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शनिवार, 12 मई 2012

लघुकथा: एकलव्य --संजीव 'सलिल'

लघुकथा:
एकलव्य

संजीव 'सलिल'
*
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
*****
-सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम / दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.इन

2 टिप्‍पणियां:

vijay2 ✆ द्वारा yahoogroups.com ने कहा…

vijay2 ✆ द्वारा yahoogroups.com
vicharvimarsh


आ० ‘सलिल’ जी,

क्या कटाक्ष है ! वाह, वाह, वाह !
विजय

sn Sharma ने कहा…

sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com

vicharvimarsh


धन्य है 'सलिल' जी,
इतनी रोचक और पैने व्यंग की लघु कथा
आपकी लेखनी से ही संभव है | उसे नमन !
सादर
कमल