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शनिवार, 17 सितंबर 2011

SHRI MAD BHAGWAT GEETA .. CHAPTER 1 SHLOK 26 TO 40 POETIC HINDI TRANSLATION


SHRI MAD BHAGWAT GEETA ..
CHAPTER 1 SHLOK  26  TO 40 
POETIC HINDI TRANSLATION 


By ..PROF CHITRA BHUSHAN SHRIVASTAVA , JABALPUR 
9425806252




तत्रापश्यत्स्थितान्‌ पार्थः पितृनथ पितामहान्‌ ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥
श्वशुरान्‌ सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्‌ बन्धूनवस्थितान्‌ ॥


देखे वहां पै पार्थ ने,पिता प्रपिता महान
गुरू,मामाओं,भाइयों,मित्र ,पौत्र पहचान।।26।।

थे दोनों सेनाओं में श्वसुर,सुहद,सब लोग
जिन्हें देखकर पार्थ को हुआ बड़ा ही क्षोभ।।27।।


भावार्थ :  इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा ,उन उपस्थित सम्पूर्ण बंधुओं को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले।, ॥26 और 27॥


(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन )
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत्‌ ।
अर्जुन उवाच
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्‌ ॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ॥

दया भाव से भरे मन , से बोला तब पार्थ
कृष्ण देख इन स्वजन को तत्पर यों युद्धार्थ।।28।।

शिथिल है मेरे अंग सब , मुख अति सूखा तात !
कंपित है सारा बदन , रोमांचित है गात !!29!!

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे कृष्ण ! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है॥28 और 29॥


न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥
दया भाव से भरे मन से बोला तब पार्थ,

गिरा जा रहा हाथ से अनायास गांडीव
त्वचा जल रही,भ्रमित मन,उठना कठिन अतीव।।30।।

भावार्थ :  हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ॥30॥

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥

लक्षण सारे दिख रहे केशव ! मन विपरीत
स्वजनों का वध युद्ध में , दिखती अनुचित रीति।।31।।

भावार्थ :  हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता॥31॥

न काङ्‍क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥

नहीं विजय की कामना, न ही राज सुख चाह
न ही राज्य वैभव तथा जीवन की परवाह।।32।।

भावार्थ :  हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?॥32॥

येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥

सुख,भोगों औ" राज्य की जिनके हित थी चाह
वे सब उतरे युद्ध में तज,तन धन परवाह।।33।।

भावार्थ :  हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं॥33॥

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥

पिता,पितामह,पुत्र औ" सब गुरूजन हो अंध
भूल ससुर साले तथा मामा के संबंध।।34।।

भावार्थ :  गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं ॥34॥

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥

इन्हें मारना कब उचित,चाहे खुद मर जाऊं
धरती क्या,त्रयलोक का राज्य भले मैं पाऊं।।35।।

भावार्थ :  हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?॥35॥

निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्‌ हत्वैतानाततायिनः ॥

धृतराष्ट्रों को मारकर क्या हित होगा श्याम
वध इन आताताइयों का होगा पाप का काम।।36।।

भावार्थ :  हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा॥36॥

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्‌ ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥

इन स्वजनों धृतराष्ट्रों का तो उचित नही वध तात
कैसे सुख दे पायेगा,अपनों का आघात।।37।।

भावार्थ :  अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?॥37॥

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्‌ ॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्‌ ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥

लोभ भरी हुई दृष्टि से हो ये अंधे आप
इन्हें न दिखता ,मित्र वद्य कुल विनाष में पाप।।38।।
कुल विनाश के दोष का लखकर फिर सरकार
पाप से बचने के लिये क्यों न करें उपचार।।39।।

भावार्थ :  यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?॥38-39॥

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥

कुल विनाश से सहज है कुल धर्मो का नाश
धर्म नष्ट होता तो फिर सहज अधर्म विकास।।40।।

भावार्थ :  कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है॥40॥

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