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रविवार, 29 जुलाई 2012

मुक्तक : --संजीव 'सलिल'

: मुक्तक :
            
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संजीव 'सलिल'
*
धर सकूँ पग धरा इतनी दे विधाता.
हर सकूँ तम त्वरा से चुप मुस्कुराता..
कर सकूँ कुछ काम हो निष्काम दाता-
मर सकूँ दम आख़िरी तक कुछ लुटाता..
**
स्नेह का प्रतिदान केवल स्नेह ही है.
देह का अनुमान केवल देह ही है..
मेह बनकर बरसना बिन शर्त सीखो-
गेह का निर्माण होना गेह ही है..
*
सुमन सम संसार को कर सुरभिमय हम धन्य हों.
सभी से अपनत्व पायें क्यों किसी को अन्य हों..
मनुज बनकर दनुजता के पथ बढ़े, पीछे हटें-
बनें प्रकृति-पुत्र कुछ कम सभ्य, थोड़े वन्य हों..
*
कुछ पल ही क्यों सारा जीवन साथ रहे संतोष.
जो जितना जैसा पाया पर्याप्त, करें जय घोष..
कामनाओं को वासनाओं का रूप न लेने दें-
देश-विश्व हित कर्म करें, हो रिक्त न यश का कोष..
*
दीप्तिमान हों दीप बनें कुछ फैलायें उजयारा.
मिलें दीप से दीप मने दीवाली, तम हो हारा..
सुता धरा से नभ गंगा माँ पुलकित लाड़ लड़ाये-
प्रकृति-पुरुष सुंदर-शिव हो सत का बोलें जयकारा..
*
आत्मज्योति को दीपज्योति सम, तिल-तिल मौन जलायें.
किसलय को किस लय से, कोमल कुसुम कली कर पायें?
वृक्षारोपण भ्रम है, पौधारोपण हो पग-पग पर-
बंजर भू भी हो वरदानी, यदि हम स्वेद बहायें..
*

871584
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

1 टिप्पणी:

sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com ने कहा…

sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com

kavyadhara


आ० आचार्य जी,
अति प्रेरणाप्रद सुन्दर मुक्तक|साधुवाद!
विशेष-

दीप्तिमान हों दीप बनें कुछ फैलायें उजयारा.
मिलें दीप से दीप मने दीवाली, तम हो हारा..
सुता धरा से नभ गंगा माँ पुलकित लाड़ लड़ाये-
प्रकृति-पुरुष सुंदर-शिव हो सत का बोलें जयकारा..

सादर ,
कमल
*