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गुरुवार, 15 नवंबर 2012

दोहों की दीपावली: मयंक अवस्थी

दोहों की दीपावली: 
मयंक अवस्थी

राजेन्द्र स्वर्णकार- राजस्थानी 
दोरा-स्सोरा काटल्यां, म्है आडा दिन नाथ! 
दीयाळी तो आवतांहोवै बाथमबाथ!!
भावार्थ :-
देव! आम दिन तो हम जैसे-तैसे काट लेते हैं, (लेकिन) दीवाली तो आते ही गुत्थमगुथ हो जाती है।
(साफ़-सफ़ाई तथा अन्य परिश्रम और व्यय का अतिरिक्त बोझ बढ़ने के संदर्भ में)

हे लिछमी मा! स्यात तूं, बैवै आंख्यां मींच ! 
भगतू रह्यो अडीकतो, सेठ लेयग्यो खींच !!
भावार्थ :-
लक्ष्मी मैया! आप शायद नयन मूंदे हुए ही विचरण करती हैं। (तभी तो) निर्धन भक्त तुम्हारी प्रतीक्षा ही करते रह जाते हैं, (और) धनवान लोग तुम्हें बलात् खींचकर अपने घर ले जाते हैं।

दीयाळी रा दिवटियां! थांरी के औकात
धुख-धुखगाळां जूण म्है, सिळग-सिळगदिन-रात !!
भावार्थ :-
दीवाली के दीपकों! (हमारे समक्ष प्रतिस्पर्धा की) तुम्हारी क्या सामर्थ्य है? (तुम एक रात जल कर दर्प करते हो…) हम पूरा जीवन ही पल-पल जलते-सुलगते-धुखते हुए गला-गंवा-बिता देते हैं।

राजेन्द्र जी दोहों के भी स्वर्णकार हैंजिसे मिडास टच कहते हैं वो उनके कलम में हैराजस्थानी भाषा चूँकि दग्ध वर्णो का अधिक इस्तेमाल करती है इसलिये इसमें यथार्थ का समावेश जैसा कि उन्होंने पहले दोहे दोरा-स्सोरा.....  मे किया है और जैसी बेबसी दूसरे दोहे में पिरोई है तथा जैसा फल्सफा अंतिम दोहे में कहा है उसकी जितनी प्रशंसा की जाय कम होगी...... 
  
सौरभ पाण्डेय- भोजपुरी
जम-दीया आ सूप से भइल दलिद्दर दूर ।
पुलक गइल घर-देहरी, जगर-मगर भरपूर ॥   
जम-दीया = यम के नाम का दीप; आ = और; सूप = बाँस की फट्टियों से निर्मित अनाज फटकने हेतु प्रयुक्त; भइल = हुआ; दलिद्दर = दरिद्रता; पुलक गइल = हर्षित हुआ.

तुलसी माई साधि दऽ, पितरन के मरजाद।
नेह-छोह के सीत में, कोठ रहे आबाद ॥

माई = माता; साधि दऽ = साध दो, व्यवस्थित कर दो; पितरन के = पितरों का; मरजाद = मर्यादा, सीमायें, (यहाँ अपेक्षाओंको साधने के संदर्भ में लिया गया है); नेह-छोह = स्नेह-दुलार; सीत = ओस; कोठ = बाँस और वंश का उद्गम'
 
कूहा  तान  दुआर पर,  मावस ओदे भोर ।
मनल दिवाली राति भर, दियरी पोछसु लोर ॥

कूहा = कुहासा; तान = तानना; दुआर = द्वार, घर के सामने, बाहर का; मावस = अमावस; ओदना = नम करना, तर करना, भिगोना; दियरी = मिट्ट्छोटा दीया, पोछसु = पोछती है; लोर = आँसू.
  
सौरभ जी को साधुवाद इन तीन दोहों ने जो चित्र खींचे हैं वो भोजपुरी ज़बान ही नहीं परम्परा और परिवेश का  भी समर्थ प्रतिनिधित्व करते हैंये मात्र दोहे भर  नहीं बल्कि एक क्षेत्रीय परिवेश के सांस्कृतिक प्रतिनिधि भी हैं –अंतिम दोहे में पर्याप्त वेदना भी है इस  विधा में सम्प्रेषणीयता की जो सामर्थ्य है उसका एक सशक्त उदाहरण सौरभ जी के दोहे हैं

महेंद्र वर्मा - छत्तीसगढ़ी

देवारी के रात मा, दिया करै उजियार,
करिया मुंह ला तोप के, भागत हे अंधियार।
दीवाली की रात्रि में दीपक प्रकाश फैला रहे हैं और अंधेरा अपने काले चेहरे को छिपाकर भाग रहा है।

अंगना परछी मा दिया, बरगे ओरी-ओर,
रिगबिग रिगबिग करत हे, गांव गली अउ खोर।

आंगन और बरामदे में पंक्तिबद्ध दीपक जल गए हैं। दरवाजे और गलियों सहित पूरा गांव झिलमिल-झिलमिल कर रहा है।
नोनी मांगे छुरछुरी, बाबू नौ राकेट,
जेब टमड़ पापा कहय, अब्बड़ बाढ़े रेट।
अभिप्राय- बेटी फुलझड़ी मांग रही है और बेटा राकेट। पिता अपनी जेब टटोलते
हुए कह रहे हैं कि पटाखों के दाम बहुत बढ़ गए हैं।
  
महेन्द्र जी ने छत्तीसगढी जो शब्दचित्र  भेजे हैं इनमें उस क्षेत्र विशेष की वर्तमान प्रगति का पसमंज़र में आलेख भी छुपा है। यह सच है कि अपने अतीत की तुलना में छत्तीसगढ में अँधियारा भाग रहा है, दीपक झिलमिल करने लगे हैं भले ही देदीप्यमान अभी न हुये हों; और वहाँ की नई पीढ़ी उत्सव की उमंग के आगोश में है।
  

धर्मेन्द्र कुमार सज्जन - अवधी
कुटिया कै दियवा कहै, लौ बा सबै समान
महलन कै दियवन करैं, काहे के अभिमान
तन-मन जरिगा तेल के, आवा सबके काम
दीपक-बाती के भवा, सगरे जग में नाम
तन जरिके काजर भवा, मन जरि भवा प्रकाश
तेलवा जइसन हे प्रभो, हमहूँ होइत काश!
धर्मेन्द्र जी ने दीपक, बाती, तेल को इनकी स्वीकार्य सरहदों के पार के अर्थ इतनी खूबसूरती से पहनाये हैं कि इनके कलम को नमन करने का मन हो रहा है। महलों के दीपकों से कुटिया के दीपक साम्यवादी स्वर में बात कर रहे हैं  और परमपिता  की सत्ता में सभी जीवात्मायें बराबर हैं इसका उद्घोष कर रहे हैं। बहुत खूब!! अश्आर की जड़ों की भाँति जीवन के मूल स्रोत पसमंज़र में ही रहते हैं इसलिये जला कौन और नाम किसका हुआ यह बिम्ब भी मोहक आया है और तीसरे दोहे ने वाकई कबीर की याद ज़िन्दा कर दी है धर्मेन्द्र जी आपको शत-शत नमन।
  
ऋता शेखर 'मधु'
आँधी कुछ ऐसी चली,  बुझने लगे चिराग
प्रभु कुछ तो ऐसा करो, जगमग हों अनुराग
सतरंगी तारे उड़े, चमक गया आकाश
काली कातिक रात में, फैले दीप-प्रकाश
दीप-अवलि की ज्योति से, तम का हुआ विनाश
अंतर्मन उद्दीप्त हो, फैले प्रेम-प्रकाश
ऋता जी के दोहे, दोहा कहने की उनकी उत्कट साहित्यिक अभिलाषा और इस अभिलाषा के सबब उपजे साहित्यिक विभव  की बानगी हैं उन्होंने बिम्बों को कुशलतापूर्वक नहीं तो सफलतापूर्वक सन्दर्भों से बाँधा है इसमें कोई शक नहीं उनको बधाई !!!
  
