बापू का एक पाप
एक
दिन बापू शाम की प्रार्थना सभा में बोलते-बोलते बहुत ही व्यथित हो गए।
उन्होंने कहा, “जो ग़लती मुझसे हुई है, वह असाधरण और अक्षम्य है। कई बरस
पहले मुझे इसका पता लगा, पर तभी मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया। इस कारण से
कई वर्ष नष्ट हो गए। मुझसे बहुत बड़ा पाप हो गया है। अपनी गफ़लत से मैंने
अपनी उस ग़लती को देख कर भी नहीं देखा। उससे फ़ायदा नहीं उठाया। दरिद्रनारायण
की सेवा का जिसने व्रत ले रखा हो, उससे इस प्रकार की ग़फ़लत और लापरवाही
किसी तरह भी नहीं होनी चाहिए। अगर उस दिन ही मैंने यह ग़लती सुधार लिया
होता, तो इन बीते सालों में दरिद्रनारायण की जो क्षति उस ग़फ़लत के कारण हुई
है, वह न हो पाती।”
सभा
में सब लोग सन्न होकर बापू के व्यथित स्वर और आत्मग्लानि से भरे हुए
शब्दों को सुन रहे थे। लोगों के मन में यह प्रश्न स्वाभाविक था कि कौन-सी
वह बात है जिसके लिए बापू को इतनी लम्बी और कठोर भूमिका बांधनी पड़ रही है।
बापू ने कौन-सा ऐसा काम कर डाला कि उसे वे पाप की संज्ञा दे रहे हैं।
बापू
ने अपना पाप बताया। लोग रोज़ जो दातून इस्तेमाल करके फेंक देते हैं, उनको
भी काम में लाया जा सकता है। यह विचार कुछ साल पहले उनके मन में आया था। पर
उस विचार को कार्य रूप में परिणत करना वे भूल गए थे। यह उनकी दृष्टि में
अक्षम्य अपराध था। एक भयंकर पाप था! उस दिन अचानक उनका ध्यान उस ओर गया।
बापू साधारण से साधारण कामों में यह देखते थे कि किस तरह से कम से कम ख़र्च
जो। कैसे अधिक से अधिक बचत हो। ताकि दरिद्र ग्रामवासी उस आदर्श को अपना कर
अपनी ग़रीबी का बोझ कुछ कम कर सकें।
उस
दिन उन्होंने इस्तेमाल की गई दातून का सदुपयोग करने का आदेश आश्रमवासियों
को दिया। उन्होंने बताया कि इस्तेमाल की हुई दातून को धोकर साफ़ कर लिया जाय
और फिर उसे धूप में सुखा कर रख दिया जाए। इस तरह सुखाई हुई दातून मज़े में
ईंधन के काम आ सकती है।
बापू
ने कुछ लोगों के चेहरे पर शंका मिश्रित आश्चर्य को पढ़ लिया। शंका का
समाधान करते हुए उन्होंने कहा, “यह सोचना ग़लत है कि फेंकी हुई दातून का
ईंधन एकदम नगण्य होगा। यहां के कुछ दिन के ही प्रवास में मेरे और दल के
चार-पांच लोगों ने अपनी-अपनी दातूनों को सुखा कर जितना ईंधन इकट्ठा किया
था, उसी से मेरे लिए स्नान के लिए एक लोटा पानी गरम हो गया। अब यदि यहां
रहने वाले सभी भाई-बहन साल भर की दातून इकट्ठा कर लें तो कुछ दिनों की रसोई
पकाने लायक़ ईंधन तो इकट्ठा हो ही जाएगी। और अगर साल में एक दिन के ईंधन की
भी इस तरह से बचत हो जाए तो क्या वह कुछ भी नहीं?”
बापू
ने आगे कहा, “गांव वाले की ग़रीबी के बोझ को थोड़ा-थोड़ा भी अगर कम किया जाय,
बेकार समझ कर फेंक दी जाने वाली चीज़ों का भी अगर सोच-समझ कर कुछ न कुछ
उपयोग निकाला जाय, तो धीरे-धीरे उनका बोझ बहुत कम हो जाएगा, और वे कूड़े को
भी सोने में बदलने लगेंगे।”
उसी
दिन से कुएँ के पास एक बाल्टी टांग दी गई और उसमें सभी लोग अपनी-अपनी
इस्तेमाल की गई दातून अच्छी तरह धोकर डाल देते। उसे धूप में सुखा दिया
जाता।
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