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शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

कविता औरत, किला और सुरंग - मुकेश इलाहाबादी

कविता 

औरत, किला और सुरंग

- मुकेश इलाहाबादी

 
















औरत --
एक किला है
जिसमे तमाम
सुरंगे ही सुरंगे हैं.
अंधेरे और सीलन से
ड़बड़बाई
एक सुरंग मे घुसो
तो दूसरी
उससे ज्यादा भयावह
अंधेरी व उदासियों से भरी.
 


 
















एक सुरंग के मुहाने में  खडा़
सुन रहा था सीली दीवारों की
सिसकियों को.
दीवार से कान लगाये
हथेलियां सहलाते हुए                               
उस ताप और ठंड़क को
महसूस करने लगा,
एक साथ
जो न जाने कब से कायम थे?
शायद तब से जब से
जब से इस किले में अंधेरा है,
या तब से,
जब से ईव ने
आदम का हर हाल में
साथ देने की कसम खायी.
या फिर जब
प्रकृति से औरत का जन्म हुआ.
 


 
















तब से या कि जब से
ईव ने आदम के प्रेम में पड़ कर
सब कुछ निछावर किया था.
फिर सब कुछ सहना शुरू कर दिया था
सारे दुख तकलीफ
धरती की तरह,
या किले की सीली दीवारों की तरह.
मैं उस अँधेरे में
सिसकियां ओर किलकारियां
भी सुन रहा था एक साथ.
उस भयावह अंधेरे में
अंधेरा अंदर ही अंदर
सिहरता जा रहा था,
कान चिपके थे
किले की
पुरानी जर्जर दीवारों से,
जो
फुसफुसाहटों की तरह
कुछ कहने की कोशिश
मे थी, किन्तु कान थे कि सुन नहीं  पा रहे थे
मन बेतरह घबरा उठा और  मैं
बाहर आ गया.
उदास किले की सीली सुरंगों के भीतर से
जो उस औरत के अंदर मौजूद थीं
न जाने कब से
शायद आदम व हव्वा के जमाने से.

*****

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