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शनिवार, 5 नवंबर 2011

दोहा सलिला: गले मिले दोहा यमक -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
गले मिले दोहा यमक
संजीव 'सलिल'

*
तेज हुई तलवार से, अधिक कलम की धार.
धार सलिल की देखिये, हाथ थाम पतवार..
*
तार रहे पुरखे- भले, मध्य न कोई तार.
तार-तम्यता बनी है, सतत तार-बे-तार..
*
हर आकार -प्रकार में, है वह निर-आकार.
देखें हर व्यापार में, वही मिला साकार..
*
चित कर विजयी हो हँसा, मल्ल जीत कर दाँव.
चित हरि-चरणों में लगा, तरा मिली हरि छाँव..
*
लगा-लगा चक्कर गिरे, चक्कर खाकर आप.
बन घनचक्कर भागते, समझ पुण्य को पाप..
*
बाँहों में आकाश भर, सजन मिले आ काश.
खिलें चाह की राह में, शत-शत पुष्प पलाश..
*
धो-खा पर धोखा न खा, सदा सजग रह मीत.
डगमग डग मग पर रहें, कर मंजिल से प्रीत..
*
खा ले व्यंजन गप्प से, बेपर गप्प न छोड़.
तोड़ नहीं वादा 'सलिल', ले सब जग से होड़..
*
करो कामना काम ना, किंचित बिगड़े आज.
कोशिश के सर पर रहे, लग्न-परिश्रम ताज..
*
वेणु अधर में क्यों रहे, अधर-अधर लें थाम.
तन-मन की समिधा करे, प्राण यज्ञ अविराम..
*
सज न, सजन को सजा दे, सजा न पायें यार.
बरबस बरस न बरसने, दें दिलवर पर प्यार..
*
चलते चलते...
कली छोड़कर फूल से, करता भँवरा प्रीत.
देख बे-कली कली की, बे-अकली ताज मीत..
*

8 टिप्‍पणियां:

vijay2@comcast.net ✆ द्वारा yahoogroups.com ने कहा…

आ० ’सलिल’ जी,

सुन्दर दोहों के लिए बधाई ।
सोचता हूँ, आप इतने अच्छे दोहे कैसे लिख लेते हैं!

विजय निकोर

- pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी!

धृष्टता के लिए क्षमा प्रार्थना के साथ कहना चाहता हूँ कि निम्न दोहों की प्रथम और द्वितीय पंक्तियों में कही गई बातों के बीच कोई तारतम्य ढूँढने में मैं असफल रहा. थोड़ा प्रकाश डालिए तो समझ सकूँ ---

तेज हुई तलवार से, अधिक कलम की धार.
धार सलिल की देखिये, हाथ थाम पतवार..

चित कर विजयी हो हँसा, मल्ल जीत कर दाँव.
चित हरि-चरणों में लगा, तरा मिली हरि छाँव..

खा ले व्यंजन गप्प से, बेपर गप्प न छोड़.
तोड़ नहीं वादा 'सलिल', ले सब जग से होड़..

धो-खा पर धोखा न खा, सदा सजग रह मीत.
डगमग डग मग पर रहें, कर मंजिल से प्रीत..

कली छोड़कर फूल से, करता भँवरा प्रीत.
देख बे-कली कली की, बे-अकली तज मीत..

इस पंक्ति में --
धो-खा पर धोखा न खा, सदा सजग रह मीत..... धोकर खाने और धोखा खाने में कोई सामंजस्य नहीं लग रहा है. या फिर आप कुछ और कहना चाहते हैं ?

इस दोहे की दूसरी पंक्ति का अर्थ नहीं समझ पा रहा हूँ--

सज न, सजन को सजा दे, सजा न पायें यार.

बरबस बरस न बरसने, दें दिलवर पर प्यार.. मुख्यतः "बरस" के प्रयोग का अर्थ नहीं समझ में आ रहा है.

आपसे सविनय निवेदन है कि उक्त पर प्रकाश डालें तो मैं भी दोहों का आनंद ले सकूँ.

सादर

प्रताप

sanjiv salil ने कहा…

विजय जी!
दोहे आपको पसंद आये... मेरा कविकर्म धन्य हुआ.

प्रताप जी!
इन दोहों को प्रयोग के रूप में लिखा जा रहा है. शब्दों को एकाधिक अर्थ में प्रयोग करने का प्रयास है.
वही शब्द फिर-फिर फिरे, अर्थ और ही और.
सो यमकालंकार है, भेद अनेकन ठौर..
रचना के सम्बन्ध में पाठक तभी पूछता है जब वह रचना से कहीं न कहीं जुड़ता है. आपके प्रश्न मेरे लिये पुरस्कार के समान हैं.
निम्न दोहों की प्रथम और द्वितीय पंक्तियों में कही गई बातों के बीच कोई तारतम्य ढूँढने में मैं असफल रहा. थोड़ा प्रकाश डालिए तो समझ सकूँ ---

तेज हुई तलवार से, अधिक कलम की धार.
धार सलिल की देखिये, हाथ थाम पतवार..
यहाँ तलवार, कलम तथा पानी की धार की तेजी की चर्चा है कि तलवार की धार से कलम (शब्द) की धार अधिक तेज होती है जबकि पानी की धार की तेजी पतवार से ही अनुमानी जा सकती है. धार शब्द का प्रयोग तलवार की धार, शब्द की मारक शक्ति तथा पानी के बहाव के तेजी के विविधार्थों में किया गया है.
चित कर विजयी हो हँसा, मल्ल जीत कर दाँव.
चित हरि-चरणों में लगा, तरा मिली हरि छाँव..
इस दोहे में 'चित' शब्द के दो अर्थों सीधा पटकना तथा चित्त का प्रयोग है. पहलवान दाँव का सफल प्रयोग कर स्पर्धी को चित पटक कर जीत गया किन्तु भव के पार तो तब जा सका जब प्रभु चरणों में चित लगाया.

खा ले व्यंजन गप्प से, बेपर गप्प न छोड़.
तोड़ नहीं वादा 'सलिल', ले सब जग से होड़..
गप्प=झट से, जल्दी से, झूठी बात.
धो-खा पर धोखा न खा, सदा सजग रह मीत.
डग-मग डग मग पर रहें, कर मंजिल से प्रीत..
यहाँ धोखा तथा डग मग को दो अर्थों में प्रयोग किया गया है.
कली छोड़कर फूल से, करता भँवरा प्रीत.
देख बे-कली कली की, बे-अकली तज मीत..
यहाँ कली और फूल के सामान्य अर्थ तो हैं ही, पुत्री और पुत्र के विशिष्टार्थ भी हैं. यहाँ समासोक्ति अलंकार है. कली की एकाधिक आवृत्ति एक अर्थ में होने से यमक भी है.
इन दोहों में दोनों पंक्तियाँ किसी एक प्रसंग से जुड़ी नहीं हैं.
अलंकारों के प्रयोग में दोनों पंक्तियों का एक प्रसंग से जुड़ा होना अनिवार्य होना मेरी जानकारी में नहीं है.

इस पंक्ति में --
धो-खा पर धोखा न खा, सदा सजग रह मीत..... धोकर खाने और धोखा खाने में कोई सामंजस्य नहीं लग रहा है. या फिर आप कुछ और कहना चाहते हैं ?

इस दोहे की दूसरी पंक्ति का अर्थ नहीं समझ पा रहा हूँ--

सज न, सजन को सजा दे, सजा न पायें यार.

बरबस बरस न बरसने, दें दिलवर पर प्यार.. मुख्यतः "बरस" के प्रयोग का अर्थ नहीं समझ में आ रहा है.

आपसे सविनय निवेदन है कि उक्त पर प्रकाश डालें तो मैं भी दोहों का आनंद ले सकूँ.
इस पंक्ति में --
धो-खा पर धोखा न खा, सदा सजग रह मीत..... धोकर खाने और धोखा खाने में कोई सामंजस्य नहीं लग रहा है. या फिर आप कुछ और कहना चाहते हैं ?