श्याम गुप्त- ब्रजभाषा

लक्ष्मी-गणपति पूजिये, पावन पर्व अनूप,
बाढ़हि विद्या-बुद्धि-धन, मानुष हित अनुरूप |    
         
जरिवौ सो जरिवौ जरे, जारै जग अंधियार,
जड-जंगम जग जगि उठे, होय जगत उजियार
  
हिया अँधेरो मिटि रहै,  जागै अंतर जोत ,
हिलिमिलि दीपक बारिए, सब जग होय उदोत | 
   
श्याम गुप्त जी साहित्य के संघर्षरत योद्धा हैं और यहाँ पर इस आयोजन के गौरव में उन्होंने खासी अभिवृद्धि की है- "जड-जंगम जग जगि उठे, होय जगत उजियार" और "हिया अंधेरौ मिटि रहै,  जागै अंतर जोत", जैसी पंक्तियों का आध्यात्मिक विभव और साहित्यिक सौन्दर्य अति श्रेष्ठ हैउनको हार्दिक शुभकामनायें।
  
संजीव वर्मा 'सलिल'
मन देहरी ने वर लिये, जगमग दोहा-दीप.
तन ड्योढ़ी पर धर दिये, गुपचुप आँगन लीप..
कुटिया में पाया जनम, राजमहल में मौत.
रपट न थाने में हुई, ज्योति हुई क्यों फौत??
तन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास.
आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की आस..
दीप जला, जय बोलना, दुनिया का दस्तूर.
दीप बुझा, चुप फेंकना, कर्म क्रूर-अक्रूर..
आचार्य संजीव जी का आभार। जैसा यशस्वी नाम है उनका वैसा ही सौरभ बिखेरने वाला स्रजन भी है उनका। पहला दोहा साहित्यकार की दीर्घकालीन साहित्यिक तपस्या के सबब उपजा है मन देहरी ने वर लिये, जगमग दोहा-दीप। - दूसरा दोहा सामाजिक विभीषिका का स्वर मुखर करता हैजो भी कहकशायें हैं ये आफताब के पसीने से जन्मी हैं, इसी के जैसा विचार: कि कुटिया में निर्मिति और राजमहल में मौत!!! बहुत दूर की तख्य्युल की परवाज है ये। तीसरा दोहा शुद्ध अध्यात्म है और चौथा उत्सव मना रहा है। आचार्य सलिल जी दीपावली की आपको असीमित शुभकामनायें

                                                        
त्रिलोक सिंह ठकुरेला 
                   मन का अंधियारा मिटे, चहुंदिशि फैले प्यार
                   दीप-पर्व हो नित्य हीकुछ ऐसा कर यार
                  सुख की फुलझड़ियाँ जलें, सब में भरें उजास
                   पीड़ा और अभाव का, कभी न हो अहसास 
                   गली गली पसरे हुए, रावण के ही पाँव 
                   दीप पर्व पर राम सा, बने समूचा गाँव 
भाई त्रिलोक सिंह ठुकरेला जी ने बहुत सहज भाव से प्रकाश बिन्दुओं का स्रजन किया है उत्सव का मुंतज़िर साहियकार का मन अच्छी पंक्तियाँ कह गया और गली गली पसरे हुए ,रावण के ही पाँव .एक सर्थक आह्वाहन भी है। 
  
आशा सक्सेना
भले हाथ हैं तंग पर, मन में है त्यौहार
दीप मालिकाएं सजीं, ठौर-ठौर घर-द्वार
महँगाई के वार से, सजल सभी के नैन 
स्वागत है 'श्री' आप का, यद्यपि मन बेचैन
  
