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रविवार, 15 अप्रैल 2012

गीत- तुम मुसकायीं... ---संजीव 'सलिल'

गीत-
तुम मुसकायीं...
संजीव 'सलिल'
*
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
निशा-तिमिर का अंत हो गया.
ज्योतित गगन दिगंत हो गया.
रास रचकर तन-अंतर्मन-
कहे-अनकहे संत हो गया.

अपने सपने पूरे करने -
सूरज आया, भोर हो गया.
वन-उपवन में पंछी चहके,
चौराहों पर शोर हो गया.

कर प्रयास का थाम
मुग्ध नव आशा झूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
धूप सुनहरी
रूप देखकर मचल रही है.
लेख उमंगें पुरवैया खुश
उछल रही है.

गीत फागुनी, प्रीत सावनी
अचल रही है.
पुरा-पुरातन रीत-नीत
नित नवल रही है.

अर्पण मौन
समर्पण को भाये घरघूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
हाथ बाँधकर मुट्ठी देखे
नील गगन को.
जिव्हा पानकर घुट्टी
चाहे लगन मगन को.

श्रम न देखता बाधा-अडचन
शूल अगन को.
जब उठता पग, सँग-सँग पाता
'सलिल' शगन को.

नेह नर्मदा नहा,
झूम मंजिल को छूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

13 टिप्‍पणियां:

achal verma ने कहा…

achal verma ✆ ekavita


इस रचना के पीछे किसी नवजात शिशु की मनोहारी मुस्कान दिखी है मुझे । ऐसी अनुभूति
ही तो मन को ईश्वरीय तत्व की झलक दिखा देती है ।

धन्य हैं आप आचार्य जी ,
आपकी लेखनी धन्य है ।
और आपकी कल्पना को शत शत प्रणाम ।।

अचल वर्मा

shree prakash shukla ने कहा…

shriprakash shukla ✆ द्वारा yahoogroups.com

आदरणीय आचार्य जी,
सुन्दर कल्पना एवं मनोहारी संयोजन |
बधाई हो |
सादर
श्रीप्रकाश शुक्ल

2012/4/15

s n sharma 'kamal' ने कहा…

sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com

kavyadhara


आ० आचार्य जी ,
प्रकृति नटी के उषाकाल का मनोहर शब्द-चित्र के लिये साधुवाद |
गीत मुझे ऐसा ही लगा | यदि कोई अन्य भाव रहा हो शंका निवारण
करने का कष्ट करें|
सादर
कमल

vijay ने कहा…

vijay2 ✆ द्वारा yahoogroups.comkavyadhara


आ० ‘सलिल’ जी,

सुन्दर रचना हेतु साधुवाद ।

विजय

dr. deepti gupta ने कहा…

deepti gupta ✆ द्वारा yahoogroups.com

kavyadhara


निशा-तिमिर का अंत हो गया.
ज्योतित गगन दिगंत हो गया.
रास रचकर तन-अंतर्मन-
कहे-अनकहे संत हो गया.
अपने सपने पूरे करने -
सूरज आया, भोर हो गया.
वन-उपवन में पंछी चहके,
चौराहों पर शोर हो गया.


मनोहारी रचना के लिए साधुवाद !
सादर,
दीप्ति

- kanuvankoti@yahoo.com ने कहा…

- kanuvankoti@yahoo.com

आदरणीय आचार्य जी ,
वाह क्या बात है -
अर्पण मौन
समर्पण को भाये घरघूले.
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...

प्यारी रचना के लिए बहुत बहुत बधाई,
सादर,
कनु
*

dr. deepti gupta ने कहा…

निशा-तिमिर का अंत हो गया.
ज्योतित गगन दिगंत हो गया.
रास रचकर तन-अंतर्मन-
कहे-अनकहे संत हो गया.
अपने सपने पूरे करने -
सूरज आया, भोर हो गया.
वन-उपवन में पंछी चहके,
चौराहों पर शोर हो गया.


मनोहारी रचना के लिए साधुवाद !
सादर,
दीप्ति

kamlesh diwan ने कहा…

rachnaye achchi hai sabhi ko pasand aayegi

- pratapsingh1971@gmail.com ने कहा…

आदरणीय आचार्य जी

बहुत ही सुन्दर, आनंदित करने वाली रचना !

साधुवाद !

सादर
प्रताप

Madan Mohan Sharma ✆ ने कहा…

madanmohanarvind@gmail.com द्वारा yahoogroups.com
ekavita


आदरणीय आचार्य जी,
सुन्दर और सटीक रचना के लिए साधुवाद स्वीकारें.
सादर
मदन मोहन 'अरविन्द'

shar_j_n@yahoo.com ने कहा…

बेनामी shar_j_n ✆ ने कहा…

shar_j_n@yahoo.com ekavita


आदरणीय आचार्य जी,

बहुत बहुत सुन्दर छंद!

छंद सुभाय
भाव बढें और मन को छू लें
पढ़ कर इनको
पाठक के मन जूही फूले

सृजन वृष्टि से
मन का प्रमुदित मोर हो गया :)
बंद बंद चित्तचोर हो गया!

सादर शार्दुला
=================
तुम मुसकायीं,
जुही, चमेली, चंपा फूले...
*
निशा-तिमिर का अंत हो गया.
ज्योतित गगन दिगंत हो गया.
रास रचाकर तन-अंतर्मन-
कहे-अनकहे संत हो गया.--- ये अतिसुन्दर!
अपने सपने पूरे करने -
सूरज आया, भोर हो गया.
वन-उपवन में पंछी चहके,
चौराहों पर शोर हो गया. --- जैसे प्रकृति, शहर में आई हो मानव का ताप हरने !


अर्पण मौन
समर्पण को भाये घरघूले.--- इस पंक्ति का बिम्ब कैसे देखूं आचार्य जी?
*
श्रम न देखता बाधा-अडचन
शूल अगन को.
जब उठता पग, सँग-सँग पाता
'सलिल' शगन को.----- ये कितना शुभ, सुन्दर!

Wednesday, April 18, 2012 1:54:00 PM

salil ने कहा…

बेनामी salil ने कहा…

इन पंक्तियों में प्रेमी के प्रेम-अर्पण की प्रतिक्रिया में प्रेमिका का समर्पण इंगित है जो गृहस्थी (घर-घूले) की कामना कर रहा है. संभवतः भाव स्पष्ट नहीं हो पाया. आगे से ध्यान रखूंगा कि कथ्य स्पष्ट हो सके.
आपका बहुत-बहुत आभार.

Wednesday, April 18, 2012

dks poet ✆ dkspoet@yahoo.com ने कहा…

‘तुम मुस्कायीं’ बहुत सुंदर गीत है, बधाई स्वीकारें।