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शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

समीक्षा कृति ... श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद

पुस्तक समीक्षा :

कृति: श्रीमद्भागवद्गीता हिन्दी पद्यानुवाद
अनुवादक: प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव  " विदग्ध "
प्रकाशक: अर्पित पब्लिकेशन्स, कैथल, हरियाणा
मूल्य:  २५० रु. , पृष्ठ ... २५४
संपर्क: ओ. बी. ११, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर म. प्र. ४८२००८
समीक्षक: श्रीमती विभूति खरे, ए ७ यश क्लासिक, सुस मार्ग, पाषाण, पुणे २१                               

           श्रीमद्भागवद्गीता सार्वकालिक ग्रंथ है. इसमें जीवन-प्रबंधन की गूढ़ शिक्षा है. आज संस्कृत समझने वाले कम होते जा रहे हैं पर गीता में सबकी रुचि सदैव बनी रहेगी. अतः, संस्कृत न समझने वाले हिंदी पाठकों को गीता का वही काव्यगत आनन्द यथावत मिल सके इस उद्देश्य से प्रो.चित्रभूषण श्रीवास्तव ' विदग्ध' ने मूल संस्कृत श्लोक, श्लोकशः काव्य अनुवाद तथा शब्दार्थ को कड़े बहुरंगी आवरण, चिकने कागज व स्वच्छ मुद्रण के साथ यह बहुमूल्य कृति प्रस्तुत की है. अनेक शालेय व विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में गीता के अध्ययन को शामिल किया गया है, उन छात्रों के लिये यह कृति बहुउपयोगी बन पड़ी है . 

         भगवान कृष्ण ने द्वापर युग के समापन तथा कलियुग आगमन के पूर्व (आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व) कुरूक्षेत्र के रणांगण में दिग्भ्रमित अर्जुन को, जब महाभारत युद्ध आरंभ होने के समस्त संकेत योद्धाओं  को मिल चुके थे, गीता के माध्यम से ये अमर संदेश दिये थे व जीवन के मर्म की व्याख्या की थी. श्रीमद्भागवद्गीता का भाष्य वास्तव मे 'महाभारत' है। गीता को स्पष्टतः समझने के लिये गीता के साथ ही महाभारत को पढ़ना और हृदयंगम करना भी आवश्यक है। महाभारत भारतवर्ष ही नहीं विश्व का इतिहास है। ऐतिहासिक एवं तत्कालीन घटित घटनाओं के संदर्भ मे झाँककर ही श्रीमद्भागवद्गीता के विविध दार्शनिक-आध्यात्मिक व धार्मिक पक्षों को व्यवस्थित ढ़ंग से समझा जा सकता है। 

          जहाँ  भीषण युद्ध, मारकाट, रक्तपात और चीत्कार का भयानक वातावरण उपस्थित हो वहाँ गीत-संगीत, कला-भाव, अपना-पराया सब कुछ विस्मृत हो जाता है फिर ऐसी विषम परिस्थिति में गीत या संगीत की कल्पना बडी विसंगति जान पडती है। क्या युद्ध में संगीत संभव है? एकदम असंभव किंतु यह संभव हुआ है- तभी तो 'गीता सुगीता कर्तव्य' यह गीता के माहात्म्य में कहा गया है। अतः, संस्कृत मे लिखे गये गीता के श्लोकों का पठन-पाठन भारत में जन्मे प्रत्येक भारतीय के लिये अनिवार्य है। संस्कृत भाषा का जिन्हें ज्ञान नहीं है उन्हें भी गीता और महाभारत ग्रंथ क्या है?, कैसे है? इनके पढ़ने से जीवन में क्या लाभ है? यह जानने और समझने के लिये भावुक हृदय कवियों, साहित्यकारों और मनीषियों ने समय-समय पर साहित्यिक श्रम कर कठिन किंतु जीवनोपयोगी संस्कृत भाषा के सूत्रों (श्लोकों) का पद्यानुवाद कर इस जीवनोपयोगी ग्रंथ को युगानुकूल सरल करने का प्रयास किया है।

