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बुधवार, 5 सितंबर 2012

चिंतन सलिला: मानसिक स्वास्थ्य सहेजें बीनू भटनागर

बीनू भटनागरचिंतन सलिला:

मानसिक स्वास्थ्य सहेजें                                     

बीनू भटनागर


     मनोविज्ञान में एम. ए.,  हिन्दी गद्यापद्य लेखन में रुचि रखनेवाली बीनू जी के कई लेख सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी, माधुरी तथा अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित-चर्चित हुए हैं। लेखों के विषय प्रायःसामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुड़े होते हैं।


      कहते हैं 'स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निवास होता है' ,परन्तु यह भी सही है कि मन अस्वस्थ हो तो शरीर भी स्वस्थ नहीं ऱह पाता। शरीर अस्वस्थ होता है तो उसका तुरन्त इलाज करवाया जाता है, जाँच पड़ताल होती है, उस पर ध्यान दिया जाता है। दुर्भाग्यवश मानसिक स्वास्थ्य मे कुछ गड़बड़ी होती है तो आसानी से कोई उसे स्वीकार ही नहीं करता, ना ही उसका इलाज कराया जाता है। स्थिति जब बहुत बिगड़ जाती है तभी मनोचिकित्सक को दिखाया जाता है। आमतौर पर यह छुपाने की पूरी कोशिश होती है कि परिवार का कोई सदस्य मनोचिकित्सा ले रहा है।

     शरीर की तरह ही मन को स्वस्थ रखने के लियें संतुलित भोजन और थोड़ा व्यायाम अच्छा होता है। काम, और आराम के बीच ,परिवार और कार्यालय के बीच एक संतुलन बना रहे तो अच्छा होगा परन्तु परिस्थितियाँ सदा अपने वश में नहीं होतीं, तनाव जीवन में होते ही हैं। तनाव का असर मन पर होता ही है। इससे कैसे जूझना है यह समझना आवश्यक है।

     मानसिक समस्याओं की मोटे तौर पर दो श्रेणियाँ हैं। पहली: परिस्थितियों  के साथ सामंजस्य न स्थापित कर पाने से उत्पन्न तनाव, अत्यधिक क्रोध, तीव्र भय अथवा संबन्धों मे आई दरारों से पैदा समस्यायें आदि, दूसरी: मनोरोग, इनका कारण शारीरिक भी हो सकता है और परिस्थितियों का सही तरीके से सामना न कर पाना भी। इन दोनों श्रेणियों को एक अस्पष्ट सी रेखा अलग करती है। तनाव, भय, क्रोध आदि विकार मनोरोगों की तरफ़ ले जा सकते हैं जो व्यावाहरिक समस्यायें पैदा करते हैं। पीड़ित व्यक्ति की मानसिकता का प्रभाव उसके परिवार और सहकर्मियों पर भी पड़ता है।

     अस्वस्थ मानसिकता की पहचान साधारण व्यक्ति के लियें कुछ कठिन होती है। किसी का मानसिक असंतुलन इतनी आसानी से नहीं पहचाना जा सकता। प्रत्येक व्यक्ति अपने में अलग-अलग विशेषतायें लिये होता है। कोई बहुत सलीके से रहता है तो कोई एकदम फक्कड़, कोई भावुक होता है तो कोई यथार्थवादी, कोई रोमांटिक होता है कोई शुष्क। व्यक्ति के गुण-दोष ही उसकी पहचान होते हैं। यदि व्यक्ति के ये गुण-दोष एक ही दिशा में झुकते जायें तो व्यावहारिक समस्यायें उत्पन्न हो सकती हैं। इन्हें मनोरोग नहीं कहा जा सकता परन्तु इनका उपचार कराना भी आवश्यक है,  इन्हें अनदेखा नहीं करना चाहिये।

