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मंगलवार, 9 अगस्त 2011

दोहा सलिला: अलंकारों के रंग-राखी के संग संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:                                                                                  
अलंकारों के रंग-राखी के संग
संजीव 'सलिल'
*
राखी ने राखी सदा, बहनों की मर्याद.
संकट में भाई सदा, पहलें आयें याद..
राखी= पर्व, रखना.
राखी की मक्कारियाँ, राखी देख लजाय.
आग लगे कलमुँही में, मुझसे सही न जाय..
राखी= अभिनेत्री, रक्षा बंधन पर्व.
मधुरा खीर लिये हुए, बहिना लाई थाल.
किसको पहले बँधेगी, राखी मचा धमाल..

अक्षत से अ-क्षत हुआ, भाई-बहन का नेह.
देह विदेहित हो 'सलिल', तनिक नहीं संदेह..
अक्षत = चाँवल के दाने,क्षतिहीन.
रो ली, अब हँस दे बहिन, भाई आया द्वार.
रोली का टीका लगा, बरसा निर्मल प्यार..
रो ली= रुदन किया, तिलक करने में प्रयुक्त पदार्थ.
बंध न सोहे खोजते, सभी मुक्ति की युक्ति.
रक्षा बंधन से कभी, कोई न चाहे मुक्ति..

हिना रचा बहिना करे, भाई से तकरार.
हार गया तू जीतकर, जीत गयी मैं हार..

कब आएगा भाई? कब, होगी जी भर भेंट?
कुंडी खटकी द्वार पर, भाई खड़ा ले भेंट..
भेंट= मिलन, उपहार.
मना रही बहिना मना, कहीं न कर दे सास.
जाऊँ मायके माय के, गले लगूँ है आस..
मना= मानना, रोकना.
गले लगी बहिना कहे, हर संकट हो दूर.
नेह बर्फ सा ना गले, मन हरषे भरपूर..
गले=कंठ, पिघलना.
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

16 टिप्‍पणियां:

navincchaturvedi@gmail.com … ने कहा…

Navin C. Chaturvedi ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavita
आदरणीय आचार्य वर
सादर अभिवादन
यमक अलंकार से शुरुआत की है आपने| साहित्य की समृद्धि में आप ने एक और सोपान जोड़ दिया है|
आप के साहित्य ज्ञान की प्रशंसा तो हमेशा मैं करता ही रहता हूँ| आज आप के द्वारा प्रदत्त अधिकार का प्रयोग कर रहा हूँ :-

[आ. सलिल जी बहुत बार जान बूझ कर मिस्टेक करते हैं, ताकि उन त्रुटियों पर चर्चा हो तथा अन्य व्यक्ति इस के बारे में समझ सकें]

मेरी अल्प मति के अनुसार, ये हिस्से 'दोहा शिल्प' का अतिक्रमण कर रहे हैं :-

==================================
आग लगे कलमुँही में
शायद ये यूं होना चाहिए - आग लगाए कलमुँही
==================================

किसको पहले बँधेगी

यदि इन्हीं शब्दों और भावों को लेना हो, तो मैं यूं कहना चाहूँगा :-


मधुरा खीर लिये हुए, बहिना लाई थाल.
बाँधे वो पहले किसे - राखी, मचा धमाल..
=================================

नमन

साभार
नवीन सी चतुर्वेदी
मुम्बई

मैं यहाँ हूँ : ठाले बैठे
साहित्यिक आयोजन : समस्या पूर्ति
दूसरे कवि / शायर : वातायन
मेरी रोजी रोटी : http;//vensys.biz

achal verma ✆ ekavita … ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना , \ आचार्य जी की जय \

Achal Verma

achal verma ✆ ekavita ने कहा… ने कहा…

अपूर्व

Achal Verma

sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavita … ने कहा…

आ० आचार्य जी ,
जवाब नहीं आपके शब्द-प्रयोग का | भिन्न अर्थ वाले शब्दों का जिस कौशल से आपने दोहों में प्रयोग किया है
वह देखते ही बनता है | आपको सरस्वती सिद्ध है | ऐसी प्रतिभा को मेरा नमन |

कमल

shriprakash shukla ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavita … ने कहा…

shriprakash shukla ✆ द्वारा yahoogroups.com ekavita

आदरणीय आचार्य जी,
यमक अलंकार से ओत प्रोत यह संरचना अद्वितीय है ऐसी साहित्यिक कृतियाँ संजो के रख लेता हूँ | आपको अनेकानेक धन्यवाद एवं बधाईया इसे प्रेषित करने कि लिए |
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल

ksantosh_45@yahoo.co.in … ने कहा…

आ०सलिल जी,
बहुत ही लाजबाव दोहे। मजा आ गया। बधाई स्वीकारें।
सन्तोष कुमार सिंह

mukuti@gmail.com ने कहा… ने कहा…

Acharya Ji,

Bahut sundar dohe, Kamal Dada ne bilkul theek kaha hai ki shabdo ke bahuarthi prayog me aap siddhhast hai.

Regards,

Mukesh K.Tiwari

sanjiv 'salil' … ने कहा…

आपके सद्भाव का आभार शत-शत

Atendra Kumar Singh "Ravi" ने कहा…

adrniya guruji,

Alankaro ke sang dohe ki prastuti atyant sarahniya hai ....badhai kubool karen.......Atendra

Ashish yadav ने कहा…

राखी ने राखी सदा, बहनों की मर्याद.
संकट में भाई सदा, पहलें आयें याद..
आचार्य जी बहुत सही लिखा आपने| यमक अलंकार का सुन्दर प्रयोग|

राखी की मक्कारियाँ, राखी देख लजाय.
आग लगे कलमुँही में, मुझसे सही न जाय..
वाह, उस राखी को भला कैसे छोड़ते. इस राखी पे कलंक लगा देती है|
यहाँ भी यमक का सुन्दर प्रयोग|

मधुरा खीर लिये हुए, बहिना लाई थाल.
किसको पहले बँधेगी, राखी मचा धमाल..
आचार्य जी, इसमें कौन सा अलंकार होगा| ज्ञान में वृद्धि करें|

अक्षत से अ-क्षत हुआ, भाई-बहन का नेह.
देह विदेहित हो 'सलिल', तनिक नहीं संदेह..
रो ली, अब हँस दे बहिन, भाई आया द्वार.
रोली का टीका लगा, बरसा निर्मल प्यार..
बंध न सोहे खोजते, सभी मुक्ति की युक्ति.
रक्षा बंधन से कभी, कोई न चाहे मुक्ति..
यमक में आप का सनी नहीं|

हिना रचा बहिना करे, भाई से तकरार.
हार गया तू जीतकर, जीत गयी मैं हार..
यहाँ मुझे श्लेष भी प्रतीत हो रहा है| यमक तो स्पष्ट है ही|

कब आएगा भाई? कब, होगी जी भर भेंट?
कुंडी खटकी द्वार पर, भाई खड़ा ले भेंट..
मना रही बहिना मना, कहीं न कर दे सास.
जाऊँ मायके माय के, गले लगूँ है आस..
कमाल का प्रयोग|

गले लगी बहिना कहे, हर संकट हो दूर.
नेह बर्फ सा ना गले, मन हरषे भरपूर..
गुरु अर्थ स्पष्ट कर हमें ज्ञानित करें|

Ambarish Srivastava ने कहा…

//रो ली, अब हँस दे बहिन, भाई आया द्वार.
रोली का टीका लगा, बरसा निर्मल प्यार..//

बहुत अच्छे व अलंकृत दोहे रचे हैं आपने ! बधाई आचार्य जी !

Ravi Kumar Guru ने कहा…

sir ji har doha sawa lakh ka bahut sundar

Saurabh Pandey ने कहा…

आदरणीय सलिलजी,

इतना भर अर्ज है, आपकी प्रस्तुतियों के प्रति जो उत्सुकता बनी रहती है उसका आप स्नेहसिक्त निर्वहन करते हैं. इन मनोहारी दोहों पर क्या कहना. या कैसा विवेचन? हम मुग्ध हैं.



//मधुरा खीर लिये हुए, बहिना लाई थाल.
किसको पहले बँधेगी, राखी मचा धमाल..//

अवगुंठन से हँसि झाँक रही निखरी-निखरी मनभावन है.. वाह.. !!..



दृष्टि इन पर भी खूब पड़ी --

//मना रही बहिना मना, कहीं न कर दे सास.
जाऊँ मायके माय के, गले लगूँ है आस..//

वाह-वाह...



//गले लगी बहिना कहे, हर संकट हो दूर.
नेह बर्फ सा ना गले, मन हरषे भरपूर..//

इस ’गले लगी’ को को अगले छंद तक याद रखेंगे.. ’गले’ को तनिक और गले से लगाना और अच्छा लगता..

साधु-साधु. उन्मन हुये..



सादर....

Sanjay Mishra 'Habib' ने कहा…

आद. आचार्य जी, अलंकारों का मनमोहक प्रयोग... आनंद आ गया...

सादर..

Dharam ने कहा…

आदरणीय सलिल जी..
आपका "दोहा सलिला: अलंकारों के रंग-राखी के संग" हृदय की गहराईयों तक उतर गया. अलंकारों कर जिस कुशलता से आपने हर दोहे में प्रयोग किया है, उसकी प्रशंसा के लिए तो शब्द भी नहीं हैं मेरे पास. ]
इस से बेहतर अलंकारों के प्रयोग करती रचना मैंने पहले कभी नहीं पढ़ी.
बहुत ही सुन्दर!
हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये.

Ganesh Jee "Bagi" ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी,
बहुत ही उच्च कोटि के दोहे वो भी अलंकारों के साथ बहुत ही खुबसूरत लगा, आप गुनी जनों को पढ़कर बहुत कुछ सिखने को मिलता है |

बहुत बहुत आभार आचार्य जी |