कुल पेज दृश्य

सोमवार, 3 सितंबर 2012

काव्यधारा: वक्तव्य - दीप्ति गुप्ता

काव्यधारा:                                                                                                                     
वक्तव्य
दीप्ति गुप्ता
*
 
एक  जमाने   से  धरती  पर हरा   भरा  साँसे  लेता  था
छाया  का कालीन बिछा  कर झोली  भर- भर  फल देता था
मन्द  हवा  की  थपकी देकर गर्मी  में   राहत   देता   था
चिड़िया  मैना   के  नीड़ों  की चीलों  से   रक्षा  करता  था

शीतल छाया  में  घन्टों तक  बच्चे   आकर   खेल   रचाते
किस्से   कहते,  गाने  गाते  फिर  अपनी बाँहों  में  भरकर
नन्हे-नन्हे हाथों से  सहला कर, मुझ  पर अपना प्यार जताते
कितने  सावन  कितने पतझड़ देख  चुका  था इस वसुधा पर

जाने   वाले   पथिक  अनेकों थक  कर   मेरे   नीचे  आते
पल दो पल सुस्ताकर, खाकर, फिर  पथ  पर  आगे बढ़ जाते
कोयल   ने   मेरी  शाखों  पर कितने   मीठे  गीत  सुनाये
भौरों  ने  की  गुनगुन-गुनगुन, और  फूलों ने  मन  महकाए
 


आज  जाने किस वहशी ने  मुझ  पर निर्दयी  वार  किया
काटा   चीरा  मेरे   तन  को और    मेरा    संहार   किया
माँ   की  गोदी   में  सोता हूँ मन में  यह  एक  आस लिए
पुनर्जन्म  हो  इस  धरती  पर  परोपकार  की  प्यास   लिए !

*
deepti gupta  द्वारा yahoogroups.com

4 टिप्‍पणियां:

deepti gupta ✆ ने कहा…

deepti gupta ✆ द्वारा yahoogroups.com

kavyadhara


वाह! शत-शत आभार संजीव जी! आपने तो सूनी सी कविता को चार चाँद लगा दिए!
सादर,
दीप्ति

Pranava Bharti ने कहा…



क्या बात है!
रचना पचनी मुश्किल हो जायेगी|
पेट में दर्द कर जायेगी... बुरा मत मानियेगा रचना का कलेवर ही इतना बदल गया कि बस..........
प्रणव

sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com ने कहा…

sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com

kavyadhara


सजीव जी तो इस समूह का सघन छायादार वृक्ष हैं जिसकी शीतल छाया तले हमें अमूल्य संजीवनी
मिलती है | प्रभु की कृपा उन पर सदा बनी रहे और इस समूह पर सदा घनी रहे |
कमल

- manjumahimab8@gmail.com ने कहा…

- manjumahimab8@gmail.com
क्या बात है दीप्ति जी,
आपकी रचना वक्तव्य बड़ी ही भावपूर्ण सामयिक, वृक्ष के दर्द को समेटती इस जन्म से पुनर्जन्म तक ले जाती बहुत ही दिल को छू गई..साधुवाद
चित्रों ने तो निश्चय ही इसके भावों को सजीव कर दिया है..संजीव जी ने इसे संजोया अत: वे भी प्रशंसा के पात्र हैं.
मेरी भी एक कविता है ..कुछ कुछ इसी तरह की है पर लम्बी होने के कारण टाइप करने का समय और हिम्मत दोनों ही नहीं जुटा पा रही...किसी छुट्टी के दिन कमर कसकर बैठूंगी :)
फिर से एक बार पुन: बधाई और शुभकामनाएं ...
सस्नेह
मंजु