     अस्वस्थ मानसिकता के उपचार के लिये दो प्रकार के विशेषज्ञ होते हैं। क्लिनिकल सायकोलौजिस्ट और सायकैट्रिस्ट। क्लिनिकल सायकोलौजिस्ट मनोविज्ञान के क्षेत्र से आते हैं, ये काउंसलिंग और सायकोथिरैपी में माहिर होते हैं। ये चेतन, अवचेतन और अचेतन मन से व्याधि का कारण ढूँढकर व्यावाहरिक परिवर्तन करने की सलाह देते हैं। दूसरी ओर सायकैट्रिस्ट चिकित्सा के क्षेत्र से आते हैं, ये मनोरोगों का उपचार दवाइयाँ देकर करते हैं। मनोरोगियों को दवा के साथ काउंसलिंग और सायकोथिरैपी की भी आवश्यकता होती है, कभी ये ख़ुद करते हैं, कभी मनोवैज्ञानिक के पास भेजते हैं। क्लिनिकल सायकोलौजिस्ट को यदि लगता है कि पीड़ित व्यक्ति को दवा देने की आवश्यकता है तो वे उसे मनोचिकित्सक के पास भेजते हैं। मनोवैज्ञानिक दवाई नहीं दे सकते। अतः, ये दोनो एक दूसरे के पूरक हैं, प्रतिद्वन्दी नहीं। आमतौर से मनोवैज्ञानिक सामान्य कुंठाओं, भय, अनिद्रा, क्रोध और तनाव आदि का उपचार करते हैं और मनोचिकित्सक मनोरोगों का। अधिकतर दोनों प्रकार के विशेषज्ञों को मिलकर इलाज करना पड़ता है। यदि रोगी को कोई दवा दी जाय तो उसे सही मात्रा मे जब तक लेने को कहा जाए लेना ज़रूरी है। कभी दवा जल्दी बंद की जा सकती है, कभी लम्बे समय तक लेनी पड़ सकती है। कुछ मनोरोगों के लिये आजीवन दवा भी लेनी पड़ सकती है, जैसे कुछ शारीरिक रोगों के लियें दवा लेना ज़रूरी है, उसी तरह मानसिक रोगों के लियें भी ज़रूरी है। दवाई लेने या छोड़ने का निर्णय चिकित्सक का ही होना चाहिये।
 
     कभी-कभी रिश्तों में दरार आ जाती है जिसके कारण अनेक हो सकते हैं।आजकल विवाह से पहले भी मैरिज काउंसलिंग होने लगी है। शादी से पहले की रोमानी दुनिया और वास्तविकता में बहुत अन्तर होता है। एक दूसरे से अधिक अपेक्षा करने की वजह से शादी के बाद जो तनाव अक्सर होते हैं, उनसे बचने के लिये यह अच्छा क़दम है। पति-पत्नी के बीच थोड़ी बहुत अनबन स्वभाविक है, परन्तु रोज़-रोज़ कलह होने लगे, दोनों पक्ष एक दूसरे को दोषी ठहराते रहें तो घर का पूरा माहौल बिगड़ जाता है। ऐसे में मैरिज काउंसलर जो कि मनोवैज्ञानिक ही होते हैं, पति-पत्नी दोनों की एक साथ और अलग-अलग काउंसलिंग करके कुछ व्यावहारिक सुझाव देकर उनकी शादी को बचा सकते हैं। वैवाहिक जीवन की मधुरता लौट सकती है। अगर पति-पत्नी काउंसलिंग के बाद भी एक साथ जीवन बिताने को तैयार न हों तो उन्हें तलाक के बाद पुनर्वास में भी मनोवैज्ञानिक मदद कर सकते हैं तथा जीवन की कुण्ठाओं व क्रोध को सकारात्मक दिशा दे सकते हैं। कभी -कभी टूटे हुए रिश्ते व्यक्ति की सोच को कड़वा और नकारात्मक कर देते हैं, व्यक्ति स्वयं को शराब या अन्य व्यसन में डुबा देता है। अतः, समय पर विशेषज्ञ की सलाह लेने से जीवन में बिखराव नहीं आता।

    कुछ लोगों को शराब या ड्रग्स की लत लग जाती है, कारण चाहे जो भी हो उन्हें मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक की मदद व परिवार के सहयोग की आवश्यकता होती है। इलाज के बाद समाज में उनका पुनर्वास हो सकता है। दोबारा व्यक्ति उन आदतों की तरफ़ न मुड़े, इसके लिये भी विशेषज्ञ परिवार के सदस्यों को व्यावाहरिक सुझाव देते हैं।

     बच्चों और किशोरों की बहुत सी मनोवैज्ञानिक समस्यायें होती हैं जिन्हें लेकर उनके और माता-पिता के बीच टकराव हो जाता है। यदि समस्या गंभीर होने लगे तो मनोवैज्ञानिक से सलाह लेनी चाहिये। हर बच्चे का व्यक्तित्व एक-दूसरे से अलग होता है, उनकी बुद्धि, क्षमतायें और रुचियाँ भी अलग होती हैं। अतः, एक-दूसरे से उनकी तुलना करना या अपेक्षा रखना भी उचित नहीं है। पढ़ाई या व्यवहार मे कोई विशेष समस्या आये तो उस पर ध्यान देना चाहिये। यदि आरंभिक वर्षों में लगे कि बच्चा आवश्यकता से अधिक चंचल है, एक जगह एक मिनट भी नहीं बैठ सकता, किसी ओर  ध्यान नहीं लगा पाता और पढ़ाई में भी पिछड़ रहा है तो मनोवैज्ञनिक से परामर्श करें, हो सकता है कि बच्चे को अटैंशन डैफिसिट हाइपर ऐक्टिविटी डिसआर्डर हो। इसके लिये मनोवैज्ञानिक जाँच होती है। उपचार भी संभव है। 

    यदि बच्चे को बात करने में दिक्कत होती है, वह आँख मिला कर बात नहीं कर सकता, आत्मविश्वास की कमी हो, पढ़ाई में बहुत पिछड़ रहा हो तो केवल यह न सोच लें कि वह शर्मीला है। एक बार मनोवैज्ञानिक से जाँच अवश्य करायें। ये लक्षण औटिज़्म के भी हो सकते है। इसका कोई निश्चित उपचार तो नहीं है परन्तु उचित प्रशिक्षण से नतीजा अच्छा होता है। डायसिलैक्सिया मे बच्चे को लिखने, पढ़ने में कठिनाई होती है, उसकी बुद्धि का स्तर अच्छा होता है। इन्हें अक्षर और अंक अक्सर उल्टे दिखाई देते हैं। ऐसे कुछ लक्षण बच्चे में दिखें तो जाँच करवाये। इन बच्चों को भी उचित प्रशिक्षण से लाभ होता है। बच्चों में कोई असामान्य लक्षण दिखें तो उन्हें अनदेखा न करें।

     क्रोध सभी को आता है, यह सामान्य सी चीज़ है। कभी-कभी किसी का क्रोध किसी और पर निकलता है, अगर क्रोध आदत बन जाए, व्यक्ति तोड़-फोड़ करने लगे या आक्रामक हो जाये तो यह सामान्य क्रोध नहीं है। किसी मानसिक व्यधि से पीड़ित व्यक्ति अक्सर अपनी परेशानी नहीं स्वीकारता। उसे एक डर लगा रहता है कि उसे कोई विक्षिप्त या पागल न समझ ले। उसे और परिवार को समझना चाहिये कि ये धारणा निर्मूल है, फिर भी यदि पीड़ित व्यक्ति ख़ुद मनोवैज्ञानिक के पास जाने को तैयार न हो तो परिवार के अन्य सदस्य उनसे मिलें, विशेषज्ञ कुछ व्यवाहरिक सुझाव दे सकते हैं। यदि मनोवैज्ञानिक को लगे कि दवा देने की आवश्यकता है, तो रोगी को मनोचिकित्सक के पास जाने के लिए तैयार करना ही पड़ेगा। मनोवैज्ञानिक असामान्य क्रोध का कारण जानने की कोशिश करते हैं। वे क्रोध को दबाने की सलाह नहीं देते, उस पर नियंत्रण रखना सिखाते हैं। व्यक्ति की इस शक्ति को रचनत्मक कार्यों मे लगाने का प्रयास करते है। क्रोधी व्यक्ति यदि बिलकुल बेकाबू हो जाय तो दवाई देने की आवश्यकता हो सकती है।

