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शनिवार, 11 जून 2011

घनाक्षरी: नार बिन चले ना.. -----संजीव 'सलिल'

घनाक्षरी:
संजीव 'सलिल'
नार बिन चले ना..
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घर के न घाट के हैं, राह के न बाट के हैं, जो न सच जानते हैं, प्यार बिन चले ना.
जीत के भी हारते हैं, जो न प्राण वारते हैं, योद्धा यह जानते हैं, वार बिन चले ना..
दिल को जो जीतते हैं, कभी नहीं रीतते हैं, मन में वे ठानते हैं, हार बिन चले ना.
करते प्रयास हैं जो, वरते उजास हैं जो, सत्य अनुमानते हैं, नार बिन चले ना..
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रम रहो राम जी में, जम रहो जाम जी में, थम रहो काम जी में, यार बिन चले ना.
नमन करूँ वाम जी, चमन करो धाम जी, अमन आठों याम जी, सार बिन चले ना..
कौन सरकार यहाँ?, कौन सरदार यहाँ?, कौन दिलदार यहाँ?, प्यार बिन चले ना.
लगाओ कचनार जी, लुभाओ रतनार जी, न तोडिये किनार जी, नार बिन चले ना..
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वतन है बाजार जी, लीजिये उधार जी, करिए न सुधार जी, रार बिन चले ना. 
सासरे जब जाइए, सम्मान तभी पाइए, सालीजी को लुभाइए, कार बिन चले ना..
उतार हैं चढ़ाव हैं,  अभाव हैं निभाव हैं, स्वभाव हैं प्रभाव हैं, सार बिन चले ना.
करिए प्रयास खूब, वरिए हुलास खूब, रचिए उजास खूब, नार बिन चले ना..
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नार= ज्ञान, पानी, नारी, शिशु जन्म के समय काटे जाने वाली नस.

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