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मंगलवार, 20 मार्च 2012

व्यंग्य मुक्तिका: ---संजीव 'सलिल'

व्यंग्य मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
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दुनिया में तो वाह... वाह... बस अपनी ही होती है.
बहुत खूब खुद को कह तृष्णा तुष्टि बीज बोती है..
आत्मतुष्टि के दुर्लभ पल हैं सुलभ 'सलिल' तनिक मत चूको.
आत्म-प्रशंसा वृत्ति देह के पिंजर की तोती है..
प्रिय सच कह, अप्रिय सच मत कह, नीति सनातन सच है.
सच की सीता हो निर्वासित किस्मत पर रोती है..
दीप्ति तेज होती चहरे की, जब घन श्याम गरजते.
नहीं बरसते, पर आशा बाधा-कीचड़ धोती है..
निंदा-स्तुति सिक्के के दो पहलू सी लगती हैं.
लुटा-सहेजें चाह सभी की, सच खोती खोती है..
वाह... वाह... कह बहुत खूब कहलाना सच्चा सौदा.
पोती ही दादी बनती, दादी बनती पोती है..
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