आशा दीदी ने सिद्ध किया है कि साहित्य समाज का दर्पण है।वर्तमान का ज्वलंत विषय है मँहगाईउसकी जकड़ से त्यौहार मनाने का उत्साह और त्यौहार मनाने की विवशता दोनों ही निकलना चाहते हैं। दोंनों दोहे सुन्दर हैं। आशा दीदी को सादर धन्यवाद इस प्रस्तुति के लिये।
धीरेन्द्र सिंह भदौरिया
उजलापन यह कह रहा, मन में भर आलोक
खुशियाँ बिखरेंगी सतत, जगमग होगा लोक
दीपक नगमे गा रहे, मस्ती रहे बिखेर
सबके हिस्से है खुशी, हो सकती है देर
आता है हर साल ही, दीपों का त्यौहार
दीपों से ले प्रेरणा, मान कभी मत हार 
धीरेन्द्र भाई के दोहों में शुभकामना सन्देश, आशा और आशा पर विश्वास निहित है। यह पर्व 'तम सो मा ज्योतिर्गमय' और अन्धकार पर प्रकाश की विजय का त्यौहार है। उन्होंने इस धारणा को सम्बल दिया है। उनका अभिवादन।
सत्यनारायण सिंह- अवधी
हर घर दियना से सजा, तोरन सजा दुवार
खुशियां बांटै आय गा, दीवाली त्यौहार
जग सोहत है दीप से, तरइन से आकास
मुदित होत मन मीत से, पाय दियां परकास
दियां जाग, बाती जगी, जग गा सोवा भाग
सजना छबि नयना बसी, मन जागा अनुराग

सत्यनारायण जी दीपोत्सव को प्रेमोत्सव के रूप में देखते हैं। पहले दोहे में दीवाली के आगाज़ के साथ शेष दो दोहों में उन्होंने ज्योति को प्रेम शिखा के रूप में देखा है और दोहों की परम्परा से प्राप्त भाषा को स्वाकृति दी है।आपका अभिनन्दन सत्यनारायण जी। 
अरुण कुमार निगम- छत्तीसगढ़ी 

अँधियारी हारय सदा, राज करय उजियार
देवारी मा तयँ दिया, मया-पिरित के बार

नान-नान नोनी मनन, तरि नरि नाना गायँ
सुआ-गीत मा नाच के, सबके मन हरसायँ

जुगुर-बुगुर दियना जरिस, सुटुर-सुटुर दिन रेंग
जग्गू घर-मा फड़ जमिस, आज जुआ के नेंग
(देवारी=दीवाली, तयँ=तुम, पिरित=प्रीत,  नान-नान=छोटी-छोटी, नोनी=लड़कियाँ, “तरि नरि नाना”- छत्तीसगढ़ी के पारम्परिक सुआ गीत की प्रमुख पंक्तियाँ,  जुगुर-बुगुर=जगमग-जगमग, दियना=दिया,  दीपक, जरिस=जले, सुटुर-सुटुर=जाने की एक अदा, दिन रेंग=चल दिए, फड़ जमिस=जुआ खेलने के लिए बैठक लगना, नेंग=रिवाज)
अरुण निगम साहब का मुझे हमेशा इंतज़ार रहता है। दीवाली का अध्यात्मबालोत्साह, और द्यूतक्रीड़ा यह तीन शब्दचित्र छत्तीसगढ को शायद सैंकड़ों सरकारी विज्ञापनों से अधिक सामर्थ्य के साथ दिखा पा रहे हैं। शायद छत्तीसगढ की प्रगति इसे राज्य का दर्ज़ा मिलने के बाद संक्रमण काल में है इसलिये पाश्चात्य संस्कृति का हमला इसके साहित्यिक उद्भव पर अभी आघात नहीं कर पाया है। बंगला, तमिल, मलयालम, गुजराती जैसे समृद्ध क्षेत्रीय साहित्य में भी यह शक्ति नहीं दिखाई देती जितनी ताकत छत्तीसगढ के दोहों में दिखाई दी है। इस बोली का  भविष्य निश्चित रूप से उज्ज्वल है।  इस राज्य को और इस बोली पर राज्य करने वाले अरुण जी को नमन।
 उमाशंकर मिश्रा
धानों की ये बालियाँ, प्रगट करें उदगार
बाली पक सोना भई, जगमग है त्यौहार
पर्व अमीरों का बने, बम-बारुदी शोर
दर्प हवेली का रहा, कुटिया को झकझोर
आँगन-आँगन लक्ष्मी, निज पग देय सजाय
नन्हा दीपक  सूर्य सी,  आभा दे बिखराय 

