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मंगलवार, 29 नवंबर 2011

मुक्तिका: .... बना लेते --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका: .... बना लेते संजीव 'सलिल' * न नयनों से नयन मिलते न मन-मंदिर बना लेते. न पग से पग मिलाते हम न दिल शायर बना लेते.. तुम्हारे गेसुओं की हथकड़ी जब से लगायी है. जगा अरमां तुम्हारे कर को अपना कर बना लेते.. यहाँ भी तुम, वहाँ भी तुम, तुम्हीं में हो गया मैं गुम. मेरे अरमान को हँस काश तुम जेवर बना लेते.. मनुज को बाँटती जो रीति उसको बदलना होगा. बनें मैं तुम जो हम दुनिया नयी बेहतर बना लेते.. किसी की देखकर उन्नति जला जाता है जग सारा. न लगती आग गर हम प्यार को निर्झर बना लेते.. न उनसे माँगना है कुछ, न उनसे चाहना है कुछ. इलाही! भाई छोटे को जो वो देवर बना लेते.. अगन तन में जला लेते, मगन मन में बसा लेते. अगर एक-दूसरे की ज़िंदगी घेवर बना लेते.. अगर अंजुरी में भर लेते, बरसता आंख का पानी. 'सलिल' संवेदनाओं का, नया सागर बना लेते.. समंदर पार जाकर बसे पर हैं 'सलिल'परदेसी. ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते.. ******** Acharya Sanjiv verma 'Salil' http://divyanarmada.blogspot.com http://hindihindi.in

सोमवार, 28 नवंबर 2011

स्मरण : बच्चन --अमिताभ बच्चन द्वारा मधुशाला गायन:


स्मरण : बच्चन -- प्रो. ए. अच्युतन



स्मरण : बच्चन 

लोकधर्मी कवि हरिवंशराय बच्चन


- प्रो. ए. अच्युतन, हिन्दी विभाग, कालिकट विश्वविद्यालय, कालिकट (केरल)

प्रवासी दुनिया.कॉम से प्रसिद्ध रचनाकार बच्चन जी की जयन्ती 27 नवंबर पर साभार प्रस्तुत हैं निम्न लेख:

आधुनिक हिन्दी कविता की हालावादी प्रवृत्ति के सूत्रधार हरिवंशराय बच्चन की काव्य यात्रा प्रेमी से श्रद्धालु तक की यात्रा है। बच्चन की काव्य प्रवृत्ति लोकमानस से शुरू होकर जनमानस और मुनिमानस तक यात्रा करती है। लोकमानस से ही लोक साहित्य एवं कला अनेक संभावनाओं के साथ उपजते हैं। लोकमानस से मुनिमानस तक की यात्रा का विकास एक तरह से मनुष्य की कलाभिव्यक्ति या संस्कृति के ही इतिहास का सार है। लोक साहित्य में मानव के सुख-दुख की सहज, स्वाभाविक और अकृत्रिम अभिव्यक्ति ही होती हैं। लोक जो कुछ कहता है, सुनता है, उसे समूह की वाणी बनकर ही कहता है, सुनता है। लोक साहित्य के इस सामूहिक पक्ष को बच्चनजी ने अपने काव्य का मूल मंत्र बनाया है। इसी आधार पर बच्चन के काव्य में लोक तत्व के विभिन्न पक्षों पर विचार करना हमारा अभीष्ट है।
वस्तुत: बच्चनजी का काव्य व्यक्तिनिष्ठ है, लेकिन उनके काव्य के प्राण में जो प्रेम तत्व है, जीवन तत्व है, भाव तत्व है, वह अकेले बच्चनजी की ही नहीं, जन-जन की संपदा है, लोक संपत्ति है। अत: बच्चन का काव्य और उनके गीत जन-जीवन में समा जाने की अपूर्व क्षमता रखते हैं। बच्चन की अनुभूतियां मानवीय हैं। देश, काल के घेरे में उन्हें नहीं बांध सकते। सहजता, सरलता, नैसर्गिकता, गेयता आदि गुण लोकतत्व के अंतर्गत आ सकते हैं। लोकतत्व संबंधी अवधारणा अधिकतर बच्चन के गीत संबंधी विचारों में स्पष्ट हो जाती है क्योंकि गीत शैली लोक से ही आयी है – उनका मानना है कि – गीत की अपनी इकाई होती है – भावों विचारों की और एक हद तक अभिव्यक्ति के उपकरणों की भी… प्रत्येक गीत को सर्वस्वतंत्र अपराश्रित और अपने में ही पूर्ण मानकर प्राय: पढ़ा, गाया जाता है और उसका रस लिया जाता है। (आरती और अंगारे – भूमिका पृ. 11) गीत समाप्त हो जाने पर उसकी गूंज श्रोता के कानों में बस जाए और बहुत सी अनुगूंजों को जगाए। जगजीवन की विभिन्न हलचलों के बाद वह ध्यान से भले ही उतर हो जाय पर सहसा यदि उसकी याद आ जाए तो वह अपने पूरे आवेग से फिर गूंज उठे। (प्रणय पत्रिका – भूमिका – पृ. 11-12) गीत वह है जिस में भाव-विचार-अनुभूति-कल्पना, एक शब्द में कथ्य की एकता हो और उसका एक ही प्रभाव हो। (त्रिभंगिमा – भूमिका – पृ. 91) उपर्युक्त कथनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि बच्चन की गीत संबंधी धारणा लोक मानस के आधार पर है। अत: स्वाभाविक और गीतात्मक है।
ताल-लय समन्वय लोकतत्व का आत्मस्वरूप : संगीत दिल की भाषा है। ताल-लय के बिना गीत या संगीत नहीं है। ताल-लय प्रकृत्ति की हर वस्तु में खोजा जा सकता है। इस ताल-लय समन्वय ने ही प्रकृत्ति को संतुलित बना रखा है। हमारे पूर्वजों ने अपने निरीक्षण बल पर इसी तथ्य को जान लिया था। इसीलिये ताल-लय समन्वय लोक का आत्मस्वरूप बन गया। ताल-लय सन्तुलन बिगड़ने से ही प्रकृत्ति में कई तरह के विनाश या ताण्डव जैसे बाढ़, तूफान, लावा, सुनामी आदि घटते हैं। ‘लोक’ ने जान लिया कि ऋतु संतुलन बनाये रखने के लिये ताल-लय (शिव-शक्ति – पुरूष-स्त्री) का संयोग सही अनुपात में बना रहना जरूरी है। तुलसी के समन्वय, प्रसाद के समरसता आदि सिद्धांतों का यही लोकाधार है। बच्चनजी ने अपनी रचनाओं में इसी समन्वय को बनाये रखने का प्रयास किया है चाहे वह सामाजिक पक्ष की दृष्टि से हो या वैयक्तिक दृष्टि से या काव्य की दृष्टि से। बच्चन ने यह महसूस किया कि सामाजिक विषमता,र् ईष्या, द्वेष की भावना को पैदा करने वाले ऊंचे परिवार के ही लोग, महलों में रहने वाले जो मानवता पर क्रूर, कठोर, अमानवीयता का व्यवहार करते हैं और लाखों करोड़ों गरीब असहायों का खून चूसकर स्वयं आराम से जीवन बिताते हैं – तभी मधुशाला की कवि ने अपनी आवाज समानता-समन्वय के लिये बुलन्द की।
बड़े बड़े परिवार मिटे यों
एक न हो रोनेवाला
हो जाए सुनसान महल वे
जहां थिरकती सुरबाला
राज्य उलट जाएं भूपों की
भाग्य-सुलक्ष्मी सो जाए
जमें रहेंगे पीने वाले
जगा करेगी मधुशाला।
समाज में निरंतर भेद भाव की भावना उग्र रूप धारण कर रही थी। ऊंच-नीच छुआछूत का बोलबाला था। इसलिये समाज की असंगठित शक्ति, एकता नष्ट हो रही थी। इसलिये बच्चन ने अपनी मधुशाला के लिये कहा है -
भूसुर-भंगी सभी यहां पर
साथ बैठकर पीते हैं
सौ सुधारकों का करती है
काम अकेली मधुशाला।
उन्होंने प्रणय गीत, राष्ट्रीय गीत, नवगीत, लोक आधारित गीत आदि तरह तरह के गीत लिखे हैं। बच्चन के गीतों में जो गति है, प्रवाह है वह स्वाभाविक रूप से आया है क्योंकि उसके भाव और लय लोक के करीब है – इन गीतों में स्वर संगीत की अपेक्षा शब्द संगीत विद्यमान रहता है। स्वर तथा व्यंजनों की संगति से अर्थ व्यंजक तथा नाद व्यंजक पंक्तियां बच्चन के गीतों में प्रचुर मात्रा में मिलती है -
चांदनी रात के आंगन में
कुछ छिटके-छिटके से बादल
कुछ सपनों में डूबा-डूबा,
कुछ सपनों में उमगा उमगा।
(मिलन भामिनी – गीत – 13)
बच्चन के गीतों में भावपक्ष प्रबल है। अनुभूति की सत्यता की लोकधर्मिता शब्द-शब्द से टपकती है। बच्चन का प्रेमी हृदय सदैव अपनी भावुकता और कल्पना को काव्य में प्रकट करता रहा है। मार्मिकता के कारण आपका काव्य लोकप्रिय बन गया है। कवि अपनी प्रेमानुभूति को प्राकृतिक व्यापारों में संश्लिष्ट करते हुए प्रकट करता है -
प्राण संध्या झुक गयी गिरि ग्राम तरु पर
उठ रहा है क्षितिज के ऊपर सिंदूरी चांद
मेरा प्यार पहली बार लो तुम
हम किसी के हाथ में साधन बने हैं
सृष्टि की कुछ मांग पूरी हो रही है।
गीत की प्राणमयता संक्षिप्तता में निहित है। बच्चन के गीतों की संक्षिप्तता में उनके हृदय की गंभीरता भी भरी पड़ी है -
कोई पार नदी के गाता
भंग निशा की नीरवता कर
इस देहाती गाने का स्वर
ककड़ी के खेतों में उठकर
आज जमुना पर लहराता
आज न जाने क्यों होता मन
सुनकर यह एकाकी गायन
सदा इसे मैं सुनता रहता
सदा इसे यह गाता जाता
कोई पार नदी के गाता।
(निशानिमंत्रण – गीत 25)
लोकगीत शैली
लोकगीत अतिवार्यत: वस्तुव्यंजक होता है। लोकगीत लोककाव्य ही है। इस शैली में श्रमसाध्य कलात्मकता (नाटयधर्मिता) नहीं होती। विचारों की सरलता, नैसर्गिक भावाभिव्यक्ति आदि गीतों के गुण अतीत के मानव समाज से जोड़ देते हैं। इसमें प्रयुक्त उपमान शब्द व्यावहारिक जीवन से गृहित होते हैं। सीधे सादे सरल एवं गेय होते हैं। आज के संगर्भ में गीत का सर्वाधिक महत्व है। लोकगीत की सत्ता ढूंढते आलोचक सुरेश गौतम ने गीत को हमारे समूचे सांस्कृतिक जीवन की रीढ़ स्वीकार कर बताया कि – ‘यदि हमें मानवता को पुनर्जीवित करना है तो गीत को पहचानना होगा। लोक मानस की तरंगों को अपनाना होगा। गीत के वैराटय बोध को समयानुकूल मानव कसौटियों पर मानव की बुनियादी वृत्तियों के साथ कसना होगा। बुद्धि और हृदय के बीच सेतु संकल्पों को वृक्ष धर्म बनना होगा।’ यह कहा जा सकता है कि मानवता के अभ्युत्थान का सारा बोझ शायद आज गीत के ही कंधों पर है। गहरे में यदि सोचें तो यही सत्य अभरेगा कि गीत ही वह प्रथम भावनेता है जो मनुष्य को जगाकर उसके विकास का प्रयत्न करता है। मानवता की सभ्यता का अभिव्यक्ति रूप गीत है। मानवता को हर गीत में जगाया है, वह वेद में हो, कुरान में हो, बाईबिल में हो, गुरू ग्रंथ साहिब में हो अथवा लोकगीत में। (लोकगीत की सत्ता – सु. गौतम – शब्द सेतु पृ. 41)
बच्चन के दो काव्य संग्रहों में विशेषकर ‘त्रिभंगिमा’ और ‘चार खेमे : चौंसठ खूंटे’ में लोकगीत शैली का प्रयोग किया गया है। भाषा खड़ी बोली हिन्दी है पर शब्द विन्यास ऐसा है कि गीत की सरलता साकार हो जाती है। त्रिभंगिमा का प्रथम गीत ‘नैया जाती’ है। यह उत्तर प्रदेश की एक लोकधुन पर आधारित है। (बच्चन का साहित्य : काव्य और शिल्प, डॉ. जयप्रकाश भाटी – पंछी प्रकाशन, जयपुर)
‘चढ़ना हो, चढ़ना हो जि चढ़ जाय, नैया जाती है।
चंदन की यह नाव बनायी कोमल कमल दलों से छायी
फूलों की झालर लटकाई, रेशम के है पाल, छटा छहराती है।
ये खोजेंगे अलख परी का’ -
यहां नौका की रचना और सजना लोकमानस के अनुरूप है। नौका चंदन से बनी है, कोमल कमलों से छाई है, फूलों की झालर से सजी है। उसका विस्तार इतना है कि मस्तूल गगन को छूता है और बांस नदी की धड़कन को नापता है। नौका अमर पुरी जाएगी और अलख-परी को खोजेगी। लोकधुनों व लोकगीत शैली पर आधारित इन गीतों के प्रति बच्चन का यह आग्रह स्पष्ट है। बच्चन के अधिकांश गीत ऐसे हैं जिन में परंपरा-मुक्त लोकगीतों की भांति कोई कहानी चलती है और मिलन व्यापार के पश्चात् किसी निष्कर्ष के साथ समाप्त हो जाती है। सोन मछरी, गंधर्व ताल, आगाही और नीलपरी ऐसी रचनाएं हैं जो लघुकथानक को लेकर आगे बढ़ती है। सोन-मछरी में एक स्त्री पुरूष से सोन मछरी लाने का आग्रह करती है लेकिन वह सोने की परी ले आता है और वह कहती है – जो मनुष्य कंचन में आसक्त है, वह प्यार नहीं दे सकता – सिर्फ पीड़ा ही दे सकता है – पूर्ण रूप से लोकानुरूप यह गीत बच्चन की गीत रचना में प्रयोग का ही परिणाम है।
वास्तव में प्रत्येक कवि किसी न किसी क्षण में लोकगीत का आश्रय लेता है, जो स्वाभाविक प्रक्रिया है क्योंकि कवि भाव का ही आविष्कार करता है और भाव लोकधर्मी है। कुछ लोकगीतों में बच्चन ने समाज के उन मूल्यों को स्पर्श किया है जिनमें जन की अपेक्षा धन को अधिक महत्व दिया जाता है -
आज महंगा है सैंया रुपैया बेटी न प्यारी
बेटा न प्यारा, प्यारा है सैंया रुपैया
(चार खेमे)
लोकगीत शैली के इन गीतों में सामाजिक यथार्थ का भी चित्रण किया गया है। ‘माटी’ तथा ‘गगन’ प्रतीकों के माध्यम से ‘कड़ी मिट्टी’ निष्क्रिय दलित वर्ग तथा शोषित वर्ग की बात इसका प्रमाण है।
मैं इस माटी तोडूंगा, ऐसे तो न इसे छोड़ूगा
इसे दूंगा, इसे दूंगा परीने की धार
(त्रिभंगिमा)
‘माटी की महक’ में समाज के संदर्भ में जीवन के औचित्य को स्वर मिला है -
जिसे माटी की महक न भाए उसे नहीं जीने का हक है
(त्रिभंगिमा)
ये पंक्तियां हमेशा के लिये प्रासंगिक इसलिये हैं कि ये पूर्ण रूप से लोक दृष्टि पर आधारित हैं। आंचलिकता ‘लोक’ की अपनी संस्कृति के साथ जुड़ी हुई चीज है। ‘हरियाने की लली’ तथा ‘बीकानेर का सावन’ में लोक संस्कृति की सही पहचान मिल सकती है -
आई है दिल्ली की नगरिया में हरियाने की लली
देशों में प्रदेश हरियाना, जिस में दूध दहि का खाना
माटी के मथने से जैसे लबनी-सी-निकली।
(चार खेते)
इस तरह लोक के जीवन रीति, आचार, विचार, आचंलिक स्वभाव तथा सोचने का ढंग आदि के अनुकूल बच्चन के गीत हिन्दी के लोकगीत परंपरा में एक नया प्रयोग कहे जा सकते हैं। अत: हम कह सकते हैं कि बच्चन गीत या कविता लिखने वाले कवि नहीं, बल्कि कविता कहे जाने वाले, कविता के हाथों पूरी तरह समर्पित कवि हैं। उनके काव्य और जीवन दोनों में रास्ता मनुष्य या लोक की ओर ले जाने वाला रास्ता है। क्योंकि बच्चन जी पहले आदमी हैं फिर कवि। तभी बच्चन का कवि आदमियत को अपनाए रहता है और आदमियत में रहकर ही आदमियत की कविता करता रहता है। इसीलिये, शायद बच्चन की कविता में न शब्दों को खिलवाड़ मिलता है – न पांणित्यपूर्ण प्रदर्शन – न गहर गुरु गंभीर निनाद – न चमत्कार – न चीत्कार – न अलंकार – न व्यर्थ का वाग्विचार – न आत्म-दोहरन – न दुराग्रह (केदारनाथ अग्रवाल – बच्चन निकट से – पृ. 53)। असल में बच्चन लोक के कवि हैं, लोकधर्मी कवि हैं क्योंकि उनकी रचनाओं में लोक तत्व ही भरे पड़े हैं।






