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मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

लघुकथा: काल की गति --संजीव 'सलिल'

लघुकथा: काल की गति संजीव 'सलिल' * 'हे भगवन! इस कलिकाल में अनाचार-अत्याचार बहुत बढ़ गया है. अब तो अवतार लेकर पापों का अंत कर दो.' - भक्त ने भगवान से प्रार्थना की. ' नहीं कर सकता.' भगवान् की प्रतिमा में से आवाज आयी . ' क्यों प्रभु?' 'काल की गति.' 'मैं कुछ समझा नहीं.' 'समझो यह कि परिवार कल्याण के इस समय में केवल एक या दो बच्चों के होते राम अवतार लूँ तो लक्ष्मण, शत्रुघ्न और विभीषण कहाँ से मिलेंगे? कृष्ण अवतार लूँ तो अर्जुन, नकुल और सहदेव के अलावा कौरव ९८ कौरव भी नहीं होंगे. चित्रगुप्त का रूप रखूँ तो १२ पुत्रों में से मात्र २ ही मिलेंगे. तुम्हारा कानून एक से अधिक पत्नियाँ भी नहीं रखने देगा तो १२८०० पटरानियों को कहाँ ले जाऊंगा? बेचारी द्रौपदी के ५ पतियों की कानूनी स्थिति क्या होगी? भक्त और भगवान् दोनों को चुप देखकर ठहाका लगा रही थी काल की गति. *****

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