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मंगलवार, 8 मार्च 2011

दोहा सलिला: रख तन-मन निष्पाप संजीव 'सलिल'


दोहा सलिला:                                                                                         

रख तन-मन निष्पाप

संजीव 'सलिल'
*
प्रकृति-पुरुष का सनातन, स्नेह-गेह व्यापार.
निराकार साकार कर, बनता सृजनागार..

शांत पवन जाता मचल, तो आता तूफ़ान
देख असंयम भू डिगे, नभ का फटे वितान..

कांति लास्य रमणीयता, ओज शौर्य तारुण्य.
सेतु सृजन का हो सहज, प्रीति-रीति आरुण्य..

सद्यस्नाता उषा के, लाल हुए जब गाल.
झलक न ले रवि देख, यह सोच छिपी जा ताल..
                                             
ताका-झाँकी से हुई रुष्ट, दे दिया शाप.
रहे दहकता दिवस भर, सहे काम का ताप..

पश्चातापित विनत रवि, हुआ निराभित पीत.                           
संध्या-वंदन कर हुआ, शाप-मुक्त अविजीत..                    

निज आँचल में छिपाकर, माँ रजनी खामोश,
बेटे सूरज से कहे: 'सम्हल न खोना होश'..

सुता चाँदनी पर गया, जनक चंद्र जब रीझ.
पाण्डु रोग पीड़ित हुआ, रजनी रोई खीझ..

दाह हृदय की बदरिया, नयन-अश्रु बरसात.                   
आह दामिनी ने किया, वसुधा पर आघात.                               

सुता चाँदनी पर गया, जनक चंद्र जब रीझ.
पाण्डु रोग पीड़ित हुआ, रजनी रोई खीझ..

दाह हृदय की बदरिया, नयन-अश्रु बरसात.                   
आह दामिनी ने किया, वसुधा पर आघात..

दुर्गा-काली सम हुईं पूनम-मावस एक.
दुबक छिपे रवि-चन्द्रमा, जाग्रत हुआ विवेक..

विधि-हरि-हर स्तब्ध हो, हुए आत्म में लीन.                                                                          
जलना-गलना दंड पा, रवि-शशि हुए महीन..

शिव रहित शिव शव हुए, शक्ति-भक्ति-अनुरक्ति.
कंकर को शंकर करें, उमा कौन सी युक्ति?                                      

श्री बिन श्रीपति भी हुए, दीन-हीन चित-लीन.
क्षम्य-रम्य अनुगम्य पा, श्री ने किया अदीन..

थाप ताल अनुनाद तज, वाक् हुईं जब मौन.
नीरव में रव को प्रगट, कैसे करता कौन??

सुधा-क्षमा का दान हो, वसुधा ने दी सीख.
अनहोनी से सबल हो, शक्ति न अबला दीख..

दिया हौसला पवन ने, 'रुक न किये चल काम'.
नीलगगन बोला:'सदा काम करें निष्काम'..


सृजन शक्ति संपन्न है, नारी बिन जड़ सृष्टि.
एक दिवस जो मनाते, उनकी सीमित दृष्टि..

स्वामिनि बिन गृह गृह नहीं, होता सिर्फ मकान.
श्वास-आस-विश्वास बिन, जग-जीवन वीरान..

पाप-शाप-संताप हर, कलकल नवल निनाद.
भू-सागर-नभ से करे, 'सलिल' सतत संवाद..

रवि-शशि करें परिक्रमा, बिना रुके चुपचाप.
वसुधा को उजियारते, रख तन-मन निष्पाप..

गृहपति गृहणी की करें, मान वन्दना नित्य.
तभी सफल हो साधना, मिलती कीर्ति अनित्य..

*******************
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

4 टिप्‍पणियां:

कमल ने कहा…

sn Sharma ✆
ekavita

विवरण दिखाएँ ९:१६ अपराह्न



"सृजन-शक्ति संपन्न है, नारी बिन जड़ स्रष्टि
एक दिवस जो मनाते, उनकी सीमित दृष्टि "
वाह सलिल जी क्या खूब कहा | आज विश्व नारी-दिवस भी है शायद |
कमल

kusum sinha ekavita ने कहा…

priy sanjiv ji

bahut sundar dohe
bahut sundar bhav aur shabdon ka prayog bhi

badhai' bahut bahut badhai

kusum

कमल ने कहा…

sn Sharma ✆
ekavita

विवरण दिखाएँ १२:१० अपराह्न (3 घंटों पहले)



आ० आचार्य जी,

मुझे इस दोहे की कथा ज्ञात नहीं -

" सुता चांदनी पर गया जनक चन्द्र जब रीझ
पान्डु रोग पीड़ित हुआ,रजनी रोई खीज"

कृपया जिज्ञांसा का समाधान करें आभारी रहूँगा|

सादर,
कमल

Divya Narmada ने कहा…

प्रस्तुत आख्यान काल्पनिक है. आदि प्रकृति तथा आदि पुरुष के सम्मिलन से सृष्टि निर्माण, दोनों में पारस्परिक आकर्षण, समाज द्वारा नियमन के प्रयास, प्रयासों का उल्लंघन, असंयम से दंड, प्रायश्चित्य तथा अंतत सृजन-शक्ति के दो पहलुओं प्रकृति एवं पुरुष के तालमेल के मूल तत्वों को लेकर एक दोहा आख्यान की रचना हुई है. इसमें सूर्य, चन्द्र, धरती, रजनी आदि के सम्बन्ध तथा उनकी प्रवृत्तियाँ भी प्रचलित से भिन्न हैं.

सुता सरस्वती पर ब्रम्हा के रीझने का प्रसंग 'या ब्रम्हाच्युत शंकर...' सर्व श्रुत है ही.