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शुक्रवार, 25 मार्च 2011

मुंडकोपनिषद: काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति

मुंडकोपनिषद:
काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति  
ॐ श्री परमात्मने नमः

मुंडकोपनिषद
शान्ति पाठ
हे देव गण !कल्याण मय हम वचन कानों से सुनें,
कल्याण ही नेत्रों से देखें, सुदृढ़ अंग बली बनें।
आराधना स्तुति प्रभो की हम सदा करते रहें,
मम आयु देवों के काम आए, हम नमन करते रहें।
हे इन्द्र !मम कल्याण को , कल्याण का पोषण करें,
हे विश्व वेदाः पूषा श्रीमय ज्ञान संवर्धन करें।
हे बृहस्पति ! अरिष्ट नेमिः स्वस्ति कारक आप हैं,
सब त्रिविध ताप हों शांत जग के, देते जो संताप हैं।
 



 
रक्षक रचयिता जगत का अति आदि ब्रह्मा अति महे,
ब्रह्मा स्वयं भू देवताओं में प्रथम अति दिव्य हे !
स्व ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को, ब्रह्मा ने उपदिष्ट की,
शुचिमूल भूता ब्रह्म विद्या, ब्रह्मा ने निर्दिष्ट की॥ [ १ ]


श्री ब्रह्मा ने जिस ब्रह्म विद्या को अथर्वा से कहा,
उसे अंगी ऋषि से अथर्वा ने पूर्व उससे भी कहा।
उन अंगी ऋषि ने भारद्वाजी सत्य वह ऋषि को कहा,
पूर्ववत अथ पूर्ववत अथ पूर्ववत का क्रम रहा॥ [ २ ]


विख्यात कि शौनक मुनि, ऋषि कुल अधिष्ठाता जो थे,
ऋषि अंगीरा के पास आए , प्राण कुछ मन को मथे।
अति विनत हो पूछा कि भगवन , तत्व कौन सा है महे?
जिसे जान कर हो विज्ञ सब कुछ, तत्व वह कृपया कहें॥ [ ३ ]


अथ ब्रह्म ज्ञाता दृढ़ता से, निश्चय से कहते सार हैं,
ये परा अपरा दो ही विद्याएँ हैं ज्ञान अपार है।
मानव को ये ही ज्ञान दो, जो श्रेय और ज्ञातव्य हैं,
,शौनक मुनि से अंगिरा ऋषि ने कहा श्रोतव्य हैं॥ [ ४ ]


उन दोनों में से साम यजुः ऋग अथर्व अपरा वेद हैं,
छंद , ज्योतिष, व्याकरण, व् निरुक्त वेद के भेद हैं।
वह परा विद्या वेद की, जिससे कि ब्रह्म का ज्ञान हो,
वेदांगों वेदों के ज्ञान से , मानव महिम हो महान हो॥ [ ५ ]


ज्ञान इन्द्रिय, कर्म इन्द्रिय, आकृति विहीन जो नित्य है,
अनुपम अग्रहायम विभु अगोत्रम है अदृश्य अचिन्त्य है।
प्रभु सर्वव्यापी सूक्ष्म अतिशय ब्रह्म अविनाशी महे,
सब प्राणियों के परम कारण, पूर्ण प्रभु ज्ञानी कहे॥ [ ६ ]


ज्यों मकडी जले को बनाती और स्वयं ही निगलती ,
ज्यों विविध औषधियों धरा से , पुष्टि पाकर निकलतीं।
ज्यों प्राणियों के देह से रोयें व् कच उत्पन्न हो,
त्यों ब्रह्म निष्कामी से सृष्टि में ही सब निष्पन्न हो॥ [ ७ ]


संकल्प तप से सृष्टि काले, ब्रह्म सृष्टि को रचे,
फ़िर सूक्ष्म से स्थूल अथ सृष्टि की सरंचना रुचे।
अथ अन्न से उत्पन्न प्राण हो, प्राण से मन सत्य भी,
फ़िर लोक कर्म व् कर्म फल सुख दुःख रूप के कृत्य भी॥ [ ८ ]


इस सकल सृष्टि के आदि कारण, ब्रह्म तो सर्वज्ञ हैं,
सर्व ज्ञाता विश्व पोषक, ब्रह्म को सब विज्ञ है।
पर ब्रह्म का तप ज्ञान मय , जिससे वह रचता सृष्टि है,
सब नाम रूप व् अन्न जग के, विराट की एक दृष्टि है॥ [ ९ ]

प्रथम मुण्डक / द्वितीय खण्ड / मुण्डकोपनिषद / मृदुल कीर्ति
वेदों के मंत्रो में था देखा, ऋषियों ने जिन कर्मों को,
ऋग, साम, यजुः, में, व्याप्त जो, जीवन के सात्विक धर्मों को।
इन नियमों का हे सत्य प्रिय ! तुम आचरण नियमित करो।
शुभ कर्म फल का मार्ग यह, जग की विषमता से तरो॥ [ १ ]


जब प्रज्ज्वलित होवे हविष्या, अग्नि की ज्वाला अति,
तब ही डालें प्रज्ज्वलित अग्नि के मध्य में आहुति।
भाज्य भाग की दोनों आहुतियों का स्थल छोड़कर,
मध्य अग्नि प्रचंड हो,तुब डालें आहुति ॐ कर॥ [ २ ]


जो चातुर्यमासव् पूर्ण मासी, अमावस्या की दृष्टि से।
ऋतु बसंत शरद के नूतन अन्न आहुति दृष्टि से।
हैं रहित यज्ञ व् अतिथि आदर भी न जिनको प्रेय है।
उस अग्नि होत्री के पुण्य क्षीण न यज्ञ वृति भी श्रेय है॥ [ ३ ]


काली कराली अग्नि चंचल, उग्र अति सुलोहिता,
चिंगारी मय सुध्रूम वर्णा, दीप्तिमय मन मोहिता।
ये विश्व रूचि स्फुलिंग्नी, जिव्हाएं अग्नि की सप्त हैं
ग्राह्य आहुति जबकि अग्नि, लपलपाती तप्त हैं॥ [ ४ ]


जो अग्निहोत्री कोई भी, इन दीप्तिमय ज्वालाओं में,
करे अग्निहोत्र को यथाकाले, शास्त्र विधि की विधाओं में।
उसकी ही आहुतियाँ रवि की रश्मियों के रूप में,
हैं मरण काले साथ जातीं, देव लोक अनूप में॥ [ ५ ]


ऋत अग्निहोत्री की मरण काले, दी हुई आहुति सभी,
शुभ स्वस्तिमय साधक को बन, साधन भी बन जातीं तभी।
रवि रश्मियों के मार्ग से, जा ब्रह्म को वे पा सकें,
शुभ पुण्य कर्मों से ब्रह्म लोक की वाणी को अपना सकें॥ [ ६ ]


शुभ साधना से हीन यज्ञ व् कर्म जो भी सकाम हैं,
वे हीन श्रेणी के कर्म मूढ़ को, लगते फ़िर भी प्रधान हैं।
इनको परम सुख श्रेय प्रेय व मुक्ति का मग मानते,
पुनि -पुनि वे ही मृत्यु ज़रा को भोगते व् जानते॥ [ ७ ]


मिथ्याभिमानी मूढ़, ज्ञानी, स्वयं को जो मानते,
अतिमूढ़ अज्ञानी, नहीं वे ब्रह्म को हैं जानते।
ज्यों अंधे को अंधा दिखाये, मार्ग पर मिलता नहीं,
त्यों मूढ़ पुनि- पुनि जन्मता, मरता है पर तरता नहीं॥ [ ८ ]


जो भी अविद्या मग्न हैं,वे सब सकामी मूढ़ हैं,
कल्याण पथ से अबोध हैं वे, तत्व ब्रह्म के गूढ़ हैं।
जो भोगों में आसक्त वे क्या जानें परमानन्द को,
पुनि क्षीण होते पुण्य तब, आतुर हों ब्रह्मानंद को॥ [ ९ ]


अज्ञानी अति जो सकाम कर्मों को, श्रेष्ठ माने, श्रेय को।
नहीं जानते व् निमग्न हैं, पाने को भोग को प्रेय को।
जब पुण्य उनके क्षीण हों, तो लेते पुनि- पुनि जन्म हैं,
वे जन्म लेते मनुज लोके या मनुज से भी निम्नं हैं॥ [ १० ]


कोई ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, गृहस्थ्य या संन्यासी हो,
यदि तम, रजोगुण हीन हों, रवि लोक के वे वासी हों।
जहाँ जन्म मृत्यु विहीन शाश्वत, नित्य अविनाशी रहे,
विभु पूर्ण पुरुषोत्तम जनार्दन, सत्य अति अद्भुत महे॥ [ ११ ]


नहीं ब्रह्म मिलता कदापि उसको, कर्म जिसके सकाम हों
स्पष्ट नित्य अनित्य जिसको, वृति भी निष्काम हो।
जिज्ञासु वे जन, हाथ में समिधा को लेकर विनत हों,
जाएँ गुरु के पास, वेदों का मर्म जानें, प्रणत हों॥ [ १२ ]


मन बुद्धि, इन्द्रियों पर नियंत्रण, शांत जिसका चित्त हो,
यम् शम दम आदि युक्त हो, जग से विरागी वृति हो।
एसे ही शरणागत विवेकी, शिष्य को गुरु ज्ञान का
जब तत्व विधिवत ऋत कहे, तब नाश हो अज्ञान-का॥ [ १३ ]

द्वितीय मुण्डक / प्रथम खण्ड / मुण्डकोपनिषद / मृदुल कीर्ति
ज्यों प्रज्ज्वलित अग्नि से निःसृत, सैकडों चिंगारियां,
सम रूप की उद्भूत हों, व् विलीन हो जाएँ वहाँ।
त्यों शिष्य प्रिय यह सृष्टि भी, अविनाशी से उद्भूत है,
और उसी में विलीन होकर, रूप इनके प्रभूत हैं॥ [ १ ]


वह पूर्ण पुरुषोत्तम अजन्मा, दिव्य अनुपम पूर्ण है,
है प्राण मन से विहीन विभु, अमूर्त है, सम्पूर्ण है।
आकार हीन विशुद्ध व्यापक, सकल सृष्टि में व्याप्त है।
संसार में सब कुछ यहॉं, उसकी कृपा से ही प्राप्त है॥ [ २ ]


मन, प्राण, इन्द्रिय, अग्नि, जल,भू, वायु, नभ संसार को,
सब प्राणियों के रचयिता, वंदन है रचनाकार को।
मन प्राण हीन तथापि सब कुछ कर सके वह समर्थ है,
उस आत्मभू अखिलेश के, अद्भुत महिम सामर्थ्य है॥ [ ३ ]


उस ब्रह्म का द्यु लोक मस्तक, चंद्रमा रवि नेत्र हैं,
वाणी ही विस्तृत वेड और चारों दिशाएं श्रोत्र हैं।
यह चराचर जग ह्रदय और वायु प्राण अचिन्त्य की,
हैं पग धरा, सब प्राणियों में आत्मा आद्यंत की॥ [ ४ ]


है अग्नि तत्व प्रगट विभो से, जिसकी समिधा सूर्य है,
मेघ सोम से, मेघों से औषधियां मिलती अपूर्व हैं।
सेवन से करता पुरूष वीर्य का, नारी में संचार है,
ऐसे चराचर जग के मूल में, ब्रह्म तत्व प्रसार है॥ [ ५ ]


ऋग, साम, यजुः के मन्त्र श्रुतियों, दक्षिनाएँ दीक्षा भी,
शुचि यज्ञ, ऋतु, यजमान लोका काल संवत्सर सभी।
वे लोक सब जहॉं सूर्य शशि, करते प्रकाशित तेज हैं,
अणु-कण से ले ब्रह्माण्ड तक, सब ब्रह्म के ही ओज हैं॥ [ ६ ]


परब्रह्म से ही विविध देव व् साध्य गण निष्पन्न हैं,
पशु, पक्षी, प्राण, अपान वायु व् अन्न जौ उत्पन्न हैं।
तप श्रद्धा सत्यम, यज्ञ विधि व् ब्रह्मचर्य, विधान भी,
मानव, जगत, ब्रह्माण्ड के, अणु कण चराचर प्राण भी॥ [ ७ ]


यह सप्त समिधाएं विषय रूपी व् सातों अग्नियाँ,
सात भाँति के होम, लोक व् प्राण सातों इन्द्रियाँ।
समुदाय सप्त के हृदय रूपी गुफा में जब सोते हैं,
इन सभी के मूल में परमेश तत्व ही होते हैं॥ [ ८ ]


बहु रूप नदियाँ जलधि बहते, और गिरि अतिशय महे,
सम्पूर्ण औषधियां व् रस, उत्पन्न प्रभु अद्भुत से हे !
जिस रस से पुष्ट, शरीरों में, उन प्राणियों की आत्मा,
बन उनके हृदयों में बसे, अन्तर्निहित परमात्मा॥ [ ९ ]


अति परम अमृत रूप ब्रह्म व् कर्म तप संसार के,
विश्वानि पुरषोत्तम के ही, सब रूप करुनाधार के।
हृदय रूपी गुफा स्थित ब्रह्म को, शौनक प्रिय जो जान ले,
अज्ञान- ग्रंथि को खोल वह, प्रभुवर की सत्ता मान लें॥ [ १० ]

द्वितीय मुण्डक / द्वितीय खण्ड / मुण्डकोपनिषद / मृदुल कीर्ति

प्रभु हृदय रूप गुफा में स्थित, सो गुहाचर नाम है,
ज्योतिर्स्वरूप समीप अति, अति परम पद है महान है।
सब प्राणधारी हैं प्रतिष्ठित, उस ब्रह्म में संसार के,
वरणीय अतिशय श्रेष्ठ शुचि, अज्ञेय करुनागार के॥ [ १ ]


सूक्ष्मातिसूक्ष्म जो दीप्ति मय, अविनाशी ब्रह्म महान है,
सब लोक और सब लोकवासी, ब्रह्म मय हैं प्रधान हैं।
वही ब्रह्म प्राण हैं, ब्रह्म वाणी, सत्य मन अमृत वही,
हे सौम्य !वेधन योग्य लक्ष्य में, लीन हो न भटक कहीं॥ [ २ ]


ज्यों लक्ष्य भेदन से प्रथम ,वाणों को करते तीक्ष्ण हैं,
त्यों आत्मा रूपी वाण पूजा से तीक्ष्ण हो यदि क्षीण हैं।
आराधना से तीक्ष्ण शर, धनु पर चढाये भक्ति से,
हे सौम्य खींचो लक्ष्य बेधो, ॐ भाव की चिट्टी से॥ [ ३ ]


ओंकार धनु जीवात्मा शर, ब्रह्म उसका लक्ष्य है,
ओंकार में हों प्राण लय, नहीं ब्रह्म का समकक्ष है।
बस अप्रमादी मनुज से ही बींधा जाने योग्य है,
उसे बींध कर तन्मय हो जो, वही लक्ष्य पाने योग्य है॥ [ ४ ]


यह स्वर्ग, भू, द्यौ , प्राणि, मन, अंतःकरण सब जगत के,
विश्वानि विशेश्वर मयीसे ओत प्रोत हैं महत के।
उसी एक सबके आत्म रूप, प्रभो को तुम सब जान लो,
शेष त्याग दो, ब्रह्म को ही, अमिय सेतु मान लो॥ [ ५ ]


नाभि में रथ की अरों सम, स्थित ह्रदय में नाडियाँ,
एकत्र स्थित हैं हृदय में, वास प्रभु करते वहाँ।
एक ॐ नाम के सतत चिंतन, से ही प्रभुवर साध्य है,
अज्ञान-तम से अतीव हो, तो सिन्धु भव निर्बाध है॥ [ ६ ]


प्रभु सर्व जित सर्वज्ञ, जिसकी विश्व में महिमा मही,
प्राणों का अधिनायक रुचिर, नभ रूप, नभ स्थित वही।
वही अन्नमय स्थूल तन में, प्राणियों के है यही,
जिसे ज्ञानियों ने ज्ञान से, प्रत्यक्ष कर महिमा कही॥ [ ७ ]


परब्रह्म परमेश्वर परात्पर, कार्य कारण रूप को
जो तत्व से जाने, तब ही जाने, अचिन्त्य अरूप को,
जीवात्मा की हृदय की गांठे, अविद्या की खुलें,
अथ कर्मों के बंधन कटें, जीवात्मा प्रभु से मिले॥ [ ८ ]


परब्रह्म अधिकारी विमल जो सर्वथा ही विशुद्ध है,
अवयव रहित है, अचिन्त्य, अद्भुत, जानता जो प्रबुद्ध है,
सब ज्योतियों की ज्योति, जिसको आत्म ज्ञानी जानते,
अति दिव्य ज्योति का मूल कोष, तो ब्रह्म को ही मानते॥ [ ९ ]


न तो रवि न ही चंद्र तारा और न ही बिजलियाँ,
उस स्व प्रकाशित ब्रह्म के तो समीप न ही अग्नियाँ।
होती प्रकाशित, ब्रह्म तो सब ज्योतियों का मूल है,
उससे प्रकाशित जग चराचर, सूक्ष्म है स्थूल है॥ [ १० ]


वह दाएँ, बाएँ, आगे, पीछे, उर्ध्व नीचे चहुँ दिशा,
में व्याप्त व्यापकता परम की, व्याप्त ब्रह्म है एक सा।
बहु सर्व व्यापकता प्रभो की, एक सी अणु-कण में है,
वह विश्व में ब्रह्माण्ड में, परब्रह्म तो हर क्षण में है॥ [ ११ ]

तृतीय मुण्डक / प्रथम खण्ड / मुण्डकोपनिषद / मृदुल कीर्ति

मानव शरीर को मानो जैसे, एक वृक्ष का रूप है,
जहाँ जीव ईश्वर ह्रदय नीड़ में, रहते मित्र स्वरुप हैं।
जीवात्मा खग कर्म फल के राग द्वेष से युक्त है,
परमात्मा निष्काम वृति से देखता व् मुक्त है॥ [ १ ]


जीवात्मा मोहित निमग्न है, और अति आसक्त है,
बहु शोक तापों से ग्रसित, फ़िर भी नहीं वह विरक्त है।
जो नित्य प्रिय शुचि अति सुह्रद भक्तों से सेवित ईश को,
प्रत्यक्ष जीवात्मा करे, तब पाये निश्चय ईश को॥ [ २ ]


जब ब्रह्म के भी आदि कारण, पूर्ण पुरुषोत्तम प्रभो,
जो जग रचयिता सबके शासक, आत्मभू अद्भुत विभो।
का दिव्या दर्शन, सौम्य दर्शन कर सके जीवात्मा,
हों शेष उसके पुण्य पाप व् पाये वह जीवात्मा॥ [ ३ ]


यह सर्व व्यापी ब्रह्म सबके प्राण हैं इस तथ्य को,
जो जानते मितभाषी वे, करते न व्यर्थ के कथ्य को।
इश्वर में ही प्रति पल रमण, जिसे ईशमय संसार है,
भक्त ऐसा ब्रह्म वेत्ताओं में, श्रेष्ठ अपार है॥ [ ४ ]


परब्रह्म अंतःकरण स्थित, शुचि शुभ्र ज्योतिर्मय प्रभो,
मित सत्य भाषण, ब्रह्मचर्य, व् ज्ञान तप से ही विभो।
है प्राप्त केवाल्तत्व सम्यक, ज्ञान से निर्दोष को,
बहु यत्न शील ही पा सकेंगे, सत्य ब्रह्म विशेष को॥ [ ५ ]


जय जयति शाश्वत सत्य की, होती असत्य की जय कहाँ,
यही देवपथ है सत्यमय, ऋषि पूर्ण काम गमन जहाँ।
कहते वहां सत्यस्वरूपी, ब्रह्म रहते हैं सदा।
वे सत्य मय पथ ब्रह्म तक होते प्रशस्त हैं सर्वदा॥ [ ६ ]


अन्वेषियों की ह्रदय रूप गुफा में ब्रह्म का वास है,
वह दूर से भी दूर है, अत्यन्त अतिशय पास है।
सूक्ष्म से अति सूक्ष्म रूप में, ब्रह्म दिव्य महान हैं,
आद्यंत हीन अचिन्त्य अद्भुत बृहत ब्रह्म विधान हैं॥ [ ७ ]


न तो नेत्रों से न ही वाणी से, न ही इन्द्रियों से ग्राह्य है,
तप साधना कर्मों के भी बहु बंधनों से बाह्य है।
अवयव रहित उस ब्रह्म को तो, शुद्ध अंतःकरण से,
ही पाये साधक विमल ज्ञान की शुद्ध शुद्धि करण से॥ [ ८ ]


जिसके शरीर में पाँच भेदों वाला प्राण प्रविष्ट है,
उस हृदय मध्ये सूक्ष्म जीवात्मा वही है, विशिष्ट है।
यदि हो विरत भोगादि से, निश्चय ही पायें शचीपते,
आसक्त वे जो पा सकेंगे, भोग इच्छित मन मते॥ [ ९ ]


अति शुद्ध अन्तः करण वाला व्यक्ति जिस-जिस लोक का,
चिंतन करे एकाग्र मन तो भागी हो उस भोग का।
आत्मज्ञ स्व बहुजन हिताय, कर्म करते हैं प्रिये,
अति पूज्य हों ज्ञानी उन्हें, ऐश्वर्य जिनको चाहिए॥ [ १० ]

 तृतीय मुण्डक / द्वितीय खण्ड / मुण्डकोपनिषद / मृदुल कीर्ति
शुचि परम शुभ्रं ब्रह्म धाम को जानते निष्कामी ही,
सन्निहित है ब्रह्माण्ड जिसमें, है वही अविरामी ही।
निष्कामी साधक, परम की, जो करते हैं ऋत साधना,
रज वीर्य मय जन्मं मरण की शेष उसकी यातना॥ [ १ ]


वहॉं जन्म होता है सकामी का, जहॉं वह चाहता ,
महा पूर्ण काम जो हो चुका, उसे कोई कर्म न थामता।
जब कामनाएं सकल उसकी सर्वथा ही विलीन हों ,
तब त्यक्तेन का भावः मुख्य हो, ब्रह्म मैं लवलीन हो॥ [ २ ]


मिलता प्रभो नहीं बुद्धि प्रवचन, तर्क श्रुति न विवाद से
वह तो मिले केवल उसी की, ऋत कृपा के प्रसाद से।
स्वीकार जिसको स्वयं करते, स्वयं उसको ही प्रभो,
अपना यथार्थ स्वरुप दिखलाते , प्रकट होते विभो॥ [ ३ ]


कर्तव्य त्यागी और प्रमादी, साधना बलहीन को,
शुचि सात्विक लक्षण रहित, साधक व् ध्यान विहीन को।
नहीं ब्रह्म है प्राप्तव्य, वह तो मात्र पावन भक्त को,
प्राप्तव्य अभिलाषी जो उत्कट, और ऋत आसक्त को॥ [ ४ ]


वे जिनके अंतःकरण शुद्ध हों, रागहीन हों सर्वथा
ऐसे महर्षि गण ही ब्रह्म को, प्राप्त हो जाते यथा।
ऋत ज्ञान से वे तृप्त शांत व्, ब्रह्म से संयुक्त हैं,
पूर्णतः वे प्रविष्ट ब्रह्म में, ब्रह्म हेतु नियुक्त हैं॥ [ ५ ]


वेदांत ज्ञान से ब्रह्म को जो, पूर्ण रूप से जानते,
वे कर्म फल आसक्ति त्याग के, मार्ग को पहचानते।
हैं शुद्ध अंतःकरण जिनके, मरण काले वे सभी,
ब्रह्म लोक में अमर होकर जन्म न लेते कभी॥ [ ६ ]


पन्द्रह कलाएं और सारे देवता व् इन्द्रियाँ,
सब ही अपने देवताओं में, प्रतिष्ठित हों वहाँ ।
उन्मुक्त वही जीवात्मा, सब कर्म बंधन से परे,
वही ब्रह्म अविनाशी में लीन हो, जटिल भव सागर तरे॥ [ ७ ]


स्व नाम रूप को त्याग जैसे जलधि में नदियाँ मिलें,
अथ यथा ज्ञानी नाम रूप से, रहित हो प्रभु से मिलें।
वे शुद्ध परात्पर दिव्य होकर, ब्रह्म में तल्लीन हों,
फ़िर ब्रह्म मय ब्रह्मत्व ब्रह्म के अंश में लवलीन हों॥ [ ८ ]


यह तो नितांत ही सत्य है की जो भी ब्रह्म को जानता,
है निश्चय ही वह ब्रह्म, उसका कुल भी ब्रह्म को जानता।
वह शोक, चिंता, पाप भय, संशय, विषय, अभिमान से,
संशय विपर्यय हीन, मुक्त हो जन्म मृत्यु विधान से॥ [ ९ ]


हैं ब्रह्म विद्या के वही अधिकारी, जो जिज्ञासु हैं।
जो वर्ण आश्रम, धर्म पालक, ब्रह्म तत्व पिपासु हैं।
निष्कामी वे जो दक्ष, जिनकी ब्रह्म निष्ठा लक्ष्य है,
शुभ यज्ञ करता जिनको न कुछ, ब्रह्म के समकक्ष है॥ [ १० ]


व्रत ब्रह्म चर्य के उचित पालन में, नहीं जो समर्थ हैं,
उसे ब्रह्म विद्या, तत्व ज्ञान का, ज्ञात न कुछ अर्थ है,
ऋषि अंगिरा ने सत्य शौनक से कहा, शुभ वचन है,
शुचि परम ऋषियों को नमन, पुनि नमन है, पुनि नमन है॥ [ ११ ]

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Divya Narmada ने कहा…

मुण्डकोपनिषद

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