स्मरण : डॉ. हरिवंश राय बच्चन

स्मरण : डॉ. हरिवंश राय बच्चन



 
आज का युवा ट्विटर और फेसबुक के मायाजाल में फंसता चला जा रहा है। किताबों से दूरी बढ़ गई है। आधुनिक समाज में इसके यंत्रो और तंत्रो से मुक्ति का प्रयास भी हास्यास्पद लगता है।  हरिवंश राय बच्चन जी का भी यही मानना था कि काल और स्थान के दिखाए अनगिनत रास्तों में से एक चुनकर बेधड़क बढ़ते चले जाओं, ‘मधुशाला’ यानी मंजिल मिल जाएगी पर जब सब एक हीं रास्ते पर बढ़ते चले जाए तो एकरसता और सामाजिक रंगों में कमी का डर सदैव बना रहता है। अगर ऐसा हुआ तो फिर कोई हरिवंशराय बच्चन इस भारत भूमि पर जन्म नहीं लेगा। बच्चन जी की १०४ वीं जयन्ती के अवसर पर ''प्रवासी दुनिया'' द्वारा प्रस्तुत सामग्री आभार सहित दिव्य नर्मदा के पाठकों के लिये  पुनर्प्रस्तुत की जा रही है ।

हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य रचनाकार श्री हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को  इलाहाबाद के एक मध्यम-वर्गीय परिवार में २७ नवम्बर १९०७ को जन्मे श्री हरिवंश राय बच्चन ने १९२९ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधी प्राप्त की और फिर जल्द ही उनका ध्यान स्वतंत्रता के लिये चल रहे संघर्ष ने भी खींचा। कुछ समय पत्रकारिता में बिताने के बाद उन्होनें एक स्थानीय अग्रवाल विद्यालय में अध्यापक की नौकरी कर ली। अध्यापन के काम के साथ-साथ वे पढाई भी करते रहे और एम.ए. तथा बी.टी की उपाधियां प्राप्त की।

उन्होनें इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शोधकर्ता के रूप में कार्य आरम्भ किया और १९४१ में अंग्रेज़ी साहित्य में लैक्चरर का पद संभाल लिया। कुछ समय के बाद उन्होने विश्वविद्यालय से छुट्टी ली और ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय चले गये। वहां उन्होने “डब्ल्यू. बी. यीट्स और आकल्टिज़म” नामक विषय पर शोध किया और १९५२ में अंग्रेज़ी साहित्य में पी. एच. डी. की उपाधी प्राप्त की। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में पी. एच. डी. की उपाधी प्राप्त करने वाले वह प्रथम भारतीय थे। भारत वापस लौट कर कुछ समय के लिये उन्होने आल इंडिया रेडियो के साथ निर्माता के तौर पर काम किया। फिर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के आग्रह पर १९५५ में श्री बच्चन विदेश मंत्रालय के हिन्दी विभाग से जुड गये। यहां उन्होनें अंग्रेज़ी में लिखे आधिकारिक दस्तावेजो का हिन्दी में अनुवाद करने का काम प्रारम्भ किया और इस काम को वे अपनी सेवानिवृत्ती तक करते रहे।

आलोचनाओ की परवाह किये बिना, बच्चन जी ने लेखन का काम जारी रखा। उनके समक्ष बहुत सी कठिनाईयां आयीं। उनके सामने वित्तीय समस्याएं थी और वे बहुत अकेलापन अनुभव करते थे -जो कि उनकी पहली पत्नी श्यामा के असमय देहांत के कारण और भी बढ गया था। लेकिन जब उन्होने तेजी सूरी के साथ विवाह किया तो उनका जीवन ही बदल गया। बच्चन जी ने यह भी स्वीकार किया की इस विवाह के बाद उनका काव्य भी बदला। उनका रचनात्मक कार्यकाल, जो १९३२ में आरम्भ हुआ और १९९५ तक चला, एक ६३ वर्ष लम्बी साहित्यिक यात्रा था।

“तेरा हार” उनकी कविताओं का पहला संकलन था। १९३५ में “मधुशाला” के प्रकाशन के बाद एक प्रमुख हिन्दी कवि के रूप में उनकी प्रतिष्ठा मज़बूती के साथ स्थापित हो गयी थी। १९३५ की एक शाम जब उन्होने मधुशाला की रूबाइयों का श्रोताओ के एक विशाल समूह के सामने पाठ किया तो वह हिन्दी काव्य के क्षितिज पर एक चमकते हुए सितारे के रूप में उभरे। मधुशाला की रूबाइयां, असंख्य दुख सहे चुके एक नौजवान के हृदय से निकली करुण पुकार थी।

बच्चन जी की काव्य शैली

उमर खैय्याम की रूबाइयत का असर मधुशाला के अलावा उनकी दो और लम्बी कविताओं पर दिखा। १९३६ में “मधुबाला” और १९३७ में “मधुकलश” के प्रकाशन के साथ ही तीन पुस्तको की यह श्रृंखला पूरी हुई। इन तीनो ही कविताओं में यह संदेश छुपा था कि सांसारिक इच्छाएं, लालच, धार्मिक असहिषुण्ता और नैतिकता जैसी चीज़ों का कोई अर्थ नहीं है। बच्चन जी ने इन कविताओ के ज़रिये नैतिकतावादियों को चुनौती दे कर हिन्दी काव्य में एक नई राह की शुरुआत की।

श्यामा की अकाल मृत्यु ने उनकी मानसिकता पर एक गहरा असर छोडा और उनकी सभी आशाओं और स्वपनों को चूर-चूर कर दिया। उनका यह गहरा दुख और निराशा “निशा निमन्त्रण” के माध्यम से व्यक्त हुई जो उनकी सौ कविताओं का १९३८ में प्रकाशित एक संग्रह था। इस संग्रह में बच्चन जी ने अपनी एक अलग शैली विकसित करने का प्रयत्न किया। परम्परागत छ: और आठ पन्क्तियों के पद्य के स्थान पर उन्होनें १३ पन्क्तियों के पद्य का प्रयोग किया। अकेलेपन के क्रंदन से आरम्भ हो कर इन कविताओ का समापन एक आश्वासन के साथ होता है। यह कविताएं मुख्यत: निराशा रूपी अंधकार से जुडी हैं जिनमें प्रकाश को आशा के प्रतिमान के रूप में प्रयोग किया गया है। इन रचनाओं में कवि ने अपने अंतर्मन के भावों को बाहरी संसार के प्रतिमानो के रूप में प्रकट किया है। इसीलिये बहुत से प्रतीकों का भी प्रयोग हुआ है। माथुर जी के शब्दों में “निशा निमन्त्रण हमेशा ही एक मन को छू लेने वाली दुख और व्यथा की रचना बनी रहेगी।”

“निशा निमन्त्रण” के बाद बच्चन जी ने “एकांत संगीत” को १९३८-३९ के उस समय में लिखा जब वह घोर मानसिक यातना के दौर से गुज़र रहे थे। “एकांत संगीत” की पन्क्तियां उनके संवेदनशील मन और दुखो से भरे उस समय को चित्रित करती हैं। यह संग्रह उनकी काव्य प्रतिभा के शिखर को दर्शाता है। कवि ने लिखा कि “निशा निमन्त्रण” के अंधकार ने उन्हें “एकांत संगीत” सुनने के लिये प्रेरित किया और इस संगीत ने उन्हे “आकुल अंतर” (सन १९४३) लिखने की प्रेरणा दी। “आकुल अंतर” के प्रकाशन के साथ ही उनकी काव्य यात्रा का एक चरण पूरा हो गया।

