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गुरुवार, 9 जून 2011

रचना-प्रति रचना: महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’ -- संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना:
ग़ज़ल : आभार ई-कविता
उम्र गुज़र गई राहें तकते, ढल गए अंधियारे में साए---   ईकविता, ९ जून २०११
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
७ जून २०११
उम्र गुज़र गई राहें तकते , ढल गए अंधियारे में साए
अंत समय आया पर तुमको न आना था, तुम न आए
 
दिल ने तुमको बहुत बुलाया पर तुम तक आवाज़ न पहुँची
दोष भला कैसे  दूँ तुम तो सदा अजाने से मुस्काए
 
काश कभी ये भी हो पाता, तुम अपने से चल कर आते
पर दिल में अहसास भरा हो तब ही कोई कदम बढ़ाए
 
आज तपस्या पूरी हो गई, मिले नहीं पर तप न टूटा
तुम न होते तो फिर मैं रहता किस पर विश्वास टिकाए
 
नहीं समय का बंधन है अब, धरती-नभ हो गए बराबर
जाने अब मिलना हो न हो, दूर ख़लिश वह काल बुलाए.
 *
प्रति रचना: 
मुक्तिका
 संजीव 'सलिल'
*
राह ताकते उम्र बितायी, लेकिन दिल में झाँक न पाये.
तनिक झाँकते तो मिल जाते, साथ हमारे अपने साये..

दूर न थे तो कैसे आते?, तुम ही कोई राह बताते.
क्या केवल आने की खातिर, दिल दिलको बाहर धकियाये?


सावन में दिल कहीं रहे औ', फागुन में दे साथ किसी का.
हमसे यही नहीं हो पाया, तुमको लगाते रहे पराये..



जाते-आते व्यर्थ कवायद क्यों करते, इतना बतला दो?
अहसासों का करें प्रदर्शन, मनको यह अहसास न भाये..



तप पूरा हो याकि अधूरा, तप तो तपकर ही हो पाता.
परिणामों से नहीं प्रयासों का आकलन करें-भरमाये.. 

काल-अकाल-सुकाल हमीं ने, महाकाल को कहा खलिश पा.
अलग कराये तभी मिलाये, 'सलिल' प्यास ही तृप्त कराये..

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