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बुधवार, 29 जून 2011

सामयिक मुक्तिका: क्यों???... संजीव 'सलिल'

सामयिक मुक्तिका:
क्यों???...
संजीव 'सलिल'
*
छुरा पीठ में भोंक रहा जो उसको गले लगाते क्यों?
कर खातिर अफज़ल-कसाब की, संतों को लठियाते क्यों??

पगडंडी-झोपड़ियाँ तोड़ीं, राजमार्ग बनवाते हो.
जंगल, पर्वत, नदी, सरोवर, निष्ठुर रोज मिटाते क्यों??

राम-नाम की राजनीति कर, रामालय को भूल गये.
नीति त्याग मजबूरी को गाँधी का नाम बताते क्यों??

लूट देश को, जमा कर रहे- हो विदेश में जाकर धन.
सच्चे हैं तो लोकपाल बिल, से नेता घबराते क्यों??

बाँध आँख पर पट्टी, तौला न्याय बहुत अन्याय किया.
असंतोष की भट्टी को, अनजाने ही सुलगाते क्यों??

घोटालों के कीर्तिमान अद्भुत, सारा जग है विस्मित.
शर्माना तो दूर रहा, तुम गर्वित हो इतराते क्यों??

लगा जान की बाजी, खून बहाया वीर शहीदों ने.
मण्डी बना देश को तुम, निष्ठा का दाम लगाते क्यों??

दीपों का त्यौहार मनाते रहे, जलाकर दीप अनेक.
हर दीपक के नीचे तम को, जान-बूझ बिसराते क्यों??

समय किसी का सगा न होता, नीर-क्षीर कर देता है.
'सलिल' समय को असमय ही तुम, नाहक आँख दिखाते क्यों??
*********

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

4 टिप्‍पणियां:

shriprakash shukla ✆yahoogroups.com ekavita ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,
आप की यह रचना बहुत रुचिकर लगी |बधाई हो
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल

achal verma ✆ ने कहा…

उचित समय पर बिलकुल उचित कविता देना ही तो एक श्रेष्ट कवि का काम है,
जो आपने किया है , और करते रहे हैं |
आप को नमन |

अचल

sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavita आ ने कहा…

० आचार्य जी ,
सारी पोल खोलती आपकी मुक्तिकाएं कमाल की हैं ,साधुवाद
विशेष-
घोटालों के कीर्तिमान अदभुत , सारा जग है विस्मित
शर्माना तो दूर रहा तुम गर्वित हो इतराते क्यों ?
सादर,
कमल

Amitabh Tripathi ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavita ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,
ये द्विपदी विशेष लगी
दीपों का त्यौहार मनाते रहे, जलाकर दीप अनेक.
हर दीपक के नीचे तम को, जान-बूझ बिसराते क्यों??
बधाई!
सादर
अमित