     जीवन में बहुत से क्षण निराशा या हताशा के आते हैं, कभी किसी बड़ी क्षति के कारण और कभी किसी मामूली सी बात पर अवसाद छा जाता है। कुछ दिनो में सब सामान्य हो जाता है। यदि निराशा और हताशा अधिक दिनों तक रहे, व्यक्ति की कार्य क्षमता घटे, वह बात-बात पर रोने लगे तो यह अवसाद या डिप्रैशन के लक्षण हो सकते हैं। डिप्रैशन में व्यक्ति अक्सर चुप्पी साध लता है, नींद भी कम हो जाती है, भोजन या तो बहुत कम करता है या बहुत ज़्यादा खाने लगता है। कभी-कभी इस स्थिति मे यथार्थ से कटने लगता है। छोटी-छोटी परेशानियाँ बहुत बड़ी दिखाई देने लगती हैं। आत्महत्या के विचार आते हैं, कोशिश भी कर सकता है। डिप्रैशन के लक्षण दिखने पर व्यक्ति का इलाज तुरन्त कराना चाहिये। मामूली डिप्रैशन मनोवैज्ञानिक उपचार से भी ठीक हो सकता है, दवाई की भी ज़रूरत पड़ सकती है। एक अन्य स्थिति में कभी अवसाद के लक्षण होते हैं, कभी उन्माद के। उन्माद की स्थिति अवसाद के विपरीत होती है। बहुत ज़्यादा और बेवजह बात करना इसका प्रमुख लक्षण होता है। व्यक्ति कभी अवसाद, कभी उन्माद से पीड़त रहता है। इस मनोरोग का इलाज पूर्णतः हो जाता है। इस रोग को मैनिक डिप्रैसिव डिसआर्डर या बायपोलर डिसआर्डर कहते हैं।

     भय या डर एक सामान्य अनुभव है, अगर यह डर बहुत बढ़ जाये तो इन असामान्य डरों को फोबिया कहा जाता है। फोबिया ऊँचाई, गहराई, अँधेरे, पानी या किसी और चीज़ से भी हो सकता है। इसकी जड़ें किसी पुराने हादसे से जुड़ी हो सकती हैं, जिन्हें व्यक्ति भूल भी चुका हो। उस हादसे का कोई अंश अवचेतन मन में बैठा रह जाता है। फोबिया का उपचार सायकोथैरेपी से किया जा सकता है। डर का सामना करने के लिये व्यक्ति तैयार हो जाता है।

     कभी-कभी जो होता नहीं है वह सुनाई देता है या दिखाई देता है। यह भ्रम नहीं होता मनोरोग होता है जिसका इलाज मनोचिकित्सक कर सकते हैं। इसके लिये झाड़-फूंक आदि में समय, शक्ति और धन ख़र्च करना बिलकुल बेकार है।

     एक अन्य रोग होता है 'ओबसैसिव कम्पलसिव डिसआर्डर', इसमें व्यक्ति एक ही काम को बार-बार करता है, फिर भी उसे तसल्ली नहीं होती। स्वच्छता के प्रति इतना सचेत रहेगा कि दस बार हाथ धोकर भी वहम रहेगा कि अभी उसके हाथ गंदे हैं। कोई भी काम जैसे ताला बन्द है कि नहीं, गैस बन्द है कि नहीं, दस बीस बार देखकर भी चैन ही नहीं पड़ता। कभी कोई विचार पीछा नहीं छोड़ता। विद्यार्थी एक ही पाठ दोहराते रह जातें हैं, आगे बढ़ ही नहीं पाते परीक्षा में भी लिखा हुआ बार-बार पढ़ते हैं, अक्सर पूरा प्रश्नपत्र हल नहीं कर पाते। इस रोग में डिप्रैशन के भी लक्षण होते हैं। रोगी की कार्य क्षमता घटती जाती है। इसका उपचार दवाइयों और व्यावाहरिक चिकित्सा से मनोचिकित्सक करते हैं। अधिकतर यह पूरी तरह ठीक हो जाता है।

