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मंगलवार, 20 सितंबर 2011

नवगीत: हवा में ठंडक... --संजीव 'सलिल'

नवगीत
हवा में ठंडक...
संजीव 'सलिल'
*

हवा में ठंडक

बहुत है...


काँपता है

गात सारा

ठिठुरता

सूरज बिचारा.

ओस-पाला

नाचते हैं-

हौसलों को

आँकते हैं.

युवा में खुंदक

बहुत है...



गर्मजोशी

चुक न पाए,

पग उठा जो

रुक न पाए.

शेष चिंगारी

अभी भी-

ज्वलित अग्यारी

अभी भी.

दुआ दुःख-भंजक

बहुत है...



हवा

बर्फीली-विषैली,

नफरतों के

साथ फैली.

भेद मत के

सह सकें हँस-

एक मन हो

रह सकें हँस.

स्नेह सुख-वर्धक

बहुत है...



चिमनियों का

धुँआ गंदा

सियासत है

स्वार्थ-फंदा.

उठो! जन-गण

को जगाएँ-

सृजन की

डफली बजाएँ.

चुनौती घातक

बहुत है...


नियामक हम

आत्म के हों,

उपासक

परमात्म के हों.

तिमिर में

भास्कर प्रखर हों-

मौन में

वाणी मुखर हों.

साधना ऊष्मक

बहुत है...

**********
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

3 टिप्‍पणियां:

- rekha_rajvanshi@yahoo.com.au ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी
नवगीत बहुत अच्छा लगा,
बर्फीली हवा में चिगारी जलाने की ज़रुरत है
रेखा

achal verma ✆ ekavita ने कहा…

आ. आचार्य जी,
बदलते परिवेश का चित्रण बहुत सुन्दर लगा |
हमारे वहां तो अब ठंढ सचमुच ही शुरू हो गया है ,
क्या वहां भी अबकी जल्दी ठंडक उतर आई है ?

sanjiv 'salil' ने कहा…

धन्यवाद.
अचल हो सीमा सृजन की.
सचल हो रेखा मनन की.
पैर भू पर हों जमाये-
नित नवल गाथा नयन की.
यत्न यशवर्षक बहुत है...
***
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com