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गुरुवार, 22 सितंबर 2011

दोहा सलिला: गले मिले दोहा-यमक --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
गले मिले दोहा-यमक
संजीव 'सलिल'
*
गले मिले दोहा-यमक, भूले सारे भेद.
भेद न कहिये किसी, हो जीवन भर खेद..
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कवितांजलि स्वीकारातीं, माँ शारद उपहार.
कवितांजलि कविगुरु करें, जग को बंदनवार..
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कहें नीर जा मत कभी, मिट न सकेगी प्यास.
मिले नीरजा जब कभी, अधरों छाये प्यास..
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चकमक घिस पैदा करे, अब न कोई जन आग.
चकमक देखे सब जगत, मन में भर अनुराग..
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तुला न मन से मन 'सलिल', तौल सके तो तौल.
बात पचाना सीखिए, पड़े न मन में खौल..
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जान न जाती जान सँग, जान न हो बेजान.
'सलिल' कौन अनजान है, कहिये कौन सुजान??
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समर अमर होता नहीं,स-मर सकल संसार.
भ्रमर 'सलिल' से बच रहें, करे भ्रमर गुंजार..
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हल की जब से पहेली, हलकी तबियत मीत.
मल मल मलमल धो पहन, यही जगत की रीत..
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कर संग्रह कर ने किया, फैलाकर कर आज.
चाकर ने जाकर कहा:,आकर पहनें ताज..
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सर ने सर को सर नवा, माँगा यह आशीष.
अवसर पा सर कर सकूँ, भव-बाधा जगदीश..
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नीरज से रजनी कहे:, तात! अमर हैं गीत.
नीरज पा सजनी कहे, शतदल सी हो प्रीत..
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Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

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