कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 21 जून 2011

सामयिक रचना:
बहुत कुछ बाकी अभी है...
संजीव 'सलिल'
*
बहुत कुछ बाकी अभी है 
मत हों आप निराश.
उगता है सूरज तभी
जब हो उषा हताश.
किरण आशा की कई हैं
जो हैं जलती दीप.
जैसे मोती पालती 
निज गर्भ में चुप सीप.
*
आइये देखें झलक 
है जबलपुर की बात
शहर बावन ताल का
इतिहास में विख्यात..
पुर गए कुछ आज लेकिन
जुटे हैं फिर लोग.
अब अधिक पुरने न देंगे
मिटाना है रोग.
रोज आते लोग 
खुद ही उठाते कचरा.
नीर में या तीर पर
जब जो मिला बिखरा.
भास्कर ने एक
दूजा पत्रिका ने गोद
लिया है तालाब
जनगण को मिला आमोद.
*   
झलक देखें दूसरी
यह नर्मदा का तीर.
गन्दगी है यहाँ भी
भक्तों को है यह पीर.
नहाते हैं भक्त ही,
धो रहे कपड़े भी.
चढ़ाते हैं फूल-दीपक
करें झगड़े भी.
बैठकें की, बात की,
समझाइशें भी दीं.
चित्र-कविता पाठकर
नुमाइशें भी की.
अंतत: कुछ असर
हमको दिख रहा है आज.
जो चढ़ाते फूल थे वे
लाज करते आज.
संत, नेता, स्त्रियाँ भी
करें कचरा दूर.
ज्यों बढ़ाकर हाथ आगे
बढ़ रहा हो सूर.
*
इसलिए कहता:
बहुत कुछ अभी भी है शेष
आप लें संकल्प,
बदलेगा तभी परिवेश.
*

कोई टिप्पणी नहीं: