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बुधवार, 11 मई 2011

रचना-प्रतिरचना : - डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक" - संजीव 'सलिल'

रचना-प्रतिरचना :  -
डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक" - संजीव 'सलिल'

मित्रों!
बहुत पहले यह छोटी सी रचना लिखी थी जिसका शीर्षक था क्यों? इस क्यों.. का उत्तर आज तक नहीं मिला है! युवा मन की इस रचना का आप भी आनन्द लीजिए और इसका उत्तर मिले तो मुझे भी बताइएगा!
क्यों?...

डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक"
*
 
मेरे वीराने उपवन में,
सुन्दर सा सुमन सजाया क्यों?
सूने-सूने से मधुबन में,
गुल को इतना महकाया क्यों?

मधुमास बन गया था पतझड़,
संसार बन गया था बीहड़,
लू से झुलसे, इस जीवन में,
शीतल सा पवन बहाया क्यों?

ना सेज सजाना आता था,
मुझको एकान्त सुहाता था,
चुपके से आकर नयनों में,
सपनों का भवन बनाया क्यों?

मैं मन ही मन में रोता था,
अपना अन्तर्मन धोता था,
चुपके से आकर पीछे से,
मुझको दर्पण दिखलाया क्यों?

ना ताल लगाना आता था,
ना साज बजाना आता था,
मेरे वैरागी कानों में आकर,
सुन्दर संगीत सुनाया क्यों?

 *
 गीत:


संजीव वर्मा 'सलिल'
*
वीराने में सुमन सजाया, 
खिलो महक संसार उठे. 
मधुवन में गुल शत महकाए, 
संस्कार शुभ अगिन जगे..
पतझड़-बीहड़ में भी हँसकर 
जीना सीख सके गर तुम-
शीतल मलयानिल अभिनन्दन 
आ-आकर सौ बार करे..

एकाकी रह सृजन न होता, 
सपने अपने साथी हैं.
सेज सजा स्वागत कर वर बन, 
स्वप्न सभी बाराती हैं.. 
रुदन कलुष हर अंतर्मन का, 
दर्पणवत कर देता स्वच्छ- 
ताल-साज बैरागी-मन के 
अविकारी संगाती हैं..


शंका तज, विश्वास-वरणकर ,
तब शव में भी शिव मिलता.
शिवा सदय तो जग-सरवर में-
विघ्नहरण जीवन खिलता..
श्रृद्धावान ज्ञान पाता है,
'सलिल' सदृश लहराता है-
संदेहों की शिला न बन,
हो चूर्ण, नहीं तिल भर हिलता..
***




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