने नमः

शांति पाठ

हे देव गण !कल्याणमय हम वचन कानों से सुनें,
कल्याण ही नेत्रों से देखें , सुदृढ़ अंग बली बनें।
आराधना स्तुति प्रभो की, हम सदा करते रहे,
मम आयु देवों के काम आए , हम नमन करतें रहें।
हे इन्द्र ! मम कल्याण को , कल्याण का पोषण करे,
हे विश्व वेदाः पूषा श्री मय , ज्ञान संवर्धन करें।
हे बृहस्पति ! अरिष्ट नेमिः , स्वस्ति कारक आप हैं।
सब त्रिविध ताप हों शांत जग के, देते जो संताप हैं।
 


सत्य काम, सुकेशा, भार्गव, आश्रलायन, कबंधी,
सौर्यायणी, ये छः ऋषि, वेदों के अध्ययन संबन्धी।
जिज्ञासु होकर वे ऋषि पिप्पलाद के आश्रम गए,
सब हाथ में समिधा लिए, पिप्पलाद आश्रम आ गए॥ [ १ ]


उन सुकेशा आदि ऋषियों से श्रेष्ठ मुनिवर ने कहा,
सब एक वर्ष यहॉं रहो, करो ब्रह्मचर्य का व्रत महा।
पुनि तपश्चर्या के अनंतर , प्रश्न इच्छित पूछना,
ऋत ज्ञान होगा यदि मुझे सब कहूंगा स्नेही मना॥ [ २ ]


ऋषि कत्य प्रपौत्र कबंधी ने, पूछा ऋषि पिप्पलाद से,
श्रधेय मुनिवर महिम श्रेष्ठ हे! सृष्टि किसके प्रसाद से?
नियमित चराचर जीव कैसे, कौन, कैसा विधान है?
है कौन इसका तत्व कारण, प्रश्न मेरा प्रधान है? [ ३ ]


निश्चय सृजन कर्ता प्रजाओं का प्रजापति श्रेष्ठ है,
एक रयि, एक प्राण मिलकर सृजित सृष्टि यथेष्ट है।
जग के पदार्थ हैं सब रयि, ज्ञातव्य जो दृष्टव्य है,
प्राण रयि के योग से ,निर्मित है अतिशय भव्य है॥ [ ४ ]


यह सूर्य ही है प्राण निश्चय, और रयि शुचि सोम है,
आकारमय जल, तेज, भू, व् अमूर्त वायु व्योम है।
यह पांचभौतिक तत्व जो कि मूर्त है, संसार में,
ये सब रयि दृष्टव्य जो कि मूर्त हैं आकार में॥ [ ५ ]


निशि के अनंतर सूर्य पूर्व में, उदित होता नित्य है,
चारों दिशा में रश्मियों में धारता आदित्य है।
सब प्राणियों के प्राण को, किरणों में धारण रवि करे
वह सर्व लोकों, सृष्टि की, दिनमान मुखरित छवि करे॥ [ ६ ]


जठराग्नि जो है प्राणियों में, वैश्वानर के नाम से,
वह सूर्य का ही अंश, वितरित शक्ति है रवि धाम से।
आदित्य की निष्पन्न शक्ति से, विश्व स्थिर, व्यक्त है,
आदित्य बिन निष्प्राण जग है, शक्ति इसकी अव्यक्त है॥ [ ७ ]


आधार जग का उदित रवि, अति आदि स्रोत है प्राण का,
अति तप्त ज्योति के रश्मि पुंज हे ! विश्व रूप महान का।
रवि मूल जीवन स्रोत्र इसकी, रश्मियों में प्राण हैं,
जग के सभी व्यवहार , प्राणी , सूर्य बिन निष्प्राण हैं॥ [ ८ ]

प्रथम प्रश्न / भाग २ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति
युग , काल, संवत्सर समय यह सब प्राप्ति रूप है,
उत्तर व् दक्षिण दो अयन, इसके ही अंग स्वरुप हैं।
पाते सकामी चंद्र लोक को, पुनि वहॉं से लौटते,
पुनरावृति का चक्र पुनि-पुनि पुनः पुनरपि काटते॥ [ ९ ]


जो ब्रह्मचर्य आध्यात्म तप श्रद्धा से ईश्वर खोजते,
वे उत्तरायण मार्ग से, रवि लोक पाते हैं ऋत मते।
निर्भय अमर यह परम गति , प्राणों का रवि ही केन्द्र है,
पुनि लौट कर आते नहीं , उनका महेश महेंद्र है॥ [ १० ]


रवि छः अरों व् सप्त पहियों युक्त, कुछ इसको कहें,
यह मास् द्वादश वर्ष के द्वादश स्वरुप है अति महे।
यह सूर्य मंडल सूर्य की स्थूल छवि दृष्टव्य है,
वर्षा, ऋतु, और इन्द्रधनुषी , रूप रवि ज्ञातव्य है॥ [ ११ ]


प्रत्येक महीना वर्ष का, मानो प्रजापति रूप है,
रथि उसका कृष्ण पक्षे , शुक्ल प्राण स्वरुप है।
कल्याण कामी शुक्ल पक्षे, यज्ञ कर्म निमग्न हैं,
कृष्ण पक्षे , जो सकामी फल मिले संलग्न है॥ [ १२ ]


निशि-दिवस दोनों प्रजापति , रात्री रयिः दिन प्राण है,
जो दिवस में रति लगन रहते, कहाँ उनका त्राण है।
प्राणों को अपने क्षीण कर गंतव्य अपना भूलते,
जो रति में रत शास्त्रोक्त विधि, हैं ब्रह्मचारी ऋत मते॥ [ १३ ]


यह अन्न ही है प्रजापति का , रूप अति महिमा महे,
आधार प्राणी , प्राण के , बिन अन्न कब कोई रहे।
इस अन्न से ही वीर्य बन , प्राणी चराचर जगत के,
उत्पन्न होते , अतः अन्न ही प्रजापति हैं जगत के॥ [ १४ ]


संकल्प व्रत दृढ़ निश्चयी हो, जो प्रजापति का करे,
वे पुत्र कन्या का सृजन कर , सृष्टि संवर्धन करें।
और वे कि जिनमें ब्रह्मचर्य व् सत्य निष्ठा पूर्ण है,
यह ब्रह्मलोक व् ब्रह्म उनको मिलता जो प्रभु पूर्ण है॥ [ १५ ]


जो छल कपट व् राग द्वेष से शून्य हैं अति शुद्ध हैं,
जो अनृत भाषण आचरण से, दूर हैं व् विशुद्ध हैं।
ऋत ब्रह्मलोक विशुद्ध उनको ही मिले संशय नहीं,
विपरीत रहते हीन, इस उपदेश का आशय यही॥ [ १६ ]


  • द्वितीय प्रश्न / भाग १ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति

  • विदर्भ देश के भार्गव ने पूछा ऋषि पिप्पलाद से,
    कुल देवता कीने प्रजा को, धारें किसके प्रसाद से।
    करते प्रकाशित कौन इसको, श्रेष्ठ कौन महिम महे?
    है प्रश्न मेरा प्रथम यह, अति विनत हूँ कृपया कहें॥ [ १ ]


    अति पूज्य ऋषि ने भार्गव से कहा, कि आकाश ही,
    अति प्रमुख देव प्रसूत उससे , अग्नि जलवायु मही।
    तब वाक् चक्षु, श्रोत्र, मन, स्व शक्ति के अभिमान से,
    कहने लगे कि शरीर के , हैं हम ही धारक मान से॥ [ २ ]


    उनसे कहा अति महिम प्राण ने, त्याग दो स्व अहम को,
    मैं प्राण हूँ अति श्रेष्ठतम, क्यों भूलते मुझ प्रथम को।
    मैनें स्वयं को ही विभाजित, पाँच भागों में किया,
    तुमने तो बस धारक प्रकाशक, बन के प्राणों को जिया॥ [ ३ ]


    तब प्राण गर्व से उर्ध्व को , गतिमान व् उन्मुख हुए,
    अब अन्य देवों के गर्व भंग, व् सिद्ध प्राण प्रमुख हुए।
    एव स्वत्व प्रभुता प्राण की, मधराज के सम सिद्ध है,
    मन श्रोत्र वाणी , नेत्र प्राण के स्वत्व से आबद्ध है॥ [ ४ ]


