कुल पेज दृश्य

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

दोहा सलिला: --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
इस नश्वर संसार में, कहीं-कहीं है सार.
सार वहीं है जहाँ है, अंतर्मन में प्यार..
*
प्यार नहीं तो मानिए, शेष सभी निस्सार.
पग-पग पर मग में चुभें, सतत अनगिनत खार..
*
सारमेय का शोर सुन, गज न बदलते राह.
वानर उछलें डाल पर, सिंह न करता चाह..
*
कमल ललित कोमल कुसुम, सब करते सम्मान.
कौन भुला सकता रहा, कब-कब क्या अवदान?.
*
खार खलिश देता सदा, बदले नहीं स्वभाव.
करें अदेखी दूर रह, चुभे न हो टकराव..
*
दीप्ति उजाला दे तभी, जब होता अँधियार.
दीप्ति तीव्र लख सूर्य की, मुंदें नयन-पट द्वार..
*
थूकें सूरज पर अगर, खुद पर गिरती गंद.
नादां फिर भी थूकते, हैं होकर निर्द्वंद..
*
दाता दे- लेता नहीं, अगर ग्रहीता आप.
जिसका उसको ही मिले, हर लांछन दुःख शाप..
*
शब्दब्रम्ह के उपासक, चलें सृजन की राह.
शब्द-मल्ल बन डाह दे, करें न सुख की चाह..
*
अपनी-अपनी सोच है, अपने-अपने दाँव.
अपनी-अपनी डगर है, अपने-अपने पाँव..
*
लगे अप्रिय जो कीजिए, 'सलिल' अदेखी आप.
जितनी चर्चा करेंगे, अधिक सकेगा व्याप..
*
कौन किसी का सगा है, कही किसको गैर.
काव्य-सृजन करते रहें, चाह सभी की खैर..
*
बुद्धि प्रखर हो तो 'सलिल', देती है अभिमान.
ज्ञान समझ दे मद हरे, हो विनम्र इंसान..
*
शिला असहमति की प्रबल, जड़ हो रोके धार.
'सलिल' नम्रता-सेंध से, हो जाता भव-पार..
*
बुद्धि-तत्व करता 'सलिल', पैदा नित मतभेद.
स्नेह-शील-सौहार्द्र से, हो न सके मन-भेद..
*
एक-एक बिखरे हुए, तारे दें न प्रकाश.
चन्द्र-किरण मिल एक हो, चमकातीं आकाश..
*
दरवाज़े बारात हो, भाई करें तकरार.
करें अनसुनी तो बड़े, हो जाते लाचार..
*
करे नासमझ गलतियाँ, समझदार हों मौन.
सार रहित आक्षेप पर, बेहतर है हों मौन..
*
मैदां को छोड़ें नहीं, बदलें केवल व्यूह.
साथ आपके जब 'सलिल', व्यापक मौन समूह..
*
गहते-कहते सार को, तजते कवि निस्सार.
पंक तजे पंकज कमल, बने देव-श्रृंगार..
*

कोई टिप्पणी नहीं: