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बुधवार, 13 जुलाई 2011

एक कविता- याद आती है -- संजीव 'सलिल'

एक कविता-
याद आती है
संजीव 'सलिल'
*

 याद आती है रात बचपन की...

कभी छत पर,
कभी आँगन में पड़े
देखते थे कहाँ है सप्तर्षि?
छिपी बैठी कहाँ अरुंधति है?
काश संग खेलने वो आ जाये.
वो परी जो छिपी गगन में है.
सोचते-सोचते आँखें लगतीं.
और तब पड़ोसी गोदी में लिये
रहे पहुँचाते थे हमें घर तक.
सभी अपने थे. कोई गैर न था.

तब भी बातें बड़े किया करते-
किसकी आँखों का तारा कौन यहाँ?
कौन किसको नहीं तनिक भाता?
किसकी किससे लड़ी है आँख कहाँ?
किन्तु बच्चे तो सिर्फ बच्चे थे.
झूठ तालाब, कमल सच्चे थे.

हाय! अब बच्चे ही बच्चे न रहे.
दूरदर्शन ने छीना भोलापन.
अब अपना न कोई लगता है.
हर पराया ठगाया-ठगता है.
तारे अब भी हैं
पर नहीं हैं अब
तारों को गिननेवाले वे बच्चे
.
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