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शुक्रवार, 25 मार्च 2011

केनोपनिषद, काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति

केनोपनिषद, काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति

ॐ श्री परमात्मने नमः

शांति पाठ
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा
मा ब्रह्म निराकारोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु।
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥

हे ईश ! मेरे अंग सब परिपूर्ण और बलवान हों,
नेत्र , श्रोत्रम, प्राण , वाणी , बल इन्द्रियों में महान हों।
उपनिषदों में प्रतिपाद्य ब्रह्म से, गहन मम सम्बन्ध हों,
हो त्रिविध तापों की निवृत्ति, परब्रह्म तत्त्व प्रबंध हों॥
 
ॐ केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति ॥१॥
किससे है प्रेरित प्राण वाणी, ज्ञानेंद्रियाँ, कर्मेंद्रियाँ।
है कौन मन का नियुक्ति कर्ता, कौन संपादक यहाँ॥
अति प्रथम प्राण का कौन प्रेरक, कौन जिज्ञासा महे।
वाणी को वाणी दाता की, करे कौन मीमांसा अहे॥ [ १ ]

श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद् वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राणः ।
चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥२॥

जो मन का मन अति आदि कारण, प्राण का भी प्राण है।
वाक् इन्द्रियों का वाक् है, कर्ण इन्द्रियों का कर्ण है॥
चक्षु इन्द्रियों का चक्षु प्रभु, एक मात्र प्रेरक है वही।
ऋत ज्ञानी जीवन्मुक्त हो, पुनि जगत में आते नहीं॥ [ २ ]

न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनः ।
न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात् ॥३॥

उस ब्रह्म तक मन प्राण वाणी, की पहुँच होती नहीं।
फिर ब्रह्म तत्त्व के ज्ञान की, विधि पायें हम कैसे कहीं॥
अथ पूर्वजों से प्राप्य ज्ञान का सार, ब्रह्म ही नित्य है।
चेतन व जड़ से भिन्न है, एकमेव ब्रह्म ही सत्य है॥ [ ३ ]

यद्वाचाऽनभ्युदितं येन वागभ्युद्यते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥४॥

सामर्थ्य वाणी में कहाँ जो ब्रह्म विषयक कह सके।
वाणी में जितनी वाणी है, किंचित न किंचित कह सके॥
यह ब्रह्म तत्त्व तो वाणी से, अतिशय अतीत अतीत है।
प्रेरक प्रवर्तक वाणी का, ज्ञाता है ब्रह्म, प्रतीति है॥ [ ४ ]

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥५॥

मन बुद्धि के जो विषय हैं, परब्रह्म तो उससे परे।
मन बुद्धि में सामर्थ्य क्या, जो ब्रह्म का वर्णन करे॥
परब्रह्म शक्ति के अंश से, मन में मनन सामर्थ्य है।
परब्रह्म की मीमांसा को, बुद्धि मन असमर्थ हैं॥ [ ५ ]

यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यति ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥६॥

इस दृश्यमान जगत में जो भी दृश्य है दृष्टव्य हैं।
दृग दृष्टि के ही विषय हैं , नहीं दृष्टि के गंतव्य हैं॥
परब्रह्म प्रभु तो चक्षु इन्द्रियों से परे अति भव्य है।
उसकी ही शक्ति अंश से जग दृष्टिगोचर नव्य है॥ [ ६ ]

यच्छ्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥७॥

प्राकृतिक श्रोत्रों से मात्र जग श्रवणीय है संभाव्य है।
सामर्थ्य क्या हम सुन सकें, उस ब्रह्म का जो काव्य है॥
श्रुति इन्द्रियों के विषय से, परब्रह्म तो अतिशय परे।
सामर्थ्य इन्द्रियों में कहाँ, सम्पूर्ण जो वर्णन करे॥ [ ७ ]

यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥८॥

प्रेरक प्रवर्तक शक्तिमन, प्रभु नित्य है प्राकृत नहीं।
शुचि रूप उसका वास्तविक , फिर पायें हम कैसे कहीं ?
प्राकृतिक प्राणों की शक्ति सीमा से परे प्रभु मर्म है।
प्रिय प्राण में प्रभु प्रवृत अंश से प्रवृत जीव के कर्म हैं॥ [ ८ ]

द्वितीय खंड / केनोपनिषद / मृदुल कीर्ति
यदि मन्यसे सुवेदेति दहरमेवापि नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपम् ।
यदस्य त्वं यदस्य देवेष्वथ नु मीमाँस्येमेव ते मन्ये विदितम् ॥१॥

यदि तेरा यह विश्वास कि तू ब्रह्म से अति विज्ञ है।
मति भ्रम है किंचित विज्ञ, पर अधिकांश तू अनभिज्ञ है॥
मन, प्राण में, ब्रह्माण्ड में, नहीं ब्रह्म है ब्रह्मांश है।
तुमसे विदित ब्रह्मांश जो, वह तो अंश का भी अंश है॥ [ १ ]

नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च ।
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥२॥

अज्ञेय ब्रह्म तथापि किंचित, ज्ञेय भी अज्ञेय भी।
अनभिज्ञ न ही नितांत है, नितांत न ही ज्ञेय है॥
अज्ञेय ज्ञेय की परिधि से, प्रभु सर्वथा अतिशय परे।
ज्ञातव्य, ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय की ज्ञात सीमा से परे॥ [ २ ]

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः ।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥३॥

अनभिज्ञ उनसे ब्रह्म है, जिसे विज्ञ है कि विज्ञ है।
जिन्हें विज्ञ पर अनभिज्ञ हैं, ऋत रूप में वे विज्ञ हैं॥
ज्ञानी जो ब्रह्म विलीन हैं, उन्हें ब्रह्म ज्ञान का भान क्या  ?
ज्ञेय ज्ञाता ज्ञान का उन्हें ज्ञान क्या अभिमान क्या? [ ३ ]

प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते ।
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम् ॥४॥

यह ब्रह्म का लक्षित स्वरूप ही, वास्तविक ऋत ज्ञान है।
अमृत स्वरूपी ब्रह्म तो, महिमा महिम है महान है॥
जो ब्रह्म बोधक ज्ञान शक्ति, ब्रह्म से प्राप्तव्य है।
उस ज्ञान से ही ब्रह्म का ऋत ज्ञान जग ज्ञातव्य है॥ [ ४ ]

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः ।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥५॥

दुर्लभ दुसाध्य है मनुज जीवन, वेद वर्णित सत्य है।
इसी जन्म में ब्रह्मलीन हो, अमर होने का तथ्य है॥
प्राणी मात्र में, ब्रह्म को, साक्षात जब ज्ञानी करे।
अमृत्व पाकर जन्म मृत्यु, के चक्र से प्राणी तरे॥ [ ५ ]

तृतीय खंड / केनोपनिषद / मृदुल कीर्ति
ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो विजये देवा अमहीयन्त ।
त ऐक्षन्तास्माकमेवायं विजयोऽस्माकमेवायं महिमेति ॥१॥

विजयाभिमानी देवों ने माना स्वयम को ब्रह्म ही।
अतिशय अहंकारी बने, होता विनाशक अहम् ही॥
केवल निमित्त थे देवता, यह ब्रह्म की ही विजय थी।
माध्यम थे केवल देवता, शक्ति प्रभु की अजय थी॥ [ १ ]

तद्धैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति॥२॥
मिथ्याभिमानी देवताओं से, दयानिधि विज्ञ थे।
भक्त वत्सल भक्त वत्सलता से भी तो कृतज्ञ थे॥
हित दर्प नाश को, दिव्य यक्ष के रूप में प्रभु आ गए।
लख दिव्य रूप विराट अद्भुत देवता चकरा गए॥ [ २ ]

तेऽग्निमब्रुवञ्जातवेद एतद्विजानीहि किमिदं यक्षमिति तथेति ॥३॥
इन्द्र देव ने, अग्नि देव से, नम्र होकर यह कहा।
भलिभांति जानिए कौन है अति दिव्य यक्ष महिम महा॥
श्री अग्नि देव को बुद्धि शक्ति का अधिक ही कुछ गर्व था।
इति विदित करता हूँ अभी, है कौन मुझसे अन्यथा॥ [ ३ ]

तदभ्यद्रवत्तमभ्य वदत्कोऽसीत्यग्निर्वा ।
अहमस्मीत्यब्रवीज्जातवेदा वा अहमस्मीति ॥४॥

अति दिव्य यक्ष का अग्नि देव से प्रश्न था तुम कौन हो ?
हे! अहम मन्यक देवता क्या तुम ही सार्वभौम हो  ?
"मैं तेज पुंज स्वरूप हूँ", प्रसिद्ध अग्नि हूँ अति महे।
तुम कौन जो जाना नहीं, मुझे जातवेदा सब कहें॥ [ ४ ]

तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ सर्वं दहेयं यदिदं पृथिव्यामिति ॥५॥
हे जातवेदा ! अग्नि नाम के, शक्ति क्या सामर्थ्य है ?
उत्तर दिया तब अग्नि ने, सगर्व जिसका अर्थ है॥
पृथ्वी में यह जो कुछ भी है, सब मेरी ही सामर्थ्य है।
क्षण मात्र में करूं भस्म सब, मुझे कुछ नहीं असमर्थ है॥ [ ५ ]

तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति । तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक ।
दग्धुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥६॥

रखा एक तिनका दिव्य यक्ष ने अग्नि देव के सामने।
करो भस्म तो जानूँ भला, अग्नित्व कितना आपमें॥
पूर्ण दाहक शक्ति व्यर्थ थी, मौन हतप्रभ आ गए।
यह दिव्य यक्ष महामहिम, अनभिज्ञ हम चकरा गए॥ [ ६ ]

अथ वायुमब्रुवन्वायवेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति ॥७॥
तब वायुदेव से देवों ने जाकर कहा अब आप ही।
भली भांति करिए ज्ञात कि है कौन यह अतिशय मही॥
अप्रतिम शक्तिमय वायुदेव को बुद्धि शक्ति का गर्व था।
अभी दिव्य यज्ञ को ज्ञात कर मैं, दूर करता हूँ व्यथा॥ [ ७ ]

तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीति वायुर्वा ।
अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति ॥८॥

अति दिव्य यक्ष का वायु देव से प्रश्न था तुम कौन हो ?
हे! अहम् मन्यक वायु देव क्या तुम ही सार्वभौम हो ?
उत्तर दिया तब वायु ने, गुण गर्व गौरव दर्प से।
मातरिश्रिवा हूँ प्रसिद्ध वायु, सृष्टि मम संसर्ग से॥ [ ८ ]

तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ सर्वमाददीय यदिदं पृथिव्यामिति ॥९॥
भू द्यौ में वायु देव तो, आधार बिन विचरण करें।
सामर्थ्य शक्ति का आप तो, मुझसे भी कुछ विवरण करें॥
उत्तर दिया यह वायु ने, मेरी शक्ति इतनी भव्य है।
सब कुछ उड़ा दूँ निमिष में, पृथ्वी में जो दृष्टव्य है॥ [ ९ ]

तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न ।
शशाकादतुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥१०॥

रखा एक तिनका दिव्य यक्ष ने वायु देव के सामने।
इसको उड़ा दो जानूँ, कितना वायु तत्व है आपमें॥
शक्ति प्रभु ने रोकी तो फिर, वायु तत्व का अर्थ क्या ?
लज्जित हो लौटे, दिव्य यक्ष के ज्ञान की सामर्थ्य क्या ? [ १० ]

अथेन्द्रमब्रुवन्मघवन्नेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति ।
तथेति तदभ्यद्रवत्तस्मात्तिरोदधे ॥११॥

फिर इन्द्र देव से देवताओं ने कहा अब आप ही।
जानिए कि कौन है, अति दिव्य यक्ष महिम मही॥
इति तथा कथ दिव्य यक्ष के निकट इन्द्र त्वरित गए।
वह आदि ब्रह्म तो निमिष मात्र में ही तिरोहित हो गए॥ [ ११ ]

स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमाँ ।
हैमवतीं ताँहोवाच किमेतद्यक्षमिति ॥१२॥

फिर यक्ष के स्थान पर ही, इन्द्र स्थित रह गए।
उमा रूपा ब्रह्म विद्या को देख हतप्रभ रह गए॥
सर्वज्ञ ज्ञाता उमा रूपा, मर्म यक्ष का आप ही।
कुछ कहें सादर विनत हूँ, सर्वज्ञ आपसा है नहीं॥ [ १२ ]


  • चतुर्थ खंड / केनोपनिषद / मृदुल कीर्ति

  • सा ब्रह्मेति होवाच ब्रह्मणो वा एतद्विजये ।
    महीयध्वमिति ततो हैव विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥१॥

    उस उमा रुपी ब्रह्म शक्ति ने इन्द्र को उत्तर दिया,
    परब्रह्म ने ही स्वयं यक्ष का रूप था धारण किया।
    सुर असुर युद्ध में विजय का अभिमान देवों ने किया,
    इस मान मर्दन को ही ब्रह्म ने रूप यक्ष का था लिया॥ [ १ ]

    तस्माद्वा एते देवा अतितरामिवान्यान्देवान्यदग्निर्वायुरिन्द्रस्ते ।
    ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्शुस्ते ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥२॥

    परब्रह्म का स्पर्श दर्शन इन्द्र अग्नि वायु ने,
    कर प्रथम जाना ब्रह्म को, लगे ब्रह्म को पहचानने।
    ये श्रेष्ठ अतिशय देवता, विश्वानि विश्व प्रणम्य है,
    इनके ह्रदय में ब्रह्म तत्व का मर्म अनुभव गम्य है॥ [ २ ]

    तस्माद्वा इन्द्रोऽतितरामिवान्यान्देवान्स ह्येनन्नेदिष्ठं ।
    पस्पर्श स ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥३॥

    साक्षात परब्रह्म नित्य अज, यह सच्चिदानंद प्रभो,
    अनुपम अगोचर भक्त वत्सल, भव विमोचन है विभो।
    इस तथ्य को अति प्रथम इन्द्र ने ज्ञात मन द्वारा किया,
    इन अन्य देवों की अपेक्षा श्रेष्ठता का पद लिया॥ [ ३ ]

    तस्यैष आदेशो यदेतद्विद्युतो व्यद्युतदाइतीन् ।
    न्यमीमिषवदा इत्यधिदैवतम् ॥४॥

    जब हृदय में उत्कट पिपासा ब्रह्म , के साक्षात को,
    जागृत हो तब सर्वज्ञ देता, क्षणिक दर्शन भक्त को।
    उपदेश दिव्य है आधिदैविक मर्म जाने भक्त ही,
    जब इष्ट के साक्षात बिन , मन व्यथित व्याकुल हर कहीं॥ [ ४ ]

    अथाध्यात्मं यद्देतद्गच्छतीव च मनोऽनेन ।
    चैतदुपस्मरत्यभीक्ष्णँ सङ्कल्पः ॥५॥

    ये जो मन हमारा ब्रह्म के अति निकट होता प्रतीत हो,
    साकार हो कि निराकार हो पर प्रभो में प्रतीति हो।
    फिर इष्ट में अतिशय निमग्न हो, प्रेम में व्याकुल रहे,
    साक्षात करने की अभीप्सा में ही मन आकुल रहे॥ [ ५ ]

    तद्ध तद्वनं नाम तद्वनमित्युपासितव्यं स य ।
    एतदेवं वेदाभि हैनँ सर्वाणि भूतानि संवाञ्छन्ति ॥६॥

    सब प्राणियों को विश्व में , प्रिय परम प्रभु परमेश है,
    उसका निरंतन नित्य चिंतन, भक्त का उद्देश्य है।
    जो भक्त ईशमय हो सके, आनंदमय होता वही,
    आत्मीय बन कर विश्व का, सम्मान पाता हर कहीं॥ [ ६ ]

    उपनिषदं भो ब्रूहीत्युक्ता त उपनिषद्ब्राह्मीं वाव त उपनिषदमब्रूमेति ॥७॥
    गुरुदेव कृपया मर्म ब्रह्मा का यथोचित कीजिये,
    हमें जो भी सम्भव हो बताना, व्यक्त सब कर दीजिये।
    वत्स तुमको ब्रह्म विद्या का मर्म व्यक्त किया सभी,
    श्रोतस्य श्रोतम ब्रह्म का अथ मर्म हम कहते सभी॥ [ ७ ]

    तसै तपो दमः कर्मेति प्रतिष्ठा वेदाः सर्वाङ्गानि सत्यमायतनम् ॥८॥
    जो लक्ष्य ब्रह्म को मानकर, निष्काम तप, दम, भाव से,
    करें वेद धर्म का आचरण, यदि अमिय सिक्त स्वभाव से।
    सर्वस्य परब्रह्म ब्रह्मविद्या, प्राप्त कर सकते वही,
    वही सर्वथैव असाध्य ब्रह्म को, साध्य कर सकते मही॥ [ ८ ]

    यो वा एतामेवं वेदापहत्य पाप्मानमनन्ते ।
    स्वर्गे लोके ज्येये प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति ॥९॥

    उपनिषद रूपा ब्रह्मविद्या, आत्म तत्त्व जो जानते,
    करें कर्म चक्र का निर्दलन, गंतव्य को पहचानते।
    आवागमन के चक्र में, पुनरपि कभी बंधते नहीं,
    अरिहंत, पाप व पुण्य के, दुर्विन्ध्य गिरि रचते नहीं॥ [ ९ ]
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    1 टिप्पणी:

    Divya Narmada ने कहा…

    केनोपनिषद

    http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6_/_%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF