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रविवार, 28 अगस्त 2011

समीक्षात्मक आलेख: समय का साक्षी रचनाकार नवीन चतुर्वेदी -- संजीव 'सलिल'

समीक्षात्मक आलेख:
समय का साक्षी रचनाकार नवीन चतुर्वेदी
संजीव 'सलिल'
*








शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ सृजनधर्मिता का बढ़ना स्वाभाविक है| कोई भी व्यक्ति अपनी अनुभूतियों को शब्दों में ढाल कर प्रस्तुत करने के लिये स्वतंत्र है किन्तु इस प्रस्तुतिकरण का उद्देश्य अन्यों तक अपनी बात पहुँचाना और उनकी प्रतिक्रिया प्राप्त करना हो तो व्यक्ति को भाषा और काव्य शास्त्र के नियमों को जानकर सही तरीके से अपनी बात कहनी होती है|

आज का दौर आपाधापी का दौर है. किसी के पास समय नहीं है| सर्वाधिक पुरानी संस्कृति का यह देश एक बाज़ार मात्र रह गया है| पुरातन के अवमूल्यन और नये के अवस्थापन के इस संक्रमण काल में जिन सजग कलमों से सामना हुआ है उनमें भाई नवीन चतुर्वेदी भी हैं| नवीन के नाम के साथ 'जी' लगाकर मैं अपनी और उनकी अभिन्नता के मध्य औपचारिकता को प्रवेश नहीं करने दे सकता. उन्हें उनके नाम से पुकारूँ यह मेरा अधिकार है. नवीन में सीखने की इच्छा बहुत प्रबल है| जब जहाँ से जैसे भी कुछ अच्छा मिले वे सीख कर आपने खजाने में सम्मिलित कर लेते हैं|


वे जो जितना जानते हैं उसका दिखावा नहीं करते, आपने आप औरों पर थोपते नहीं किन्तु पूछने पर संकोच के साथ जानकारी साँझा करते हैं| 'थोथा चना बाजे घना' की असलियत से वे पूरी तरह परिचित हैं| अपनी ग़ज़ल के बारे में कही निम्न पंक्तियाँ उन पर भी बखूबी लागू होती हैं|  

जितना पूछोगे इनसे, बस उतना ही बतलायेंगी |
ना मालुम, जाने ऐसा क्या ख़ास मेरी ग़ज़लों में है ||

नवीन के लिये कविता करना शगल नहीं मजबूरी है-

ग़ज़ल जब भी कही कुछ ख़ास ऐसा वाक़या गुज़रा| 

कभी मुझसे नदी गुज़री कभी तूफ़ान सा गुज़रा|| 


आपने चारों तरफ के मंज़र देखकर उनका भावप्रवण मन जब आहत या तरंगित होता है तब उनकी कलाम अंतर्मन की अभिव्यक्ति करने में पीछे नहीं रहती. निम्न पंक्तियाँ उनकी आकलन क्षमता और अभिव्यक्ति क्षमता की बानगी पेश करती हैं:

पहले घर, घर होते थे, दफ़्तर, दफ़्तर|

अब दफ़्तर-दफ़्तर  घर; घर-घर दफ़्तर है||
*
प्यास के बाज़ार में, इक चीज़ बन के रह गये|
जिस्म प्यासा, रूह प्यासी, छटपटाती सूरतें||
*
सभी दिखें  नाखुश, सबका दिल टूटा लगता है|
*
नयों को हौसला भी दो, न ढूँढो ग़लतियाँ केवल|
बड़े शाइर का भी, हर इक शिअर, आला नहीं होता|| 


बेशक़ मज़े  लूटो, मगर, आहिस्ता आहिस्ता|
आखिर, हया ओ शर्म अपने दरमियाँ भी हैं||
*
नवीन की जिन रचनाओं ने मेरे दिल को छुआ है उनमें रचनाकार की संवेदनशील दृष्टि मुखर हुई है-

तनहाई का चेहरा, अक्सर, सच्चा लगता है|

खुद से मिलना, बातें करना, अच्छा लगता है||

दुनिया  ने, उस को ही, माँ कह कर इज़्ज़त बख़्शी|
जिसको, अपना बच्चा, हरदम, बच्चा लगता है||
*
ये किस तरह की राजनीति है, न हमसे पूछिये|

