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शनिवार, 27 अगस्त 2011

मुक्तिका: ये शायरी जबां है किसी बेजुबान की. संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

ये शायरी जबां है किसी बेजुबान की.
संजीव 'सलिल'
*
ये शायरी जुबां है किसी बेजुबान की.
इसमें बसी है खुशबू जिगर के उफान की..

महलों में सांस ले न सके, झोपडी में खुश. 
ये शायरी फसल है जमीं की, जुबान की..

उनको है फ़िक्र कलश की, हमको है नींव की.
हम रोटियों की चाह में वो पानदान की..

सड़कों पे दीनो-धर्म के दंगे जो कर रहे.
क्या फ़िक्र है उन्हें तनिक भी आसमान की?

नेता को पाठ एक सियासत ने यह दिया.
रहने न देना खैरियत तुम पायदान की.

इंसान की गुहार करें 'सलिल' अनसुनी.
क्यों कर उन्हें है याद आरती-अजान की..
*

1 टिप्पणी:

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

महलों में सांस ले न सके, झोपडी में खुश.
ये शायरी फसल है जमीं की, जुबान की..

बहुत खूब श्रीमान