           इसी क्रम में साहित्यमनीषी, कविश्रेष्ठ प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव जी 'विदग्ध' ने जो भारतीय साहित्य-शास्त्रों, धर्मग्रंथो के न केवलकुशल अध्येता हैं, स्वभाव से कोमल भावों के भावुक कवि भी हैं ने निरंतर साहित्य अनुशीलन की प्रवृत्ति के कारण विभिन्न संस्कृत कवियों की साहित्य रचनाओं का हिंदी पद्यानुवाद प्रस्तुत किया है. महाकवि कालिदास कृत 'मेघदूतम्' व 'रघुवंशम्' काव्य का आपके द्वारा किया गया पद्यानुवाद दृष्टव्य , पठनीय व मनन योग्य है।गीता के विभिन्न पक्षोंको योग कहा गया है. जैसे- विषाद योग, जब विषाद स्वगत होता है तो यह जीव के संताप में वृद्धि करउसके हृदय मे अशांति की सृष्टि करता है जिससे जीवन में आकुलता, व्याकुलता और भयाकुलता उत्पन्न होती हैं परंतु जब जीव अपने विषाद को परमात्मा के समक्ष प्रकट कर विषाद को ईश्वर से जोड़ता है तो वह विषाद योग बनकर योग की सृष्टि श्रृंखला का निर्माण करता है और इस प्रकार ध्यान योग, ज्ञान योग, कर्म योग, भक्तियोग, उपासना योग, ज्ञान-कर्म-सन्यास योग, विभूति योग, विश्वरूप दर्शन विराट योग, सन्यास योग, विज्ञान योग, शरणागत योग, आदि मार्गों से होता हुआ मोक्ष सन्यास योग प्रकारातंर से है, तो विषाद योग से प्रसाद योग तक यात्रा संपन्न करता है। इस दृष्टि से गीता का स्वाध्याय हम सबके लिये उपयोगी सिद्ध होता हैं. अनुवाद में प्रायः दोहे को छंद के रूप में प्रयोग किया गया है. कुछ अनूदित अंश बानगी के रूप में इस तरह हैं ..

अध्याय ५ से ..

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ॥

स्वयं इंद्रियां कर्मरत,करता यह अनुमान
चलते,सुनते,देखते ऐसा करता भान।।8।।
सोते,हँसते,बोलते,करते कुछ भी काम
भिन्न मानता इंद्रियाँ भिन्न आत्मा राम।।9।।

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥

हितकारी संसार का,तप यज्ञों का प्राण
जो मुझको भजते सदा,सच उनका कल्याण।।29।।

अध्याय ९ से ..

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्‌ ।
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्‌ ॥

मै ही कृति हूँ यज्ञ हूँ,स्वधा,मंत्र,घृत अग्नि
औषध भी मैं,हवन मैं ,प्रबल जैसे जमदाग्नि।।16।।

           इस तरह प्रो. श्रीवास्तव ने श्रीमदभगवदगीता के श्लोकों का पद्यानुवाद कर हिंदी भाषा के प्रति अपना अनुराग तो व्यक्त किया ही है किंतु इससे भी अधिक सर्व साधारण के लिये गीता के दुरूह श्लोकों को सरल कर बोधगम्य बना दिया है.गीता के प्रति गीता-प्रेमियों की अभिरूचि का विशेष ध्यान रखा है । गीता के सिद्धांतों  को समझने में साधकों को इससे बहुत सहायता मिलेगी, ऐसा मेरा विश्वास है। अनुवाद बहुत सुंदर है। शब्द या भावगत कोई विसंगति नहीं है। गीता के अनुवाद या व्याख्याएं अनेक विद्वानों ने की हैं पर इनमें लेखक स्वयं अपनी सम्मति समाहित करते मिलते हैं जबकि इस अनुवाद की विशेषता यह है कि प्रो. श्रीवास्तव द्वारा ग्रंथ के मूल भावों की पूर्ण रक्षा की गई है।

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