इस दोहे की दूसरी पंक्ति का अर्थ नहीं समझ पा रहा हूँ--

सज-न, सजन को सजा दे, सजा न पायें यार.

सजन के दो अर्थ न सजना तथा प्रिय, सजा के दो अर्थ सज्जित करना तथा दंड देना... यमक तथा श्लेष...


बरबस बरस न बरसने, दें दिलवर पर प्यार.. मुख्यतः "बरस" के प्रयोग का अर्थ नहीं समझ में आ रहा है.

छेकानुप्रास, वृत्यानुप्रास, श्रुत्यानुप्रास, अन्त्यानुप्रास, लाटानुप्रास भी प्रयोग किया गया है.
संभवतः मैं सही विधि से प्रयोग नहीं कर सका हूँ... यहाँ प्रस्तुत करने का उद्देश्य यहे है कि आप जैसे विद्वान कमियाँ-
त्रुटियाँ इंगित करेंगे ताकि सुधार सकूँ.

pratibha_saksena@yahoo.com ने कहा…

Pratibha Saksena ✆
आपके काव्य कौशल की सदा ही प्रशंसक रही हूँ .
बहुत सुन्दर मेल है दोहा और यमक की धमक !
- प्रतिभा सक्सेना

sanjiv salil ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी, अलंकारों से सुसज्जित तमाम दोहें बहुत ही अच्छे लगे|
कृपया मुझे अपन्हुति, पुनरुक्तवदाभास ewam काकु वक्रोक्ति अलंकार के बारे जानकारी दें|
एक बात जरा स्पष्ट करे की इस पंक्ति में कौन सा अलंकार है,
मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज. -भ्रांतिमान (ये आप ने लिखा है)
लेकिन मुझे यहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार प्रतीत हो रहा है| शंका का उचित समाधान करें|
आप का शिष्य
आशीष यादव

sanjiv salil ने कहा…

अपन्हुति, पुनरुक्तवदाभास ewam काकु वक्रोक्ति अलंकार के बारे जानकारी दें|
अपन्हुति : जब उपमेय का निषेध के उपमान का होना कहा जाए.
सुधा सुधा प्यारे नहीं, सुधा अहै सत्संग.
अमृत अमृत नहीं है, सत्संग ही अमृत है.
पुनरुक्तवदाभास : जब अर्थ की पुनरुक्ति दिखाई देने पर भी पुनरुक्ति न हो.
दुलहा बना वसंत, बनी दुल्हन मन भायी.
एक बात जरा स्पष्ट करे की इस पंक्ति में कौन सा अलंकार है,
मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज. -भ्रांतिमान (ये आप ने लिखा है)
लेकिन मुझे यहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार प्रतीत हो रहा है| शंका का उचित समाधान करें|

उत्प्रेक्षा : जब एक वस्तु को दूसरी वस्तु मान लिया जाए.
नेत्र मानो कमल हैं.
वही शब्द फिर-फिर फिरे, अर्थ और ही और.
सो यमकालंकार है, भेद अनेकन ठौर..
रचना के सम्बन्ध में पाठक तभी पूछता है जब वह रचना से कहीं न कहीं जुड़ता है. आपके प्रश्न मेरे लिये पुरस्कार के समान हैं.
निम्न दोहों की प्रथम और द्वितीय पंक्तियों में कही गई बातों के बीच कोई तारतम्य ढूँढने में मैं असफल रहा. थोड़ा प्रकाश डालिए तो समझ सकूँ ---

तेज हुई तलवार से, अधिक कलम की धार.
धार सलिल की देखिये, हाथ थाम पतवार..
यहाँ तलवार, कलम तथा पानी की धार की तेजी की चर्चा है कि तलवार की धार से कलम (शब्द) की धार अधिक तेज होती है जबकि पानी की धार की तेजी पतवार से ही अनुमानी जा सकती है. धार शब्द का प्रयोग तलवार की धार, शब्द की मारक शक्ति तथा पानी के बहाव के तेजी के विविधार्थों में किया गया है.
चित कर विजयी हो हँसा, मल्ल जीत कर दाँव.
चित हरि-चरणों में लगा, तरा मिली हरि छाँव..
इस दोहे में 'चित' शब्द के दो अर्थों सीधा पटकना तथा चित्त का प्रयोग है. पहलवान दाँव का सफल प्रयोग कर स्पर्धी को चित पटक कर जीत गया किन्तु भव के पार तो तब जा सका जब प्रभु चरणों में चित लगाया.

खा ले व्यंजन गप्प से, बेपर गप्प न छोड़.
तोड़ नहीं वादा 'सलिल', ले सब जग से होड़..
गप्प=झट से, जल्दी से, झूठी बात.
धो-खा पर धोखा न खा, सदा सजग रह मीत.
डग-मग डग मग पर रहें, कर मंजिल से प्रीत..
यहाँ धोखा तथा डग मग को दो अर्थों में प्रयोग किया गया है.
कली छोड़कर फूल से, करता भँवरा प्रीत.
देख बे-कली कली की, बे-अकली तज मीत..
यहाँ कली और फूल के सामान्य अर्थ तो हैं ही, पुत्री और पुत्र के विशिष्टार्थ भी हैं. यहाँ समासोक्ति अलंकार है. कली की एकाधिक आवृत्ति एक अर्थ में होने से यमक भी है.
इन दोहों में दोनों पंक्तियाँ किसी एक प्रसंग से जुड़ी नहीं हैं.
अलंकारों के प्रयोग में दोनों पंक्तियों का एक प्रसंग से जुड़ा होना अनिवार्य होना मेरी जानकारी में नहीं है.

इस पंक्ति में --
धो-खा पर धोखा न खा, सदा सजग रह मीत..... धोकर खाने और धोखा खाने में कोई सामंजस्य नहीं लग रहा है. या फिर आप कुछ और कहना चाहते हैं ?

इस दोहे की दूसरी पंक्ति का अर्थ नहीं समझ पा रहा हूँ--

सज न, सजन को सजा दे, सजा न पायें यार.

बरबस बरस न बरसने, दें दिलवर पर प्यार.. मुख्यतः "बरस" के प्रयोग का अर्थ नहीं समझ में आ रहा है.

आपसे सविनय निवेदन है कि उक्त पर प्रकाश डालें तो मैं भी दोहों का आनंद ले सकूँ.
इस पंक्ति में --
धो-खा पर धोखा न खा, सदा सजग रह मीत..... धोकर खाने और धोखा खाने में कोई सामंजस्य नहीं लग रहा है. या फिर आप कुछ और कहना चाहते हैं ?

इस दोहे की दूसरी पंक्ति का अर्थ नहीं समझ पा रहा हूँ--

- pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी

सन्दर्भ : "अलंकारों के प्रयोग में दोनों पंक्तियों का एक प्रसंग से जुड़ा होना अनिवार्य होना मेरी जानकारी में नहीं है."

जिज्ञासावश पूछ रहा हूँ अपने ज्ञान वर्धन के लिए. इसलिए भी पूछ रहा हूँ क्योंकि दोहा मेरी सबसे पसंदीदा छंद विधाओं में से एक है. "अर्द्ध नाराच" और "हरिगीतिका" के बाद यह मुझे यह सबसे सुन्दर छंद लगता है. क्या किसी भी प्रतिष्ठित साहित्यकार का कोई भी एक ऐसा दोहा है जिसमे दोनों पंक्तियाँ एक प्रसंग से जुडी न हों (चाहे अलंकारों का प्रयोग हो या न हो) ? क्या कोई भी ऐसा दोहा लिखा गया है जिसमें दो अलग अलग बातें कही गई हों जिनका एक दूसरे के साथ कोई भी सम्बन्ध न हो ?

सादर

sanjiv salil ने कहा…

प्रताप जी!
यदि ये दोहे नहीं हैं तो इन्हें क्या कहा जाए? आप ही बतायें...