बंगाल में भुखमरी से आहत मन

“सतरंगिनी” का प्रकाशन १९४५ में हुआ। १९४३ में बंगाल में भुखमरी के हालात पैदा हो गये थे और इससे द्रवित हो बच्चन जी अपनी पहले की सोच से हट कर लिखने लगे। मानवीय समस्याओं से उनके काव्य के इस जुडाव के फ़लस्वरूप १९४६ में “बंगाल का कल” नामक संग्रह प्रकाशित हुआ। भूपेन्द्रनाथ दास ने इस संकलन का सन १९४८ में बंगाली भाषा में अनुवाद किया। जनता की समस्याओं और अपने निजी दु:ख की छांह तले उन्होनें १९४६ में ही “हलाहल” का प्रकाशन किया।

प्रसन्नता के भाव

१९५० के दशक में बच्चन जी ने अपने काव्य में लम्बे समय के बाद प्रसन्नता के भावो को व्यक्त किया। उन्होनें १९५० में “मिलन यमिनी” और १९५५ में तुलसीदास की विनय पत्रिका के नाम पर आधारित “प्रणय पत्रिका” की रचना की। १९५७ में “घर के इधर उधर” नामक संकलन में उन्होने अपने वंश के गौरव को दर्शाने का प्रयत्न किया और १९५७ में छपे संकलन “आरती और अंगारे” में उन्होनें व्यक्ति के उसकी विरासत की ओर लौटने की चर्चा की।

अपने बाद के प्रकाशनों में उन्होने अकेलेपन और अस्तित्व की उद्देश्यहीनता से होते हुए जीवन की छोटी छोटी प्रसन्नताओं तक पहुचनें का संदेश दिया। सन १९५८ में “बुद्ध और नाचघर” के प्रकाशन के बाद उनकी लेखन शैली में एक बार फिर से बदलाव आया। स्वंय बच्चन जी के अनुसार “बुद्ध और नाचघर” उनके लेखन में एक मील का पत्थर था। इसमें वह अपने चारो ओर के समाज में पनप रहे क्रोध को व्यक्त करने में सक्षम हुए थे। “त्रिभंगिमा”, “चार खेमे चौसठ खूंटे”, “रूप और आवाज़” और “बहुत दिन बीते” नामक संकलनो में उन्होने लोक-कथाओं की भाषा के साथ प्रयोग कई किये।

दो चट्टानें

१९६५ में छपी “दो चट्टानें” नामक पुस्तक में ५३ कविताएं थी जिन्हें बच्चन जी ने १९६२ से १९६४ के बीच लिखा था। इस संकलन को १९६८ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बहुत सी अन्य कविताओं के अलावा इस संकलन की शीर्षक कविता बहुत महत्वपूर्ण थीं। इसमें बच्चन जी ने जीवन के दो दृष्टिकोणो को सिसिफ़स (यूनानी धर्मकथाओं के एक पात्र) और हनुमान के उदाहरण ले कर व्यक्त किया था। सिसिफ़स और हनुमान, दोनो ही अमरता पाना चाहते थे (या उन्होने अमरता पाई थी) परन्तु इसे पाने के लिये दोनो के रास्ते अलग अलग थे। जहां सिसिफ़स ने २०वीं सदी के विश्वासहीन पश्चिमी मानसिकता वाले मानव को चरितार्थ किया वही हनुमान ने अमरता को भक्ति, अटूट विश्वास और मानवता के ज़रिये हासिल किया था।
सदी के सातवें दशक में बच्चन जी ने कविताओं के माध्यम से और भी बहुत से मुद्दो पर अपने विचार व्यक्त किये। इन मुद्दो में चीन का भारत पर आक्रमण, पंडित नेहरु का देहांत, युवाओं में बढते क्रोध, उनकी स्वंय की बढती आयु और तात्कालिक सहित्य इत्यादी शामिल थे।

हिन्दी लेखको के लेखन पर सत्याग्रह के और उसके बाद के दशको में महात्मा गांधी का बहुत प्रभाव पडा। बच्चन जी भी इससे अछूते नहीं रहे। सुमित्रानंदन पंत के साथ मिल कर बच्चन जी ने महात्मा गांधी के बारे में कविताओं का एक संकलन प्रकाशित किया। १९४८ में छपे “खादी के फूल” नामक इस संकलन में बच्चन जी की ९३ कविताएं और पंत जी की १५ कविताएं थी। दोनो ही कवियों ने इन कविताओं के माध्यम से महात्मा गांधी को अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किये थे। इसके अलावा, बच्चन जी ने “सूत की माला” शीर्षक से एक और संकलन प्रकाशित किया जिसमें उन्होने गांधी जी की मृत्यु पर अपना शोक व्यक्त किया। ये दोनो ही पुस्तकें बहुत अधिक महत्व की हैं।

एक ऐसे परिवार से होने के कारण जो की अपनी फ़ारसी भाषा की विद्वत्ता और वैष्णव धर्म को मानने के लिये जाना जाता था -बच्चन जी की कविताओं में संस्कृत, फ़ारसी और अरबी भाषाओं का सुंदर संगम देखने को मिलता है। कबीर, कीट्स, टैगोर, शेक्सपीयर और उमर खैय्याम का प्रभाव उनके पूरे काव्य पर देखा जा सकता है। उन्होनें शेक्सपीयर के “मैकबेथ” और “आथेलो” का हिन्दी में अनुवाद भी किया। इसके अलावा उन्होने ६४ रूसी कविताओं और डब्ल्यू. बी. यीट्स की १०१ कविताओं का भी हिन्दी में अनुवाद किया। रूसी कविताओं के हिन्दी अनुवाद के लिये उन्हें १९६६ में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
बच्चन जी ने श्रीमद भगवदगीता का अवधी भाषा में “जनगीता” (१९५८) और आधुनिक हिन्दी में “नागरगीता” (१९६६) नाम से अनुवाद किया। उनकी कुछ चुनी हुई कविताओं का अनुवाद भी कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में हो चुका है। इसके अलावा उन्होनें निबंध, यात्रा-वर्णन इत्यादी का लेखन किया और अपने तथा अन्य कई कवियों के काव्य संकलनों का संपादन भी किया। हिन्दी सिनेमा में भी उन्होने यश चोपडा की फ़िल्म सिलसिला (१९८१) के लिये “रंग बरसे” और फ़िल्म आलाप (१९७७) के लिये “कोई गाता मैं सो जाता” जैसे लोकप्रिय गीत लिख कर अपना योगदान दिया।

गद्य लेखन में बच्चन जी की महान उपलब्धि उनकी चार खंडो में प्रकाशित आत्मकथा है।

पुरस्कार

बच्चन जी को अपने जीवन में बहुत से पुरस्कार और सम्मान मिले। उनमें से कुछ प्रमुख हैं:
साहित्य अकादमी पुरस्कार
सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार
पद्म भूषण (१९७६)
सरस्वती सम्मान (के.के. बिरला फ़ाउंडेशन द्वारा दिया जाने वाला यह सम्मान प्रथम बार बच्चन जी को ही दिया गया था)
एफ़्रो-एशियन राइटर्स कांफ़्रेंस लोटस पुरस्कार
सदस्यता

भारत के राष्ट्रपति द्वारा १९६६ में राज्यसभा के लिये मनोनीत
हिन्दी सलाहकार मंडल, साहित्य अकादमी, की सदस्यता (१९६३-६७)
भारतवर्ष ने हिन्दी भाषा का यह महान कवि १८ जनवरी २००३ को खो दिया। बच्चन जी का देहांत ९६ वर्ष की आयु में सांस की तकलीफ़ के कारण हुआ। मुंबई में उनकी अंतिम यात्रा में हज़ारो लोगो ने हिस्सा लिया।

रचना संसार :

तेरा हार (1932)
मधुशाला (1935)
मधुबाला (1936)
मधुकलश (1937)
निशा निमंत्रण (1938)
एकांत संगीत (1939)
आकुल अंतर (1943)
सतरंगिनी (1945)
हलाहल (1946)
बंगाल का काव्य (1946)
खादी के फूल (1948)
सूत की माला (1948)
मिलन यामिनी (1950)
प्रणय पत्रिका (1955)
धार के इधर उधर (1957)
आरती और अंगारे (1958)
बुद्ध और नाचघर (1958)
त्रिभंगिमा (1961)
चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962)
दो चट्टानें (1965)
बहुत दिन बीते (1967)
कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968)
उभरते प्रतिमानों के रूप (1969)
जाल समेटा (1973) 

विविध
बचपन के साथ क्षण भर (1934)
खय्याम की मधुशाला (1938)
सोपान (1953)
मैकबेथ (1957)
जनगीता (1958)
ओथेलो(1959)
उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959)
कवियों के सौम्य संत: पंत (1960)
आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960)
आधुनिक कवि (1961)
नेहरू: राजनैतिक जीवनचित्र (1961)
नये पुराने झरोखे (1962)
अभिनव सोपान (1964)
चौसठ रूसी कविताएँ (1964)
डब्लू बी यीट्स एंड औकल्टिज़्म (1968)
मरकट द्वीप का स्वर (1968)
नागर गीत) (1966)
बचपन के लोकप्रिय गीत (1967)
हैमलेट (1969)
भाषा अपनी भाव पराये (1970)
पंत के सौ पत्र (1970)
प्रवास की डायरी (1971)
1972)
टूटी छूटी कड़ियाँ(1973)
मेरी कविताई की आधी सदी (1981)
सोहं हँस (1981)
आठवें दशक की प्रतिनिधी श्रेष्ठ कवितायें (1982)
मेरी श्रेष्ठ कविताएँ (1984)

आत्मकथा / रचनावली 
क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969)
नीड़ का निर्माण फिर(1970)
बसेरे से दूर (1977)
दशद्वार से सोपान तक (1965)
बच्चन रचनावली के नौ खण्ड (1983)

***** 

शनिवार, 26 नवंबर 2011

गीत: चिंतन कर..... -- संजीव 'सलिल'

गीत:
चिंतन कर.....
संजीव 'सलिल'
*
चिंतन कर, चिंता मत कर मन
उन्मत मत हो आज.
विचार गगन में, डूब समुद में-
जी भर काज-अकाज...
*
जीवन पल्लव, ओस श्वास-तन
पल में होते नष्ट.
संचय-अर्जन काम न आता-
फेटा खुद को कष्ट..
जो पाता वह रहे लुटाता
दोनों हाथ कबीर.
मन का राजा कहलाता है
खाली हाथ फकीर..
साथ चिता तक चिंता उसके
जिसके सिर पर ताज.....
*
काम उठा फण करता नर्तन
डंसे न लेकिन हेय.
माटी सेमिल माटी रचती
माटी, ज्ञेय-अज्ञेय..
चार चरण, कर चार, नयन हों
चार, यही है श्रेय.
विध्न भी आकर बनता है
विधि का विहँस विधेय..
प्यासों का सम्मिलन तृप्तिपति
बनकर कर तू राज.....
*
रमा में अब तक, अब कर
रमानाथ का ध्यान.
दिखे सहचरी सखी, भगिनी,
माता, बेटी मतिमान..
सज न, सजा ना, जो जैसा है
वही करे स्वीकार.
निराकार साकार दिगंबर
निराधार-साधार..
भोग लगा रह स्वाद-गंध निरपेक्ष
न आये लाज.....
*
भोग त्याग को, त्याग भोग को
मणि-कांचन संयोग.
त्याग त्याग को, भोग भोग को
दुर्निवार हो रोग..
राग-विराग एक सिक्के के
पहलू रहें अभिन्न.
साथ एक के,हो न मुदित,
दूजे सँग मत हो खिन्न..
जिसको जिसमें जब मिलना
मिल जाएगा निर्व्याज.....
*
जो लाया वह ले जाना तू
बिसरा शेष-अशेष.
जो जोड़ा वह साथ गया कब
किसके किंचित लेश?
जैसी की तैसी चादर रख
सो जा पैर पसार.
ढाई आखर के जग सारा
पूजे पाँव पखार..
पीले कर दे हाथ मोह के
संग कर माया साज.....
*****
 Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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सोमवार, 21 नवंबर 2011

मुक्तक: भारत --संजीव 'सलिल'

मुक्तक:
भारत
संजीव 'सलिल'
*
तम हरकर प्रकाश पा-देने में जो रत है.
दंडित उद्दंडों को कर, सज्जन हित नत है..
सत-शिव सुंदर, सत-चित आनंद जीवन दर्शन-
जिसका जग में देश वही अपना भारत है..
*
भारत को भाता है, जीवन का पथ सच्चा.
नहीं सुहाता देना-पाना धोखा-गच्चा..
धीर-वीर गंभीर रहे आदर्श हमारे-
पाक नासमझ समझ रहा है नाहक कच्चा..
*
भारत नहीं झुका है, भारत नहीं झुकेगा.
भारत नहीं रुका है, भारत नहीं रुकेगा..
हम-आप मेहनती हों, हम-आप नेक हों तो-
भारत नहीं चुका है, भारत नहीं चुकेगा..
*
हम भारती के बेटे, सौभाग्य हमारा है.
गिरकर उठे तोमाँने हँस-हँसकर दुलारा है..
किस्मत की कैद हमको किंचित नहीं गवारा-
अवसर ने द्वार पर आ हमको ही पुकारा है..
*
हमने जग को दिखलाया कंकर में शंकर.
मानवता के शत्रु हेतु हम हैं प्रलयंकर..
पीड़ित, दीन, दुखी मानवता के हैं रक्षक-
सज्जन संत जनों को हम ही हैं अभ्यंकर..
******
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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रविवार, 20 नवंबर 2011

दोहा मुक्तिका यादों की खिड़की खुली... -- संजीव 'सलिल'


दोहा मुक्तिका
यादों की खिड़की खुली...
संजीव 'सलिल'
*
यादों की खिड़की खुली, पा पाँखुरी-गुलाब.
हूँ तो मैं खोले हुए, पढ़ता नहीं किताब..

गिनती की सांसें मिलीं, रखी तनिक हिसाब.
किसे पाता कहना पड़े, कब अलविदा जनाब..

हम दकियानूसी हुए, पिया नारियल-डाब.
प्रगतिशील पी कोल्डड्रिंक, करते गला ख़राब..

किसने लब से छू दिया पानी हुआ शराब.
मैंने थामा हाथ तो, टूट गया झट ख्वाब..

सच्चाई छिपती नहीं, ओढ़ें लाख नकाब.
उम्र न छिपती बालभर,  मलकर 'सलिल' खिजाब..

नेह निनादित नर्मदा, नित हुलसित पंजाब.
'सलिल'-प्रीत गोदावरी, साबरमती चनाब..

पैर जमीं पर जमकर, देख गगन की आब.
रहें निगाहें लक्ष्य पर, बन जा 'सलिल' उकाब..
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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सोमवार, 14 नवंबर 2011

दोहा सलिला: गले मिले दोहा यमक -- संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
गले मिले दोहा यमक                                                 
संजीव 'सलिल'
*
सीना चीरें पवनसुत, दिखे राम का नाम.
सीना सी- ना जानता, जाने कौन अनाम..
*
रखा सिया ने मुँह सिया, मूढ़ रजक वाचाल.
जन-प्रतिनिधि के पाप से, अवध-ग्रस गया काल..
*
अवध अ-वध-पथ-च्युत हुआ, सच का वध अक्षम्य.
रम्य राम निन्दित हुए, रामा रमा प्रणम्य..
*
कर धन गह कर दिवाली, मना रहे हैं नित्य.
करधन-पायल ठुमकती, देखें विहँस अनित्य..
*
पी मत खा ले जाम तू, यह है नेक सलाह.
यातायात न जाम हो, नाहक सुबहो-शाम..
*
माँग न रम पी ले शहद, पायेगा नव शक्ति.
नरम जीभ टूटे नहीं, दाँत न जाने युक्ति..
*
जीना मुश्किल हो रहा, 'जी ना' कहें न आप.
जीना बनवायें 'सलिल', छत तक सीढ़ी नाप..
*
खान-पान के बाद लें, पान मान का आप.
मान-दान वर-दान कर, पायें कन्या-दान..
*
खो-खोकर ईमान-सच, खुद से खुद ही हार.
खो-खो खेले झूठ सँग, मानव-मति बलिहार..
*
मत ललचा आकाश यूँ, बाँहों में आ काश.
गले दामिनी के लगूँ, तोड़ मृदा का पाश..
*
कंठ कर रहे तर लिये, कर बोतल औ' आस.
तर जायें भव-पाश से, ले अधरों पर हास..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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रविवार, 13 नवंबर 2011

हरिगीतिका: --संजीव 'सलिल'