    यही तप्त होता अग्नि रूप में, प्राण ही दिनमान है,
    यही मेघ वायु इन्द्र पृथ्वी, देव रयि भी प्राण है।
    सत असत से भी श्रेष्ठ जो परमात्मा अमृतमयी,
    वह भी यही यह प्राण है, जग प्राण मय स्वस्ति मयी॥ [ ५ ]


    रथ चक्र नाभी के अरे, ज्यों नाभि के आधीन है,
    त्यों जग की सात्विक शुची क्रियायें प्राण में ही विलीन हैं।
    ऋग, साम यजुः की शुचि ऋचाएं , ब्रह्म क्षत्रिय की क्रिया,
    का प्राण ही आधार जिसने जीव संचालन किया॥ [ ६ ]

  • द्वितीय प्रश्न / भाग २ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति

  •  
    हे प्राण तू ही प्रजापति, करे गर्भ में विचरण तू ही,
    पितु - मातु के अनुरूप, शिशु का जन्म लेता है तू ही।
    प्राणों की तृप्ति को अन्न भक्षण, कर्म केन्द्र तू ही, तू ही,
    अस्तित्व प्राणी का प्राण से, सब प्राणियों में है तू ही॥ [ ७ ]


    हे प्राण तू ही देवताओं के छवि का साधक अग्नि है,
    पितरों की पहली स्वधा है और प्राण की पंचाग्नि है।
    तू ही अथर्वांगिरस ऋषियों का अनुभव सत्य है,
    तू ही जगत का प्राण तत्व है, प्राण बिन जग मृत्य है॥ [ ८ ]


    हे प्राण तू त्रैलोक स्वामी, तेज पुंज है इन्द्र तू,
    संहार कर्ता प्रलय काले, रूप प्राण का रुद्र तू।
    ज्योतिर्गनों का स्वामी रवि तू, भू,चन्द्र, तारे, अनिल तू,
    रक्षक व् पोषक तू ही तू दिवि अन्तरिक्षे अनल तू॥ [ ९ ]


    जब मेघ रूप में प्राण पृथ्वी पर सकल वर्षा करें,
    पर्याप्त अन्न की कामना , तेरी प्रजा हर्षा करे।
    निर्वाह जीवन का सरस , आनंद मय हो जाएगा,
    यह जान हर्षित प्राणी प्रति मन मुदित महिमा गायेगा॥ [ १० ]


    हैं संस्कार विहीन फिर भी प्राण अतिशय श्रेष्ठ हैं,
    एकर्ष पोषण अन्न से, हम करते जिसका यथेष्ट हैं।
    आकाश चारी समिष्ट वायु रूप प्राण पिता तू ही,
    अति श्रेष्ट ईशानं जगत का, अन्न का भोक्ता तू ही॥ [ ११ ]


    मन श्रोत्र, वाणी , चक्षुओं में , प्राण का जो रूप है,
    इन्द्रियों अन्तःकरण की वृति में जो अनूप है।
    हे प्राण तुम कल्याणमय होकर रहो स्थित यहीं,
    न ही देह से करो उत्क्रमण, मम भावः है अर्पित यही॥ [ १२ ]


    स्वर्ग लोक में, दृश्य जग में, जो भी कुछ दृष्टव्य है,
    सब प्राण के ही अधीन है और प्राणमय गंतव्य है।
    माता के सम हे प्राण ! तुम रक्षा करो पोषण करो,
    दो कार्य क्षमता , कान्ति श्री, प्रज्ञा का संप्रेषण करो॥ [ १३ ]

    तृतीय प्रश्न / भाग १ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति

    कोसल के मुनि श्री आश्रव्लायन ने ऋषि पिप्लाद से,
    पूछा की प्राण का जन्म कैसे, होता किसके प्रसाद से।
    यह कैसे आता देह में, स्थित विभाग की क्या क्रिया,
    जग व् मन का ग्रहण कैसे, क्या उत्क्रमण की प्रक्रिया? [ १ ]


    मन मुदित ऋषि, पिप्लाद ने तब आश्रव्लायन से कहा,
    अति क्लिष्ट तेरे प्रश्न प्राण की गूढ़ अति महिमा महा।
    नहीं तार्किक श्रद्धालु तू, वेदों में अति निष्णात है,
    देता हूँ उत्तर प्रश्नों का, जितना भी मुझको ज्ञात है॥ [ २ ]