उमाशंकर जी आपने मोहक दोहे कहे। इनकी भावभूमि अन्य दोहों से अलग और आकर्षक है। साहित्यकार ने दीवाली के प्राकृतिक, भावनात्मक और वसुधैव कुटुम्बकम रूपों के चित्र खींचे हैइस चेतना और इस भावना और इस अभिव्यक्ति का हार्दिक  स्वागत हैदोहों पर आपको दाद!!

नवीन सी. चतुर्वेदी- ब्रजभाषा (मथुरा देहात)
  
ल्हौरी लीपै चौंतरा, बीच कि [की] चौक पुरात
बड़ी बहू सँग डोकरी, हलुआ-खीर बनात

घर-दर्बज्ज्न पे रखौ, चामर-फूल बिखेर
सब घर लछमी जाउतें, कम सूँ कम इक बेर


पाँइन मोजा-पायजो, द्वै-फुट लम्बी लाज
फटफट पे धौरन चली, दीवारी के काज   

ल्हौरी = छोटी, डोकरी = बड़ी उम्र वाली सास, दर्बज्जन पे = दरवाजों पर, चामर फूल = अक्षत पुष्प [सुख-शांति प्रतीक], जाउतें = जाती हैं, इक बेर = एक बार,एक समय
 
बचपन [70s-80s] की स्मृतियों का दृश्य है, अब शायद ऐसा न होता हो। मथुरा के बाज़ारों में देहात से काफ़ी लोग दिवाली ख़रीद के लिये आते थे, सायकिल, मोटर सायकिल [फटफट] पर और कभी कभी लूना टाइप मोपेड्स पर भी। पीछे उन की ज़नानी होती थीं, माँ=बहन-बीबी कोई भी। ख़ास बात ये कि वे स्त्रियाँ पैरों में मोज़े पहनती थीं, उन मोज़ों पर पायजेब और फिर [ज़ियादातर मर्दानी] सेंडल्स। लाज यानि घूँघट गज भर का होना अनिवार्य था। उसी दृश्य को बाँधने का प्रयत्न किया है। गाँव के गबरू जवान को 'धौरे' कहने का रिवाज़ था तो हम उन की जोरुओं को 'धौरन' कहते थे।
........ और अब बात मथुरा/ब्रज के उस किरदार की कर ली जाए जिसने कच्चे धागों से इस एक छोटे से साहित्यिक संसार को बाँध रखा हैयानि नवीन भाई की बात। पहले दोहे में छोटी बहू चौंतरा [चबूतरा] लीप रही है, मँझली चौक पुरा रही है और बड़ी सास के साथ खाना बना रही है, एक अच्छा पारिवारिक चित्र। दूसरे दोहे में पुरुष-पुरातन की वधू [माता] लक्ष्मी मनुष्य मात्र की अभीप्सा और प्रतीक्षा दोनों ही हैं इसलिये यही कामना कि हर घर एक बार ज़रूर जाती है, में अभिव्यक्त हुई है। यह भावना सदा जीवित रहे। अंतिम दोहे पर साधुवाद जो कि व्याख्या  भी चाहेगा कि यह चित्र कहाँ का है; जहाँ स्त्रियाँ समस्त परम्पराओं-वर्जनाओं का भार वहन करते हुये भी जीवन के दैनंदिक कार्यों में शामिल हैं। नवीन भाई बड़े वृक्ष की जड़ें गहरी होती हैं अपनी मिट्टी में बहुत अन्दर तक जाने वाली, आप मुम्बई में रहते हैं और आपमें इतना सारा 'गाँव' बसा हुआ है। दोहे कलम से नहीं,  दिल से निकले हैं। 
प्रकाश पर्व दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ, चलते-चलते एक सोरठा भी....... 
 
मावस का 'तम-पाश', हम कब तक सहते भला
जगर-मगर आकाश, इक दिन तो कर ही दिया

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