हरिगीतिका:
--संजीव 'सलिल'
*
उत्सव मनोहर द्वार पर हैं, प्यार से मनुहारिए.
पथ भोर-भूला गहे संध्या, विहँसकर अनुरागिए ..
सबसे गले मिल स्नेहमय, जग सुखद-सुगढ़ बनाइए.
नेकी विहँसकर कीजिए, फिर स्वर्ग भू पर लाइए..
*
हिल-मिल मनायें पर्व सारे, बाँटकर सुख-दुःख सभी.
जलसा लगे उतरे धरा पर, स्वर्ग लेकर सुर अभी.
सुर स्नेह के छेड़ें अनवरत,  लय सधे सद्भाव की.
रच भावमय हरिगीतिका, कर बात नहीं अभाव की..
*
त्यौहार पर दिल मिल खिलें तो, बज उठें शहनाइयाँ.
मड़ई मेले फेसटिवल या हाट की पहुनाइयाँ..
सरहज मिले, साली मिले या संग हों भौजाइयाँ.
संयम-नियम से हँसें-बोलें, हो नहीं रुस्वाइयाँ..
*
कस ले कसौटी पर 'सलिल', खुद आप निज प्रतिमान को.
देखे परीक्षाकर, परखकर, गलतियाँ अनुमान को..
एक्जामिनेशन, टेस्टिंग या जाँच भी कर ले कभी.
कविता रहे कविता, यही है,  इम्तिहां लेना अभी..
*
अनुरोध विनती निवेदन है व्यर्थ मत टकराइए.
हर इल्तिजा इसरार सुनिए, अर्ज मत ठुकराइए..
कर वंदना या प्रार्थना हों अजित उत्तम युक्ति है.
रिक्वेस्ट है इतनी कि भारत-भक्ति में ही मुक्ति है..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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गीत: गीत गंध का... --संजीव 'सलिल'

गीत:
               गीत गंध का 
संजीव 'सलिल'
*
आओ!
गायें गीत गंध का...
*
जब भी देहरी छोड़ें अपनी
आँखों में सपना पालें चुप.
भीत कुहासे से न तनिक हों
दीप भरोसे का बालें चुप.
गोबर के कंडों की थापें
सुनते कदमों को नापें चुप.
दस्तक दें अवसर-किवाड़ पर-
कोलाहल में भी व्यापें चुप.

भाँपें
छल हम बली अंध का.
आओ!
गायें गीत गंध का...
*
इंगित की वर्जना अदेखी
हो न पैंजनी की खनखन चुप.
चौराहों की आपाधापी
करे न भ्रमरों की गुनगुन चुप.
अनबोली बातें अधरों की
कहें नयन से नयन रहें चुप.
भुजपाशों में धड़कें उर तो
लहर-लहर सद्भाव बहें चुप.

नापें
नभ विस्तीर्ण बंध का.
आओ!
गायें गीत गंध का...
*
हलधर हल ले हल कर पाये
टेरों की पहेलियाँ कह चुप.
बाटी-भर्ता, छौंका-तड़का
मठा-महेरी खा-पी रह चुप.
दद्दा की खुरदुरी हथेली,
सजल आँख मैया की नत-चुप.
अक्षर-अक्षर पीर समाई
शब्द-शब्द सुख लाया खत चुप.

नापें
नभ विस्तीर्ण बंध का.
आओ!
गायें गीत गंध का...
*

गीत : राह हेरता... संजीव 'सलिल'


गीत

मीत तुम्हारी राह हेरता...

संजीव 'सलिल'

*

मीत तुम्हारी राह हेरता...

*

सुधियों के उपवन में तुमने

वासंती शत सुमन खिलाये.

विकल अकेले प्राण देखकर-

भ्रमर बने तुम, गीत सुनाये.

चाह जगा कर आह हुए गुम

मूँदे नयन दरश करते हम-

आँख खुली तो तुम्हें न पाकर

मन बौराये, तन भरमाये..

मुखर रहूँ या मौन रहूँ पर

मन ही मन में तुम्हें टेरता.

मीत तुम्हारी राह हेरता...

*

मन्दिर मस्जिद गिरिजाघर में

तुम्हें खोजकर हार गया हूँ.

बाहर खोजा, भीतर पाया-

खुद को तुम पर वार गया हूँ..

नेह नर्मदा के निनाद सा

अनहद नाद सुनाते हो तुम-

ओ रस-रसिया!, ओ मन बसिया!

पार न पाकर पार गया हूँ.

ताना-बाना बुने बुने कबीरा

किन्तु न घिरता, नहीं घेरता.

मीत तुम्हारी राह हेरता...

*****************

दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट,कॉम

सामयिक लेख : सोनिया गाँधी का सच ? भाग-१ -- सुरेश चिपलूनकर

सामयिक लेख :

सोनिया गाँधी का सच ?                              

(भाग-१) 

सुरेश चिपलूनकर


जब इंटरनेट और ब्लॉग की दुनिया में आया तो सोनिया गाँधी के बारे में काफ़ी कुछ पढने को मिला । पहले तो मैंने भी इस पर विश्वास नहीं किया और इसे मात्र बकवास सोच कर खारिज कर दिया, लेकिन एक-दो नहीं कई साईटों पर कई लेखकों ने सोनिया के बारे में काफ़ी कुछ लिखा है जो कि अभी तक प्रिंट मीडिया में नहीं आया है (और भारत में इंटरनेट कितने और किस प्रकार के लोग उपयोग करते हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं है) । यह तमाम सामग्री हिन्दी में और विशेषकर "यूनिकोड" में भी पाठकों को सुलभ होनी चाहिये, यही सोचकर मैंने "नेहरू-गाँधी राजवंश" नामक पोस्ट लिखी थी जिस पर मुझे मिलीजुली प्रतिक्रिया मिली, कुछ ने इसकी तारीफ़ की, कुछ तटस्थ बने रहे और कुछ ने व्यक्तिगत मेल भेजकर गालियाँ भी दीं (मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्नाः) । यह तो स्वाभाविक ही था, लेकिन सबसे आश्चर्यजनक बात यह रही कि कुछ विद्वानों ने मेरे लिखने को ही चुनौती दे डाली और अंग्रेजी से हिन्दी या मराठी से हिन्दी के अनुवाद को एक गैर-लेखकीय कर्म और "नॉन-क्रियेटिव" करार दिया । बहरहाल, कम से कम मैं तो अनुवाद को रचनात्मक कार्य मानता हूँ, और देश की एक प्रमुख हस्ती के बारे में लिखे हुए का हिन्दी पाठकों के लिये अनुवाद पेश करना एक कर्तव्य मानता हूँ (कम से कम मैं इतना तो ईमानदार हूँ ही, कि जहाँ से अनुवाद करूँ उसका उल्लेख, नाम उपलब्ध हो तो नाम और लिंक उपलब्ध हो तो लिंक देता हूँ) ।
पेश है "आप सोनिया गाँधी को कितना जानते हैं" की पहली कडी़, अंग्रेजी में इसके मूल लेखक हैं एस.गुरुमूर्ति और यह लेख दिनांक १७ अप्रैल २००४ को "द न्यू इंडियन एक्सप्रेस" में - अनमास्किंग सोनिया गाँधी- शीर्षक से प्रकाशित हुआ था ।
"अब भूमिका बाँधने की आवश्यकता नहीं है और समय भी नहीं है, हमें सीधे मुख्य मुद्दे पर आ जाना चाहिये । भारत की खुफ़िया एजेंसी "रॉ", जिसका गठन सन १९६८ में हुआ, ने विभिन्न देशों की गुप्तचर एजेंसियों जैसे अमेरिका की सीआईए, रूस की केजीबी, इसराईल की मोस्साद और फ़्रांस तथा जर्मनी में अपने पेशेगत संपर्क बढाये और एक नेटवर्क खडा़ किया । इन खुफ़िया एजेंसियों के अपने-अपने सूत्र थे और वे आतंकवाद, घुसपैठ और चीन के खतरे के बारे में सूचनायें आदान-प्रदान करने में सक्षम थीं । लेकिन "रॉ" ने इटली की खुफ़िया एजेंसियों से इस प्रकार का कोई सहयोग या गठजोड़ नहीं किया था, क्योंकि "रॉ" के वरिष्ठ जासूसों का मानना था कि इटालियन खुफ़िया एजेंसियाँ भरोसे के काबिल नहीं हैं और उनकी सूचनायें देने की क्षमता पर भी उन्हें संदेह था ।
सक्रिय राजनीति में राजीव गाँधी का प्रवेश हुआ १९८० में संजय की मौत के बाद । "रॉ" की नियमित "ब्रीफ़िंग" में राजीव गाँधी भी भाग लेने लगे थे ("ब्रीफ़िंग" कहते हैं उस संक्षिप्त बैठक को जिसमें रॉ या सीबीआई या पुलिस या कोई और सरकारी संस्था प्रधानमन्त्री या गृहमंत्री को अपनी रिपोर्ट देती है), जबकि राजीव गाँधी सरकार में किसी पद पर नहीं थे, तब वे सिर्फ़ काँग्रेस महासचिव थे । राजीव गाँधी चाहते थे कि अरुण नेहरू और अरुण सिंह भी रॉ की इन बैठकों में शामिल हों । रॉ के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने दबी जुबान में इस बात का विरोध किया था चूँकि राजीव गाँधी किसी अधिकृत पद पर नहीं थे, लेकिन इंदिरा गाँधी ने रॉ से उन्हें इसकी अनुमति देने को कह दिया था, फ़िर भी रॉ ने इंदिरा जी को स्पष्ट कर दिया था कि इन लोगों के नाम इस ब्रीफ़िंग के रिकॉर्ड में नहीं आएंगे । उन बैठकों के दौरान राजीव गाँधी सतत रॉ पर दबाव डालते रहते कि वे इटालियन खुफ़िया एजेंसियों से भी गठजोड़ करें, राजीव गाँधी ऐसा क्यों चाहते थे ? या क्या वे इतने अनुभवी थे कि उन्हें इटालियन एजेंसियों के महत्व का पता भी चल गया था ? ऐसा कुछ नहीं था, इसके पीछे एकमात्र कारण थी सोनिया गाँधी । राजीव गाँधी ने सोनिया से सन १९६८ में विवाह किया था, और हालांकि रॉ मानती थी कि इटली की एजेंसी से गठजोड़ सिवाय पैसे और समय की बर्बादी के अलावा कुछ नहीं है, राजीव लगातार दबाव बनाये रहे । अन्ततः दस वर्षों से भी अधिक समय के पश्चात रॉ ने इटली की खुफ़िया संस्था से गठजोड़ कर लिया । क्या आप जानते हैं कि रॉ और इटली के जासूसों की पहली आधिकारिक मीटिंग की व्यवस्था किसने की ? जी हाँ, सोनिया गाँधी ने । सीधी सी बात यह है कि वह इटली के जासूसों के निरन्तर सम्पर्क में थीं । एक मासूम गृहिणी, जो राजनैतिक और प्रशासनिक मामलों से अलिप्त हो और उसके इटालियन खुफ़िया एजेन्सियों के गहरे सम्बन्ध हों यह सोचने वाली बात है, वह भी तब जबकि उन्होंने भारत की नागरिकता नहीं ली थी (वह उन्होंने बहुत बाद में ली) । प्रधानमंत्री के घर में रहते हुए, जबकि राजीव खुद सरकार में नहीं थे । हो सकता है कि रॉ इसी कारण से इटली की खुफ़िया एजेंसी से गठजोड़ करने मे कतरा रहा हो, क्योंकि ऐसे किसी भी सहयोग के बाद उन जासूसों की पहुँच सिर्फ़ रॉ तक न रहकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक हो सकती थी ।
जब पंजाब में आतंकवाद चरम पर था तब सुरक्षा अधिकारियों ने इंदिरा गाँधी को बुलेटप्रूफ़ कार में चलने की सलाह दी, इंदिरा गाँधी ने अम्बेसेडर कारों को बुलेटप्रूफ़ बनवाने के लिये कहा, उस वक्त भारत में बुलेटप्रूफ़ कारें नहीं बनती थीं इसलिये एक जर्मन कम्पनी को कारों को बुलेटप्रूफ़ बनाने का ठेका दिया गया । जानना चाहते हैं उस ठेके का बिचौलिया कौन था, वाल्टर विंसी, सोनिया गाँधी की बहन अनुष्का का पति ! रॉ को हमेशा यह शक था कि उसे इसमें कमीशन मिला था, लेकिन कमीशन से भी गंभीर बात यह थी कि इतना महत्वपूर्ण सुरक्षा सम्बन्धी कार्य उसके मार्फ़त दिया गया । इटली का प्रभाव सोनिया दिल्ली तक लाने में कामयाब रही थीं, जबकि इंदिरा गाँधी जीवित थीं । दो साल बाद १९८६ में ये वही वाल्टर विंसी महाशय थे जिन्हें एसपीजी को इटालियन सुरक्षा एजेंसियों द्वारा प्रशिक्षण दिये जाने का ठेका मिला, और आश्चर्य की बात यह कि इस सौदे के लिये उन्होंने नगद भुगतान की मांग की और वह सरकारी तौर पर किया भी गया । यह नगद भुगतान पहले एक रॉ अधिकारी के हाथों जिनेवा (स्विटजरलैण्ड) पहुँचाया गया लेकिन वाल्टर विंसी ने जिनेवा में पैसा लेने से मना कर दिया और रॉ के अधिकारी से कहा कि वह ये पैसा मिलान (इटली) में चाहता है, विंसी ने उस अधिकारी को कहा कि वह स्विस और इटली के कस्टम से उन्हें आराम से निकलवा देगा और यह "कैश" चेक नहीं किया जायेगा । रॉ के उस अधिकारी ने उसकी बात नहीं मानी और अंततः वह भुगतान इटली में भारतीय दूतावास के जरिये किया गया । इस नगद भुगतान के बारे में तत्कालीन कैबिनेट सचिव बी.जी.देशमुख ने अपनी हालिया किताब में उल्लेख किया है, हालांकि वह तथाकथित ट्रेनिंग घोर असफ़ल रही और सारा पैसा लगभग व्यर्थ चला गया । इटली के जो सुरक्षा अधिकारी भारतीय एसपीजी कमांडो को प्रशिक्षण देने आये थे उनका रवैया जवानों के प्रति बेहद रूखा था, एक जवान को तो उस दौरान थप्पड़ भी मारा गया । रॉ अधिकारियों ने यह बात राजीव गाँधी को बताई और कहा कि इस व्यवहार से सुरक्षा बलों के मनोबल पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और उनकी खुद की सुरक्षा व्यवस्था भी ऐसे में खतरे में पड़ सकती है, घबराये हुए राजीव ने तत्काल वह ट्रेनिंग रुकवा दी,लेकिन वह ट्रेनिंग का ठेका लेने वाले विंसी को तब तक भुगतान किया जा चुका था ।
राजीव गाँधी की हत्या के बाद तो सोनिया गाँधी पूरी तरह से इटालियन और पश्चिमी सुरक्षा अधिकारियों पर भरोसा करने लगीं, खासकर उस वक्त जब राहुल और प्रियंका यूरोप घूमने जाते थे । सन १९८५ में जब राजीव सपरिवार फ़्रांस गये थे तब रॉ का एक अधिकारी जो फ़्रेंच बोलना जानता था, उनके साथ भेजा गया था, ताकि फ़्रेंच सुरक्षा अधिकारियों से तालमेल बनाया जा सके । लियोन (फ़्रांस) में उस वक्त एसपीजी अधिकारियों में हड़कम्प मच गया जब पता चला कि राहुल और प्रियंका गुम हो गये हैं । भारतीय सुरक्षा अधिकारियों को विंसी ने बताया कि चिंता की कोई बात नहीं है, दोनों बच्चे जोस वाल्डेमारो के साथ हैं जो कि सोनिया की एक और बहन नादिया के पति हैं । विंसी ने उन्हें यह भी कहा कि वे वाल्डेमारो के साथ स्पेन चले जायेंगे जहाँ स्पेनिश अधिकारी उनकी सुरक्षा संभाल लेंगे । भारतीय सुरक्षा अधिकारी यह जानकर अचंभित रह गये कि न केवल स्पेनिश बल्कि इटालियन सुरक्षा अधिकारी उनके स्पेन जाने के कार्यक्रम के बारे में जानते थे । जाहिर है कि एक तो सोनिया गाँधी तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के अहसानों के तले दबना नहीं चाहती थीं, और वे भारतीय सुरक्षा एजेंसियों पर विश्वास नहीं करती थीं । इसका एक और सबूत इससे भी मिलता है कि एक बार सन १९८६ में जिनेवा स्थित रॉ के अधिकारी को वहाँ के पुलिस कमिश्नर जैक कुन्जी़ ने बताया कि जिनेवा से दो वीआईपी बच्चे इटली सुरक्षित पहुँच चुके हैं, खिसियाये हुए रॉ अधिकारी को तो इस बारे में कुछ मालूम ही नहीं था । जिनेवा का पुलिस कमिश्नर उस रॉ अधिकारी का मित्र था, लेकिन यह अलग से बताने की जरूरत नहीं थी कि वे वीआईपी बच्चे कौन थे । वे कार से वाल्टर विंसी के साथ जिनेवा आये थे और स्विस पुलिस तथा इटालियन अधिकारी निरन्तर सम्पर्क में थे जबकि रॉ अधिकारी को सिरे से कोई सूचना ही नहीं थी, है ना हास्यास्पद लेकिन चिंताजनक... उस स्विस पुलिस कमिश्नर ने ताना मारते हुए कहा कि "तुम्हारे प्रधानमंत्री की पत्नी तुम पर विश्वास नहीं करती और उनके बच्चों की सुरक्षा के लिये इटालियन एजेंसी से सहयोग करती है" । बुरी तरह से अपमानित रॉ के अधिकारी ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों से इसकी शिकायत की, लेकिन कुछ नहीं हुआ । अंतरराष्ट्रीय खुफ़िया एजेंसियों के गुट में तेजी से यह बात फ़ैल गई थी कि सोनिया गाँधी भारतीय अधिकारियों, भारतीय सुरक्षा और भारतीय दूतावासों पर बिलकुल भरोसा नहीं करती हैं, और यह निश्चित ही भारत की छवि खराब करने वाली बात थी । राजीव की हत्या के बाद तो उनके विदेश प्रवास के बारे में विदेशी सुरक्षा एजेंसियाँ, एसपीजी से अधिक सूचनायें पा जाती थी और भारतीय पुलिस और रॉ उनका मुँह देखते रहते थे । (ओट्टावियो क्वात्रोची के बार-बार मक्खन की तरह हाथ से फ़िसल जाने का कारण समझ में आया ?) उनके निजी सचिव विंसेंट जॉर्ज सीधे पश्चिमी सुरक्षा अधिकारियों के सम्पर्क में रहते थे, रॉ अधिकारियों ने इसकी शिकायत नरसिम्हा राव से की थी, लेकिन जैसी की उनकी आदत (?) थी वे मौन साध कर बैठ गये ।
संक्षेप में तात्पर्य यह कि, जब एक गृहिणी होते हुए भी वे गंभीर सुरक्षा मामलों में अपने परिवार वालों को ठेका दिलवा सकती हैं, राजीव गाँधी और इंदिरा गाँधी के जीवित रहते रॉ को इटालियन जासूसों से सहयोग करने को कह सकती हैं, सत्ता में ना रहते हुए भी भारतीय सुरक्षा अधिकारियों पर अविश्वास दिखा सकती हैं, तो अब जबकि सारी सत्ता और ताकत उनके हाथों मे है, वे क्या-क्या कर सकती हैं, बल्कि क्या नहीं कर सकती । हालांकि "मैं भारत की बहू हूँ" और "मेरे खून की अंतिम बूँद भी भारत के काम आयेगी" आदि वे यदा-कदा बोलती रहती हैं, लेकिन यह असली सोनिया नहीं है । समूचा पश्चिमी जगत, जो कि जरूरी नहीं कि भारत का मित्र ही हो, उनके बारे में सब कुछ जानता है, लेकिन हम भारतीय लोग सोनिया के बारे में कितना जानते हैं ? (भारत भूमि पर जन्म लेने वाला व्यक्ति चाहे कितने ही वर्ष विदेश में रह ले, स्थाई तौर पर बस जाये लेकिन उसका दिल हमेशा भारत के लिये धड़कता है, और इटली में जन्म लेने वाले व्यक्ति का....)
(यदि आपको यह अनुवाद पसन्द आया हो तो कृपया अपने मित्रों को भी इस पोस्ट की लिंक प्रेषित करें, ताकि जनता को जागरूक बनाने का यह प्रयास जारी रहे)... समय मिलते ही इसकी अगली कडी़ शीघ्र ही पेश की जायेगी.... आमीन
नोट : सिर्फ़ कोष्ठक में लिखे दो-चार वाक्य लेखक के हैं, बाकी का लेख अनुवाद मात्र है ।
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राजस्थानी दोहा: --ॐ पुरोहित

राजस्थानी दोहा:                                       

ॐ पुरोहित

राज बणाया राजव्यां,भाषा थरपी ज्यान ।
 
बिन भाषा रै भायला,क्यां रो राजस्थान ॥१॥ 
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रोटी-बेटी आपणी,भाषा अर बोवार ।
 
राजस्थानी है भाई,आडो क्यूं दरबार ॥२॥ 
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राजस्थानी रै साथ में,जनम मरण रो सीर ।
 
बिन भाषा रै भायला,कुत्तिया खावै खीर ।।३॥

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पंचायत तो मोकळी,पंच बैठिया मून ।
 
बिन भाषा रै भायला,च्यारूं कूंटां सून ॥४॥
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भलो बणायो बाप जी,गूंगो राजस्थान ।

 
बिन भाषा रै प्रांत तो,बिन देवळ रो थान॥५॥
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आजादी रै बाद सूं,मून है राजस्थान । 
 
अपरोगी भाषा अठै,कूकर खुलै जुबान ॥६॥
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राजस्थान सिरमोड है,मायड भाषा मान । 
 
दोनां माथै गरब है,दोनां साथै शान ॥७॥
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बाजर पाकै खेत में,भाषा पाकै हेत । 
 
दोनां रै छूट्यां पछै,हाथां आवै रेत ॥८॥
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निज भाषा सूं हेत नीं,पर भाषा सूं हेत । 
 
जग में हांसी होयसी,सिर में पड्सी रेत ॥९॥
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निज री भाषा होंवतां,पर भाषा सूं प्रीत । 
 
ऐडै कुळघातियां रो ,जग में कुण सो मीत ॥१०॥
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घर दफ़्तर अर बारनै,निज भाषा ई बोल । 
 
मायड भाषा रै बिना,डांगर जितनो मोल ॥११॥
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मायड भाषा नीं तजै,डांगर-पंछी-कीट । 
 
माणस भाषा क्यूं तजै, इतरा क्यूं है ढीट ॥१२॥
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मायड भाषा रै बिना,देस हुवै परदेस । 
 
आप तो अबोला फ़िरै,दूजा खोसै केस ॥१३॥
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भाषा निज री बोलियो,पर भाषा नै छोड । 
 
पर भाषा बोलै जका,बै पाखंडी मोड ॥१४॥
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मायड भाषा भली घणी, ज्यूं व्है मीठी खांड । 
 
पर भाषा नै बोलता,जाबक दीखै भांड ॥१५॥
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जिण धरती पर बास है,भाषा उण री बोल । 
 
भाषा साथ मान है , भाषा लारै मोल ॥१६॥
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मायड भाषा बेलियो,निज रो है सनमान । 
 
पर भाषा नै बोल कर,क्यूं गमाओ शान ॥१७॥
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राजस्थानी भाषा नै,जितरो मिलसी मान । 
 
आन-बान अर शान सूं,निखरसी राजस्थान ॥१८॥
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धन कमायां नीं मिलै,बो सांचो सनमान । 
 
मायड भाषा रै बिना,लूंठा खोसै कान ॥१९॥
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म्हे तो भाया मांगस्यां,सणै मान सनमान । 
 
राजस्थानी भाषा में,हसतो-बसतो रजथान ॥२०॥
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निज भाषा नै छोड कर,पर भाषा अपणाय । 
 
ऐडै पूतां नै देख ,मायड भौम लजाय ॥२१॥
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भाषा आपणी शान है,भाषा ही है मान । 
 
भाषा रै ई कारणै,बोलां राजस्थान ॥२२॥
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मायड भाषा मोवणी,ज्यूं मोत्यां रो हार । 
 
बिन भाषा रै भायला,सूनो लागै थार ॥२३॥
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जिण धरती पर जळमियो,भाषा उण री बोल । 
 
मायड भाषा छोड कर, मती गमाओ डोळ ॥२४॥
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हिन्दी म्हारो काळजियो,राजस्थानी स ज्यान । 
 
आं दोन्यूं भाषा बिना,रै’सी कठै पिछाण ॥२५॥
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राजस्थानी भाषा है,राजस्थान रै साथ । 
 
पेट आपणा नीं पळै,पर भाषा रै हाथ ॥२६॥



मायड़ सारु मानता,चालो चालां ल्याण।
 
जोग बणाया सांतरा,जोगेश्वर जी आण ॥२७॥
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दिल्ली बैठगी धारगै,मून कुजरबो धार ।
 
हेलो मारां कान मेँ,आंखां खोलां जा'॥२८॥
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हक है जूनो मांगस्यां, जे चूकां तो मार ।
 
दिल्ली डेरा घालस्यां,भेजै लेवो धार ॥२९॥
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माथा मांगै आज भी,राज चलावणहार ।
 
माथा मांडो जाय नै,दिल्लड़ी रै दरबार ॥३०॥
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लोकराज मेँ भायला, माथां रो है मान ।
 
जाय गिणाओ स्यान सूं.चोड़ा सीना ताण ॥३१॥
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भाषण छोडो भायलां,आसण मांडो जाय।
 
अब जे आपां चूकग्या,लाज मरै ली माय ॥३२॥
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देव भौमिया धोक गै, हो ल्यो सारा साथ ।
 
माथां सूं माथा भेळ,ले हाथां मेँ हाथ ॥३३॥
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झंडा डंडा छोड गै,छोड राज गो हेत ।
 
दिल्ली चालो भाईड़ां,निज भाषा रै हेत ॥३४॥
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