    परब्रह्म प्राणों का रचियता, महिम महि महिमा महे,
    सम काया-छाया प्राण ब्रह्म के आश्रय में ही रहें।
    यह प्राण मन संकल्प से काया में करते प्रवेश हैं,
    प्राणों के काया प्रवेश में यही भाव तत्व विशेष है॥ [ ३ ]


    अधिकारियों को ग्रामों में, सम्राट करता नियुक्त है,
    यह मुख्य प्राण उसी तरह, प्राणों को करता विभक्त है।
    पृथक ही करके विभाजित क्षेत्र स्थापित करे,
    यूँ मुख्य प्राण विभक्त होकर स्वयम को ज्ञापित करें॥ [ ४ ]


    स्वयं प्राण तो नासिका मुख से विचार कर नेत्र में,
    श्रोत्र में स्थित रहे व् अपान उपस्थ के क्षेत्र में।
    नाभि में स्थित प्राण देते, अन्न रस सम भाव से,
    करे सात ज्वालायें ज्वलित, प्राणाग्नि के ही प्रभाव से॥ [ ५ ]


    हृदय देश में गात के, जीवात्मा का वास है, मूल उसमें सौ नाड़ियों, एक-एक में सौ का विकास है। प्रति एक शाखा नाडियों, बहत्तर -बहत्तर सहस्त्र हैं, कुल बहत्तर कोटि योग, ये न्यान वायु के क्षेत्र हैं॥ [ ६ ]

    तृतीय प्रश्न / भाग १ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति

    कोसल के मुनि श्री आश्रव्लायन ने ऋषि पिप्लाद से,
    पूछा की प्राण का जन्म कैसे, होता किसके प्रसाद से।
    यह कैसे आता देह में, स्थित विभाग की क्या क्रिया,
    जग व् मन का ग्रहण कैसे, क्या उत्क्रमण की प्रक्रिया? [ १ ]


    मन मुदित ऋषि, पिप्लाद ने तब आश्रव्लायन से कहा,
    अति क्लिष्ट तेरे प्रश्न प्राण की गूढ़ अति महिमा महा।
    नहीं तार्किक श्रद्धालु तू, वेदों में अति निष्णात है,
    देता हूँ उत्तर प्रश्नों का, जितना भी मुझको ज्ञात है॥ [ २ ]


    परब्रह्म प्राणों का रचियता, महिम महि महिमा महे,
    सम काया-छाया प्राण ब्रह्म के आश्रय में ही रहें।
    यह प्राण मन संकल्प से काया में करते प्रवेश हैं,
    प्राणों के काया प्रवेश में यही भाव तत्व विशेष है॥ [ ३ ]


    अधिकारियों को ग्रामों में, सम्राट करता नियुक्त है,
    यह मुख्य प्राण उसी तरह, प्राणों को करता विभक्त है।
    पृथक ही करके विभाजित क्षेत्र स्थापित करे,
    यूँ मुख्य प्राण विभक्त होकर स्वयम को ज्ञापित करें॥ [ ४ ]


    स्वयं प्राण तो नासिका मुख से विचार कर नेत्र में,
    श्रोत्र में स्थित रहे व् अपान उपस्थ के क्षेत्र में।
    नाभि में स्थित प्राण देते, अन्न रस सम भाव से,
    करे सात ज्वालायें ज्वलित, प्राणाग्नि के ही प्रभाव से॥ [ ५ ]


    हृदय देश में गात के, जीवात्मा का वास है, मूल उसमें सौ नाड़ियों, एक-एक में सौ का विकास है। प्रति एक शाखा नाडियों, बहत्तर -बहत्तर सहस्त्र हैं, कुल बहत्तर कोटि योग, ये न्यान वायु के क्षेत्र हैं॥ [ ६ ]

    तृतीय प्रश्न / भाग २ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति

    उदान वायु, उर्ध्व गति की, सुषुम्ना नाड़ी और है,
    ले जाती प्राणी को पुण्य कर्मों से, पुण्य लोक की ओर है।
    पाप कर्मों से, पाप योनि व् पाप पुण्यों के योग से,
    मिलती हैं मानव योनियों, पुनि जन्म कर्मों के भोग से॥ [ ७ ]


    आदित्य निश्चय ही सभी का, बाह्य प्राणाधार है,
    इन्द्रियों व प्राणों पर रवि की कृपा तो अपार है।
    अन्तरिक्ष ही समान वायु व्यान बाह्य स्वरुप है,
    वायु अपान को धरा स्थित करता देव अनूप है॥ [ ८ ]


    आदित्य अग्नि का बाह्य अति जो तेजोमय उष्णत्व है,
    है बाह्य रूप उदान का व् ऊष्मा में स्थिरत्व है।
    तन से जिसके उदान वायु का शेष हो व् गमन हो,
    मन में विलोपित इन्द्रियों के साथ पुनि-पुनि जनम हो॥ [ ९ ]


    अन्तिम क्षणों में आत्मा का जैसा भी संकल्प हो,
    अनुसार चिंतन के ही उसका जन्म हो और कल्प हो।
    होती है स्थित मुख्य प्राण में, आत्मा की गति सही,
    संकल्प के अनुसार मिलते जन्म उसको लघु मही॥ [ १० ]


    संतान वंश परम्परा उसकी कदापि न क्षीण हो,
    मही प्राण तत्व के मर्म में, प्राणी जो पूर्ण प्रवीण हो।
    जीवन हो उसका सार्थक, हो अमर, न फ़िर जन्म हो,
    चिंतन अचिन्त्य का जो करे, अक्षुण्य उसके पुण्य हो॥ [ ११ ]


    जो प्राण की उत्पत्ति, आगम और व्यापक तत्व से,
    हैं विज्ञ वे ही आप्लावित, ब्रह्म के अमृतत्व से।
    आध्यात्मिक और आधिभौतिक, पाँच भेदों के मर्म से,
    जो विज्ञ, विज्ञ, अविज्ञ के अनभिज्ञ अद्भुत मर्म से॥ [ १२ ]

    चतुर्थ प्रश्न / भाग १ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति
    अथ गार्ग्यः सौर्यायणी ऋषि ने, पूछा मुनि पिप्लाद से,
    देवता किम सोये जागे, भोगे किस आल्हाद से।
    मानव शरीर में स्वप्न दृष्टा, कौन किसमें लीन है,
    सम सर्व भाव से देवता, किसमें कहाँ तल्लीन हैं॥ [ १ ]


    हे गार्ग्य ज्यों सूर्यास्त किरणें, सूर्य में ही लीन हों,
    मन रूप देव में इन्द्रियां त्यों सुषुप्ति काले लीन हों।
    रस, गंध, श्रुति, स्पर्श, वाद, गति, ग्रहण, त्याग, से लीन हों,
    पुनि जागरण, पुनि रवि उदय सम पुनः कर्म प्रवीण हों॥ [ २ ]


    प्राण रूपी पञ्च अग्नियाँ, देह रूपी नगर में,
    रहती हैं जागृत हर निमिष में और आगे पहर में।
    है अपान गार्हपत्य अग्नि, व्यान दक्षिण अग्नि है,
    प्रणयन के कारण आवह्नीय, प्राण रूपा अग्नि है॥ [ ३ ]


    यह श्वास और प्रश्वास दोनों आहुति हैं यज्ञ की,
    इस मन से ही यजमान करता वंदना अथ अज्ञ की।
    है वायु ऋत्विक , इष्ट फलदाता, यही तो उदान है,
    यही ब्रह्म लोके सुषुप्ति में, ले जाते मन को प्राण हैं॥ [ ४ ]


    जीवात्मा स्वप्नावस्था में भी अनुभव कर सके,
    दृष्टं -अदृशटम, दृश्य पुनि-पुनि, श्रुत अश्रुत को सुन सके।
    सत् असत की अनुभूति का, अनुभूति कर्ता बन सके,
    अथ आस्ति-नास्ति, विचित्र चित्र का स्वप्न दृष्टा बन सके॥ [ ५ ]


    अभिभूत होता मन ये जब कि उदान वायु के तेज से,
    तब स्वप्न को नहीं देखता है, उदान वायु के ओज से।
    उस क्षण विशेष सुषुप्ति में, जीवात्मा को सुख महे,
    होता प्रतीति व् इस प्रतीति को, तत्वगत कैसे कहें॥ [ ६ ]