     एक स्थिति ऐसी होती है जिसमें व्यक्ति तरह-तरह के शकों से घिरा रहता है। ये शक काल्पनिक होते हैं, इन्हें बढ़ा-चढ़ाकर सोचने आदत पड़ जाती है। सारा ध्यान जासूसी में लगा रहेगा तो कार्यक्षमता तो घटेगी ही, ये लोग अपने साथी पर शक करते रहते हैं, कि उसका किसी और से संबध है। इस प्रकार के पैरानौइड व्यवहार से घर का माहौल बिगड़ता है। कभी व्यक्ति को लगेगा कि कोई उसकी हत्या करना चाहता है, या उसकी सम्पत्ति हड़पना चाहता है। यदि घर के लोग आश्वस्त हों कि शक बेबुनियाद हैं तो उसे विशेषज्ञ को ज़रूर दिखायें।

     कभी-कभी शारीरिक बीमारियों के कारण डिप्रैशन हो जाता है। कभी उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर सोचने और उनकी चिन्ता करते रहने की आदत पड़ जाती है, सर में जरा सा दर्द हुआ तो कि लगेगा दिमाग़ में ट्यूमर है। इसको हायपोकौंड्रिया कहते हैं। इसका भी इलाज मनोवैज्ञानिक से कराना चाहिये।

     कुछ मनोरोग भोजन की आदतों से जुड़े होते हैं। कई लोग पतला होने के बावजूद भी अपना वज़न कम रखने की चिन्ता में घुलते रहते हैं। ऐनोरौक्सिया नरसोवा मे व्यक्ति खाना बेहद कम कर देता है, उसे भूख लगनी ही बन्द हो जाती है। बार-बार अपना वज़न लेता है। डिप्रैशन के लक्षण भी होते हैं। 

     बुलीमिया नरसोवा में भी पतला बने रहने की चिन्ता मनोविकार का रूप ले लती है। खाने के बाद अप्राकृतिक तरीकों से ये लोग उल्टी और दस्त करते हैं । ये मनोरोग कुपोषण की वजह से अन्य रोगों का कारण भी बनते हैं। अतः इनका इलाज कराना बहुत ज़रूरी है, अन्यथा ये घातक हो सकते हैं। बेहद कम खाना अनुचित है तो बेहद खाना भी ठीक नहीं है, कुछ लोग केवल खाने में सुख ढूँढते हैं। वज़न बढ़ जाता है, इसके लिये मनोवैज्ञानिक कुछ उपचारों का सुझाव देते हैं। अनिद्रा, टूटी-टूटी नींद आना या बहुत नींद आना भी अनदेखा नहीं करना चाहिये। ये लक्षण किसी मनोरोग का संकेत हो सकते हैं। बेचैनी, घबराहट यदि हद से ज़्यादा हो चाहें किसी कारण से हो या अकारण ही उसका इलाज करवाना आवश्यक है। इसके साथ डिप्रैशन भी अक्सर होता है।

     कभी-कभी व्यक्ति को हर चीज़ काली या सफ़ेद लगती है, या तो वह किसी को बेहद पसन्द करता है या घृणा करता है। कोई-कोई सिर्फ़ अपने से प्यार करता है, वह अक्सर स्वार्थी हो जाता है। ये दोष यदि बहुत बढ़ जायें तो इनका भी उपचार मनोवैज्ञानिक से कराना चाहिये, नहीं तो ये मनोरोगों का रूप ले सकते हैं।

     एक समग्र और संतुलित व्यक्तित्व के विकास में भी मनैज्ञानिक मदद कर सकते हैं। भावुकता व्यक्तित्व का गुण भी है और दोष भी, किसी कला में निखार लाने के लियें भावुक होना जरूरी है, परन्तु वही व्यक्ति अपने दफ्तर में बैठकर बात-बात पर भावुक होने लगे तो यह ठीक नहीं होगा। इसी तरह आत्मविश्वास होना अच्छा पर है परन्तु अति आत्मविश्वास होने से कठिनाइयाँ हो जाती हैं।

     मनोविज्ञान व्यवहार का विज्ञान है, यदि स्वयं आपको या आपके प्रियजनो को कभी व्यावाहरिक समस्या मालूम पढे तो अविलम्ब विशेषज्ञ से सलाह लें। जीवन में मधुरता लौट आयेगी।

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1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

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