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गुरुवार, 14 जुलाई 2011










नवगीत:                                                                                   
शहर का एकांत...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
ढो रहा है
संस्कृति की लाश,
शहर का एकांत...
*
बहुत दुनियादार है यह,
बचो इससे.
दलाली व्यापार है,
सच कहो किससे?
मंडियाँ इंसान के
ज़ज्बात की हैं-
हादसों के लिख रही हैं
नये किस्से.

खो रहा है
ढाई-आखर-पाश
हो दिग्भ्रांत.
शहर का एकांत...
*
नहीं कउनौ है
हियाँ अपना.
बिना जड़ का रूख
हर सपना.
बिन कलेवा और
बिन सहरी-
चल पड़े पग,
थाम न दिल कँपना.

हो रहा है
हालात-कर का ताश
बन संभ्रांत?
शहर का एकांत...
*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

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