    चतुर्थ प्रश्न / भाग २ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति

    मन इन्द्रियां और प्राण बुद्धि किसके कत आसीन हैं,
    प्रिय गार्ग्य ! जैसे वृक्षों पर खग विचर कर आसीन है।
    त्यों भू से लेकर प्राण तक सब तत्व ब्रह्म आधीन हैं,
    वे परम आश्रय परम कारण, आदि अंत विहीन हैं॥ [ ७ ]


    भू, वायु, जल, नभ, अग्नि, चक्षु, श्रोत्र, मन, रसना, त्वचा,
    वाक्, हस्त, कर्म,उपस्थ, मन, पग, चित्त, जीवन की ऋचा।
    मन बुद्धि चित्त अहम् की वृतियां, विषय उनके विभव भी,
    इन सबके मूल में ब्रह्म तत्व व् प्राण तत्व प्रभाव भी॥ [ ८ ]


    स्पर्श, सुनने, सूंघने और देखने व् जानने,
    सब स्वाद सात्विक मनन कर्ता और कर्म को मानने।
    वाला जो है जीवात्मा, वह ब्रह्म में स्थित रहे,
    भली भाँति स्थित ब्रह्म में, अथ तत्वगत गति में रहे॥ [ ९ ]


    जो कोई भी छाया शरीर व् रंगहीन विशुद्ध को,
    परब्रह्म अविनाशी व् अक्षर परम सिद्ध प्रबुद्ध को।
    जाने वही सर्वग्य एवं सर्व रूप स्वरुप है,
    हे सौम्य ! संशय न तनिक पर ब्रह्म रूप अनूप है॥ [ १० ]


    सब प्राण पाँचों भूत अंतःकरण और ज्ञानेन्द्रियाँ,
    विज्ञानं मय शुचि आत्मा और जिसकी सब कर्मेन्द्रियों।
    लेती है आश्रय अक्षरम, अविनाशी ब्रह्म को जानते,
    सर्वज्ञ मय होते स्वयं और सत्ता को पहचानते॥ [ ११ ]

    पंचम प्रश्न / भाग १ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति
    शिवि पुत्र सात्विक सत्यकाम ने पूछा ऋषि पिप्लाद से,
    भगवन! मनुष्यों में जो कोई ॐ को आह्लाद से।
    पर्यंत मृत्यु ध्यान चिंतन करते वे किस लोक को,
    करते विजित , यह प्रश्न करिए शांत मेरे विवेक को॥ [ १ ]


    हे सत्यकाम ! सुनो प्रिये जो निश्चय यह ओंकार है,
    परब्रह्म यह ही अपर ब्रह्म भी, लक्ष्य भूत प्रकार है।
    इस एक ही अवलम्ब के चिंतन से ब्रह्म महेश को,
    अनुसार भाव के पाते ब्रह्म को, परम प्रभु परमेश को॥ [ २ ]


    ओंकार की मात्रा प्रथम, ऋग्वेद रूपा है यथा,
    तप श्रद्धा व् संयम से जिसकी, ऋद्धि मान की है प्रथा।
    ओंकार का साधक यदि ऐश्वर्य में आसक्त है,
    हो प्रीति के अनुरूप प्राप्ति जिसमें मन अनुरक्त है॥ [ ३ ]


    ओंकार की मात्रा द्वितीया यजुर्वेद का रूप है,
    सुख भूः, भुवः की सिद्धि देती, साधकों को अनूप है।
    वे चन्द्र लोके विविध एश्वेर्यों का सुख हैं भोगते,
    पुनि जन्म लेते मृत्यु लोके, क्षीण जब हों शुभ कृते॥ [ ४ ]

    पंचम प्रश्न / भाग २ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति
    जो तीन मात्रायुक्त ॐ के भू, भुवः स्वः रूप के,
    चिन्तक वे पाते एक अक्षर से ही, सुख रवि भूप के।
    ज्यों सर्प केंचुल से पृथक, त्यों पाप कर्म से मुक्त हों,
    वह साम मंत्रो से लोक रवि, व् ब्रह्म लोक से युक्त हो॥ [ ५ ]


    ओंकार की मात्राएँ तीनों 'अ' 'उ' 'म' का पृथक या,
    संयुक्त रूप प्रयुक्त जिसने भी मनन चिंतन किया।
    दोनों ही विधि से मृत्यु मय चिर अमर व् शाश्वत नहीं,
    जो बाह्य अन्तः मध्य हैं, ओंकार मय अमृत वही॥ [ ६ ]


    एक मात्रा साधक ऋग, ऋचा के पुण्य से भू लोक का,
    द्वि मात्रा साधक यजुः ऋचा के पुण्य से शशि लोक का।
    त्रि मात्रा साधक साम गान के, पुण्य से दिवि लोक का,
    पर ॐ अवलंबन जिसे, सुख पाते शाश्वत लोक का॥ [ ७ ]

     षष्ठ प्रश्न / भाग १ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति
    भारद्वाज पुत्र सुकेशा ने पूछा ऋषि पिप्लाद से,
    मुझसे हिरण्यनाभ ने यह पूछा था आह्लाद से।
    सोलह कलाओं मय पुरूष से, कहो क्या मैं विज्ञ हूँ,
    नहीं, मैं नहीं जानता, अथ कहें आप कृतज्ञ हूँ॥ [ १ ]


    हे प्रिय सुकेशा वह शरीर के अति अन्तः प्रकट है,
    सोलह कलाओं मय पुरूष अन्तः शरीरे नकट है।
    अन्यत्र अन्वेषण हो उसका, खोज उसकी व्यर्थ है,
    अभिलाषा उत्कट जब जगे, मिले हृदय मैं यही अर्थ है॥ [ २ ]


    अति आदि में महा सर्ग के , सोचा रचयिता ने जगत के,
    क्या तत्व डालूँ महत कि जिसके बिना अस्तित्व के।
    न मैं रहूँ , सत्ता मेरी भी साथ उसके विलीन हो,
    यदि वह प्रतिष्ठित मैं भी स्थित , मेरी सत्ता आधीन हो॥ [ ३ ]


    यह सोच ब्रह्म ने अति प्रथम रचे प्राण फ़िर श्रद्धा महे,
    नभ , वायु, जल, भू, तेज, मन, तप, अन्न, वीर्य, विद्या, अहे।
    बहु मन्त्र , बहु विधि कर्म, लोकों का सृजन और नाम भी,
    अथ रचित सोलह कला मय जग, पुरूष ब्रह्म का धाम भी॥ [ ४ ]
    षष्ठ प्रश्न / भाग २ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति
    नदियाँ जलधि की ओर बहकर लीं सागर में तथा,
    वे नाम रूप विहीन होकर जलधि मय होती यथा।
    त्यों ब्रह्म की सोलह कलाओं की परम गति पुरूष हैं,
    वह नाम रूप विहीन हो अब मात्र केवल पुरूष है॥ [ ५ ]


    रथ चक्र नाभि केन्द्र पर, ज्यों अरे स्थित हैं यथा,
    त्यों सब कलाएं सर्वथा स्थित प्रभो में न अन्यथा।
    ज्ञातव्य उस पर ब्रह्म का, यदि ज्ञान तुमको हो सके,
    नहीं मृत्यु की दारुण व्यथा से व्यथित कोई हो सके॥ [ ६ ]


    अथ तब सुकेशा आदि छह ऋषियों को ऋषि पिप्लाद से,
    हुआ ज्ञात ब्रह्म का ज्ञान इतना, उनके ही संवाद से।
    सत ज्ञान ब्रह्म का जानता था जितना भी वह कथित है,
    इससे परे परब्रह्म का नहीं ज्ञान हमको विदित है॥ [ ७ ]


    मुनिगण सुकेशा आदि ऋषियों ने ऋषि पिप्लाद से,
    पुनि पुनि नमन, व् कृतज्ञ भाव को, व्यक्त कर आह्लाद से।
    अथ प्रणत अतिशय नम्र होकर यह कहा कि आप ही,
    मम गुरु पिता हे ज्ञान प्रेरक, परम ऋषि वर आप ही॥ [ ८ ]

    1 टिप्पणी:

    Divya Narmada ने कहा…

    प्रश्नोपनिषद

    http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6_/_%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF