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शुक्रवार, 25 मार्च 2011

ऐतरेय उपनिषद- काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति

 
ऐतरेय उपनिषद- काव्यानुवाद   : मृदुल कीर्ति  
ॐ श्री परमात्मने नमः

शांति पाठ

हे सच्चिदानंद प्रभो ! मन वचन मेरे विशुद्ध हों,
शुचि वेद विषयक ज्ञान से, मन वाणी मेरे प्रबुद्ध हों।
दिन रात वेदों का अध्ययन , वाणी में ऋत सैट अमिय हो,
रक्षित हों श्री आचार्य मम , हे ब्रह्म हम सब अभय हों॥

प्रथम अध्याय
 
 
ब्रह्माण्ड के अस्तित्व पूर्व तो एक मात्र ही ब्रह्म था,
पर ब्रह्म प्रभु के अन्यथा, कोई चेष्टा रत न गम्य था।
तब सृष्टि रचना का, आदि सृष्टि में, ब्रह्म ने निश्चय किया ,
अथ इस विचार के साथ ही, कर्म फल निर्णय किया॥ [ १ ]


द्यु-मृत्यु लोक व् अन्तरिक्ष व् लोक भूतल के सभी,
महः जनः तपः ऋत लोक अम्भः सूर्य चंद्र मरीचि भी ,
लोक त्रिलोकी चतुर्दश, लोक सातों, गरिमा की,
रचनाएं सब परमेश की और महत उसकी महिमा की॥ [ २ ]


सब लोकों की रचना अनंतर, ब्रह्म ने चिंतन किया,
लोक पालों की सर्जना व् महत्त्व का भी मन किया.
अतः ब्रह्म ने स्वयम जल से ब्रह्मा की उत्पत्ति की ,
अथ हिरण्यगर्भा रूप ब्रह्मा मूर्तिमान की कृति की॥ [ ३ ]


संकल्प तप से अंडे के सम, हिरण्यगर्भ शरीर से,
प्रथम मुख फ़िर वाक् अग्नि, नासिका से समीर से।
अथ क्रमिक रोम, त्वचा, हृदय, मन, चन्द्रमा, श्रुति व् दिशा,
नाभि अपान व् वीर्य, मृत्यु, क्रमिक सृष्टि की है दशा॥ [ ४ ]

प्रथम अध्याय / द्वितीय खंड / ऐतरेयोपनिषद / मृदुल कीर्ति
सृष्टा सृजित सब देवता, जब जग जलधि में आ गए,
उन्हें भूख प्यास से युक्त ब्रह्म ने, जब किया अकुला गए.
तब देवताओं ने कहा, मम हेतु प्रभु स्थान दो,
स्थित हों जिस पर, अन्न भक्षण कर सकें, वह विधान दो॥ [ १ ]


गौ गात लाये ब्रह्म तब, उन देवताओं के लिए,
मम हेतु नहीं पर्याप्त भगवन, दूसरा कुछ दीजिये
परब्रह्म ने तब गात अश्व का, देवताओं हित रचा,
यह भी नहीं पर्याप्त प्रभुवर और न हमको रुचा॥ [ २ ]


तब देवताओं को, ब्रह्म ने, मानव शरीर की सृष्टि की,
यह सुकृति देवों को रूचि, प्रभु ने कृपा की दृष्टि की.
तुम अपने योग्य के आश्रयों में, देवताओं प्रविष्ट हो,
मानव शरीर ही श्रेष्ठ रचना, सकल रचना विशिट हो॥ [ ३ ]


बन अग्नि मुख में वाक्, वायु प्राण बन कर नासिका,
रवि नेत्र बन और दिशा श्रोतम, रूप औषधि रोम का.
बन म्रत्यु देव अपान वायु, नाभि में स्थित हुए,
और चंद्र मन बन हृदय में, जल वीर्य बन स्थित हुए॥ [ ४ ]


भूख और पिपासा ने ब्रह्म से, की याचना कुछ दीजिये,
तब ब्रह्म ने देवांश में से ही, अंश दोनों को दिए.
अथ देवताओं द्वारा हवि जो, इन्द्रिओं से ग्रहण हो,
वह ही परोक्ष में भूख प्यास का अंश देवों से ग्रहण हो॥ [ ५ ]

प्रथम अध्याय / तृतीय खंड / ऐतरेयोपनिषद / मृदुल कीर्ति

सब लोक पालों व् लोक रचना के बाद सोचा ब्रह्म ने,
अथ इनके पोषण हेतु अन्न की, सृष्टि की थी ब्रह्म ने,
निर्वाह को दिया अन्न ब्रह्म ने और जग पोषित किया,
इस रूप में अपनी कृपा को, जगत में प्रेषित किया॥ [ १ ]


सब लोक पालों व् लोक रचना के बाद सोचा ब्रह्म ने,
अथ इनके पोषण हेतु अन्न की, सृष्टि की थी ब्रह्म ने,
निर्वाह को दिया अन्न ब्रह्म ने और जग पोषित किया,
इस रूप में अपनी कृपा को, जगत में प्रेषित किया॥ [ २ ]


फ़िर सृजित अन्न ने भागने की चेष्टा, चेष्टा की विमुख हो,
मात्र वाणी से अन्न ग्रहण करना चाहते थे, आमुख हो.
पर अन्न का करके ही वर्णन, तप्त हो यदि वाणी से,
दृष्टव्य न ऐसा कहीं, अप्राप्य इस विधि प्राणी से॥ [ ३ ]


घ्राण इन्द्रिय के द्वारा भी, जीवात्मा ने अन्न को,
ग्रहण करना चाहा था, नहीं पा सका पर अन्न को.
जीवात्मा यदि सूंघ कर ही तृप्त हो सकती कभी,
तो सूंघ कर ही अन्न को धारण यहॉं करते सभी॥ [ ४ ]


इन चक्षुओं के द्वारा भी तो, अन्न धारण चाह थी,
चक्षुओं के द्वार पर धारण की न कोई राह थी.
जीवात्मा यदि ऐसा कर सकता तो दर्शन मात्र से,
तो देख कर ही तृप्त होता, अन्न केवल नेत्र से॥ [ ५ ]


यदि तृप्त हो सकता मनुष्य जो, नाम सुनने मात्र से,
नाम केवल अन्न का, सुनता वह अपने श्रोत्र से.
और सुनकर तृप्त हो जाता न जो संभाव्य है,
यह नहीं व्यवहृत प्रथा और न ही यह दृष्टव्य है॥ [ ६ ]


तब उस सृजित जीवात्मा ने अन्न को स्पर्श से,
चाहा त्वरित ही ग्रहण करना मात्र ही संपर्क से,
पर यदि संभाव्य होता ग्रहण करना विधि यथा
तो अन्न को स्पर्श से ही ग्रहण की होती प्रथा॥ [ ७ ]


जीवात्मा की अन्न को, मन से ग्रहण की चाह थी,
पर मात्र मनसा भाव से, पा सकने की न राह थी.
मनसा चिंतन मात्र से यदि ग्रहण कर सकता कोई,
पर तृप्त चिंतन से ही केवल हो नहीं सकता कोई॥ [ ८ ]


उस अन्न के द्वारा उपस्थ के, ग्रहण करने की चाह थी,
पर उपस्थ के द्वारा भी नहीं ग्रहण करने की राह थी.
यदि उपस्थ के द्वारा यह ग्रहणीय हो सकता कभी,
पर अन्न त्याग से तृप्त होता, हो नहीं देखा कभी॥ [ ९ ]


वायु अपान के द्वारा अंत में, जीव ने उस अन्न को,
मुख माध्यम से ग्रहण कर, किया ग्राह्य, अन्न विभिन्न को.
खाद्यान्न से जीवन की रक्षा करने वाले स्वरुप में,
अथ वायु जीवन प्राण का, है प्राण वायु के रूप में॥ [ १० ]


सृष्टा ने सोचा मेरे बिन, क्या हो व्यवस्था प्रक्रिय?
वाणी द्वारा वाक्, प्राण से, सूंघने की यदि क्रिया,
दृष्टि नेत्र से, श्रवण श्रोत्र से, त्वचा से स्पर्श का,
मनन मन से, कौन मैं क्या मार्ग मेरे प्रवेश का? [ ११ ]


बेध कर मूर्धा को, परब्रह्म स्वयं मानव देह में
होते प्रतिष्ठित , विदृती नाम प्रसिद्धि मानव गेह में.
परमेश की उपलब्धि के, स्थान स्वप्न भी तीन है,
ब्रह्माण्ड हृदयाकाश नभ, वही जन्म मृत्यु विहीन है॥ [ १२ ]


देखा जगत , भौतिक रचित, मानव चकित है मौन है,
अद्भुत जगत का रचयिता, यह दूसरा यहाँ कौन है?
प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम को मन में, सर्व व्यापी को किया,
अहो ! ब्रह्म का साक्षात दर्शन शुभ्र, शुभ मैनें किया॥ [ १३ ]


अथ देह में उत्पन्न यद्यपि, देही को प्रत्यक्ष है,
इव देवता है परोक्ष प्रिय, इस हेतु ही अप्रत्यक्ष है.
नाम तो है 'इदंद्र' 'इन्द्र' परोक्ष भाव पुकारते,
अथ ब्रह्म को साक्षात करके स्वयं में ही निहारते॥ [ १४ ]

द्वितीय अध्याय
द्वितीय अध्याय / प्रथम खंड / ऐतरेयोपनिषद / मृदुल कीर्ति
अति-अति प्रथम यह जीव गर्भ में, वीर्य का ही रूप है,
धारक पिता के स्वरुप गर्भ में, वीर्य का भी स्वरुप है,
यह पुरूष तन में जो वीर्य है, यह सकल अंगों का सार है,
आत्म संचय फ़िर नारी सिंचन, प्रथम जन्म आधार है॥ [ १ ]


वह गर्भ नारी के स्वयम अपने , अंगों के ही समान हैं,
अतः धारक नारी को किसी पीडा का नहीं भान है.
पति अंश को गर्भस्थ अंगीकार करती नारी है,
ऐसी व्यवस्था पर व्यवस्थित सृष्टि रचना सारी है॥ [ २ ]


करे गर्भ धारण प्रसव के ही पूर्व तक नारी तथा,
जन्मांतरण शिशु के पिता , करें संस्कार की है प्रथा
गर्भान्तरण नारी का पोषण श्रेष्ठ और विशेष हो ,
अथ जीव का जन्मांतरण ही द्वितीय जन्म प्रवेश हो॥ [ ३ ]


यह पुत्र है प्रतिनिधि पिता का, पुण्य कर्मों को करे,
जिसके ही लौकिक दिव्य कर्मों से पिता और कुल भी तरें
पिता के कर्तव्य पूर्ण व् आयु भी जब शेष हो
उपरांत जो भी पुनर्जन्म हो,तृतीय जन्म प्रवेश हो॥ [ ४ ]


ऋषि वाम देव को गर्भ में ही तत्व ज्ञान का ज्ञान था,
जन्म मृत्यु शरीर के ही विकार हैं यह भान था.
अब तत्व ज्ञान से मैं शरीरों की अहंता से मुक्त हूँ ,
अब जन्म मृत्यु शरीर हीन हूँ , बाज सम उन्मुक्त हूँ॥ [ ५ ]



मर्मज्ञ जीवन मरण के , ऋषि वामदेव प्रणम्य है,
उपरांत नष्ट शरीर के,गति उर्ध्व पाई धन्य है.
कामनाओं को प्राप्त करके , आप्त काम हो तर गए,
वे जन्म मृत्यु विहीन बन , ऋषि परम धाम को ही गए॥ [ ६ ]

तृतीय अध्याय
तृतीय अध्याय / प्रथम खंड / ऐतरेयोपनिषद / मृदुल कीर्ति
हम लोगों का आराध्य जो है, आत्मा वह कौन है?
मुखरित हो वाणी तत्व जिससे, तत्व एसा कौन है?
सूंघते जिससे सुगंधें , सुनता व् देखे कौन है,?
अस्वादु- स्वादु वास्तु को करता विभाजित कौन है?॥ [ १ ]


यह जो हृदय है यही मन भी प्रज्ञा, आज्ञा, ज्ञान भी,
देखने की शक्ति बुद्धि व् धैर्य मत विज्ञान भी,
शुभ स्मरण संकल्प शक्ति , मनन प्राण व् कामना,
सब शक्तियां उसमें समाहित,ब्रह्म मय परमात्मा॥ [ २ ]


यही ब्रह्मा, इन्द्र, प्रजापति, यही देवता जलवायु भू,
आकाश अग्नि, पंचभूत, नियंता इनका है स्वयं भू,
ब्रह्माण्ड जड़ जंगम व् चेतन कीट पशु प्राणी सभी,
प्रज्ञा स्वरूपी ब्रह्म से ही निष्पन्न है सृष्टि सभी॥ [ ३ ]


जिस प्राणी को परब्रह्म के प्रज्ञान रूप का ज्ञान हो,
उसके लिए सब दिव्य भोग हों, अमरता का विधान हो.
इस लोक से ऊपर हो अति -अति परम धाम में धाम हो,
फ़िर जन्म -मृत्यु विहीन जड़ता हीन शुद्ध अनाम हो॥ [ ४ ]


1 टिप्पणी:

Divya Narmada ने कहा…

ऐतरेयोपनिषद

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