ना राज है, ना नीति है, उपहास है जनतंत्र का||
*
चेहरे बदलने  थे, मगर, बस आइने बदले गये|

इन्साँ  बदलने थे, मगर, बस कायदे बदले गये|| 

हर गाँव, हर चौपाल,  हर घर का अहाता कह रहा|
मंज़िल बदलनी  थी, मगर, बस रासते बदले गये||

अब भी गबन, चोरी, छलावे हो रहे हैं रात दिन|
तब्दीलियों  के नाम पर, बस दायरे बदले गये||

जिन मामलों के, फ़ैसलों के, मामले सुलझे नहीं|
उन मामलों के, फ़ैसलों के, फ़ैसले बदले गये||
*
जब से  रब, इन्सान के भीतर से, गायब हो गया|
तब से, पूजा-पाठ वाले चोचले बढ़ने लगे|| 
*
दूसरों  की ग़लतियाँ, शर्मिंदगी अपनी|

इससे कुछ  ज्यादा कहानी, है- न थी अपनी||

नवीन की एक खासियत और है- वह रचनाओं में विराम चिन्हों का सार्थक प्रयोग करते हैं| छंद और विराम चिन्हों से अपरिचित पीढ़ी को नवीन की रचनाएँ पढ़ने से ही पर्याप्त अभ्यास हो सकता है|

सामाजिक विसंगतियों पर नवीन की कलम तत्काल प्रहार करती है|


नभ में  उड़ने वाले नेता, बातें तो कर सकते हैं|
सड़क पे चलाने वाला जाने, सड़क के गड्ढों का मतलब|| 
*
राजा हो या रंक, सभी को रोटी खाते देखा है|

रंक ने ही समझा है, पर, रोटी के टुकडों का मतलब||
*
जब 'तज़ुर्बे' औ 'डिग्री' का दंगल हुआ|
क़ामयाबी, बगल झाँकती रह गयी|| 
*
गाँव की 'आरज़ू' - शहरी 'महबूब' का|

डाकिये  से पता पूछती रह गयी||

नवीन की रचनाओं में हिंदी के पिंगल के कई पाठ हैं. काव्यशास्त्री यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम' के इस सुयोग्य शिष्य ने रसों और अलंकारों से अपनी रचनाओं को संपन्न बनाया है| उक्त और निम्न पंक्तियों में अनुप्रास की छटा देखिये-

अनुपम, अमित,  अविरल, अगम,  अभिनव, अकथ,  अनिवार्य सा|
अमि-रस भरा,  यहु प्रेम-पथ,  न चलें यहाँ  कडुवाहटें||
*
सु-मनन  करें,  सु-जतन करें,  अभिनव गढ़ें,  अनुपम कहें|

वसुधा सवाल उठा रही,  क्यूँ न फिर से ग़ालिब-ओ-गंग हों||
*
नवीन के प्रतीकों और बिम्बों की मौलिकता और उपयुक्तता का एक उदाहरण देखें-

है कहीं, मिश्री से भी मीठा, अगर |
तो कहीं, कडवा करेला आदमी ||
*
नवीन की संतुलित दृष्टि हर नये की आलोचना नहीं करती, छिद्रान्वेषण के शौकीनों से वे कहते हैं-

उजालों  से शिकायत है जिन्हें, जा कर कहो उनसे|

कभी तो रोशनी  को,  तीरगी की दृष्टि से देखें||

ये अच्छा  है - बुरा है वो, ये मेरा है - पराया वो|
कभी तो आदमी को, आदमी की दृष्टि से देखें||

रिदम्, ट्यूनिंग, खनकते बोल सब कुछ ठीक है लेकिन|
कभी तो शायरी  को शाइरी की दृष्टि से देखें||

ज़िंदगी  में करुण और श्रृंगार रस का कोष जितना अधिक होगा कविता उतनी ही अधिक समृद्ध होगी| नवीन की रचनाओं में पारिस्थितिक वैषम्यजनित करुणा विद्रोह का आव्हान करती आलोचना का रूप ले लेती है किन्तु श्रृंगार की उत्कट अभिव्यक्ति अकृत्रिम है-

उलफ़त का मुहूरत देख नहीं,
मत खेल  मेरे अरमानों से|
आँखों को करने दे सजनी,
आँखों की बातें आँखों से||
*
फूलों सा नरम, मखमल सा गरम,
शरबत सा मधुर, मेघों सा मदिर|
तेरा यौवन  मधुशाला है,
मेरी अभिलाषा  साक़ी है||
*
तेरी नज़रों के तीर देखे हैं| 
तेरे दिल का गुलाब देखेंगे|| 
*
ताब में हम कहाँ हैं बिन तेरे| 
क्या है तू भी बेताब, देखेंगे|४|
*
कई दिनों  बाद फिर क़रार मिला| 
ख़्वाब में दिलरुबा का प्यार मिला|| 
*
सिर्फ इक बार ही मिला लेकिन| 
ऐसा लगता है बार-बार मिला||
*
नवीन की कविताओं की भाषा आज की पीढ़ी की भाषा है| वे अंग्रेजी, उर्दू और अन्य लोक भाषाओँ के शब्दों का प्रयोग उन्मुक्तता से करते हैं| मेरा मत है कि अभारतीय भाषाओँ के शब्द तभी प्रयोग करने चाहिए जब हिंदी या अन्य भारतीय लोक भाषाओँ में उस अभिव्यक्ति के लिये कोई शब्द न हो| नवीन मुझसे आंशिक सन्मति आंशिक असहमति रखते हैं और उसे छिपाते नहीं. उदाहरणार्थ 'वर्ल्ड  बैंक' को 'विश्व बैंक' लिखने का सुझाव उन्हें नहीं रुचता|

नवीन सिर्फ वर्तमान की आलोचना नहीं करते, वे गुत्थियों को सुलझाने के नुस्खे भी बताते हैं-

सुलझा लें  गुत्थी,  सदियों से,  अनसुलझी हैं बहुतेरी|
आज नहीं,  तो कभी नहीं,  कल फिर हो जायेगी देरी||
*
तुम जो कहो तो, अब के बरस हम, ऐसे मनाएँ पर्वों को| 
साल महीने, सारा जहाँ, ना सौदा करे हथियारों का|

नवीन का काव्य संस्कार संस्कृत पिंगल, हिंदी काव्य शास्त्र, उर्दू ग़ज़ल, लोकभाषिक तथा अंग्रेजी शब्दों का ऐसा गुलदस्ता है जिसकी खूबसूरती और सुगंध दोनों को जल्दी भुलाया नहीं जा सकता| अंतरजाल पर हिंदी भाषा के शब्द भंडार को समृद्ध करने, व्याकरण और काव्य शास्त्र को नयी पीढ़ी तक पहुँचाकर काव्य रूपों (छंदों) को युवाओं में लोकप्रिय बनाने के अभियान में नवीन ने मेरे साथ भरपूर परिश्रम किया है| उनका साथ मेरे लिये संबल भी है और प्रेरणा भी|


उनका समीक्ष्य अंतर्जालिक काव्य संकलन 'कुछ अपना कुछ औरों का अहसास' पाठकों को रुचना चाहिए. टंकण और मात्रा की चंद त्रुटियाँ असावधानी से हुई हैं उनके लिये मुझे खेद है| मुझे मालूम है नवीन अभी आसमाँ की बुलंदियों पर नहीं पहुँचा है किन्तु इसकी योग्यता उसमें है, आवश्यकता लगातार चलते रहने  की है मंजिल खुद-ब-खुद उसे खोज लेगी.
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

1 टिप्पणी:

Navin C. Chaturvedi ✆ ने कहा…

आदरणीय प्रणाम
आप का आशीर्वाद पाना मेरे लिए परम सौभाग्य की बात है
इसे मैंने ई किताब के अंतिम हिस्से में - प्रकाशनोपरांत प्राप्त समीक्षा - खंड में पेस्ट कर दिया है
आपका आशीर्वाद पा कर और अधिक ज़िम्मेदारी का एहसास बढ़ गया है
आपका आशीर्वाद और स्नेह बनाए रखिएगा

पुन: सादर प्रणाम

साभार
नवीन सी चतुर्वेदी
मुम्बई

मैं यहाँ हूँ : ठाले बैठे
साहित्यिक आयोजन : समस्या पूर्ति
दूसरे कवि / शायर : वातायन
मेरी रोजी रोटी : http;//vensys.biz