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मंगलवार, 20 नवंबर 2012

कवि और कविता: अखिलेश श्रीवास्तव

कवि और कविता:

अखिलेश श्रीवास्तव

*
अखिलेश जी की कवितायेँ पारिस्थितिक वैषम्य और त्रासदियों से जूझते-टूटते निरीह मनुष्यों की व्यथा-कथा हैं। सत्यजित राय की फिल्मों की तरह इन कविताओं में दम तोड़ते आखिरी आदमी की जिजीविषा मुखर होती है। कहीं भी कोई आशा-किरण न होने, पुरुषार्थ की झलक न मिलने के बाद भी जिन्दगी है कि  जिए ही जाती है। चौर खुद्दी दिहाड़ी जैसे जमीन से जुड़े शब्द परिवेश की सटीक प्रतीति कराते हैं। जीवंत शब्द चित्र इन कविताओं को शब्दों का कोलाज बना देते हैं।
गोरखपुर उत्तर प्रदेश के निवासी अखिलेश जी हरकोर्ट बटलर टैक्नोलोजिक्ल इंस्टीटयूट कानपूर सेरासायानिक अभियांत्रिकी की शिक्षा प्राप्त कर वर्तमान में जुबिलेंट लाइफ साइंसेस लिमिटेड ज्योतिबा फुले नगर में उप प्रबंधक हैं। sampark sootr: JUBILANT LIFE SCIENCES LIMITED Bhartiagram,  
 
Distt.Jyotiba Phoolay Nagar, Gajraula - 244223   T: 7013 |
 
E-mail AkhileshSrivastava@jubl.com |Web Site : www.jubl.com

चीनी, दाल, चावल और गेहूँ


चीनी:
पिता जी चिल्लाकर
कर रहे हैं रामायण का पाठ
बेटा बिना खाए गया है स्कूल
छुटकी को दी गयी है नाम कटा
घर बिठाने की धमकी
माँ एकादसी के मौन व्रत में
बड़बड़ाते हुए कर रही है
बेगान-स्प्रे का छिड़काव
हुआ क्या है?
कुछ नहीं ...
कल रात
चिटियाँ ढो ले गयी हैं
चीनी के तीन दाने
रसोई से।
*
दाल :
बीमार बेटे को
सुबह का नुख्सा और
दोपहर का काढ़ा देने के बाद
वो घोषित कर ही रहा होता है
अपने को सफल पिता
कि
वैद्य का पर्चा डपट देता है उसे
सौ रुपये की दिहाड़ी में कहाँ से लायेगा
शाम को
दाल का पानी
*
चावल :
आध्यात्मिक भारत बन गया है
सोने की चिड़िया
और चुग रहा है मोती
पर छोटी गौरैया की
टूटे चोच से रिस रहा है खून
जूठी पर
साफ़ से ज्यादा साफ़
थालियों में आज भी
नहीं मिल पाया चाउर खुद्दी का
इक भी दाना
बेहतर होता
अम्मा की नज़र बचा
खा लेती
नाली के किनारे के
दो चार कीड़े।
*
गेहूँ:
तैतीस करोड़ देवताओ में
अधिकांश को मिल गए हैं
कमल व गुलाब के आसन
पर लक्ष्मी तो लक्ष्मी है
वो क्षीर सागर में लेटे
सृष्टिपालक विष्णु के
सिरहाने रखे
गेहूँ की बालियों पर
विराजमान हैं।
*
विदर्भ: कर्जे में कोंपल

मैं इक खेतिहर बाप हूँ
पर कहाँ से छीन कर लाऊँ रोटी.
सुना है कुछ लोग लौटे है कल चाँद से
रोटी जैसा दिखता था कमीना
पत्थर निकला.
बरसों हुए खेत में
बिना कर्जे की कोपल फूटे.
धरती चीर कर निकले
छोटे छोटे अंकुर
मेड पर साहूकार देखते ही
सहम जाते है.

अंकुर की पहली दो पत्तियाँ
सीना ताने आकाश से बाते नहीं करती
वो मिट्टी‌ की तरफ झुकी रहती है
मेरे कंधे की तरह.
हर पिछली पत्ती
नयी निकलने वाली कोंपल को
बता देती है पहले ही
तेरे ऊपर जिम्मेदारी ज्यादा है
ब्याज बढ़ चुका है पिछले दस दिनों में.
अपने बच्चे का बचपन बचा पाने की कोशिश में
हर किसान देखना चाहता है अपने पौधों को
समय से पहले बूढ़ा.
प्रधान के लहलहाते खेतों को देखकर
जाने क्या बतियाते रहते है मेरे पौधे
कल निराई करते समय सुनी थी मैंने
दो की बात
इस जलालत की जिंदगी से मौत अच्छी है
मेरे राम
दयालु राम सुनते हैं उनकी प्रार्थना
एक साल अगन बरसा ले लेते है अग्नि परीक्षा
दुसरे साल दे देते हैं जल समाधि अपने भक्तों को
अपनी तरह.

मेरा लंगोटिया यार बरखू किसान भी मेरे जैसा ही है
उसके यहाँ भी कोई नहीं मना करता बच्चों को
मिट्टी‌ खाने से.
विज्ञान औंधे मुँह गिरा है विदर्भ में
वहाँ मिट्टी‌ खाने से मर जाते है पेट के कीड़े.
कुँआ कूद कल मरा है बरखू
घर में सब डरे हैं कि
अपने घर में सब के सब जिन्दा है अब तक.
बीजों पर कर्जा
रेहन पर खेत
अब क्या बेचूँ?
मुँह में पल्लू ठूँस लेती है मेरी बीवी
मेरा सवाल सुनकर
रोने की आवाज़ सुनकर जाग गए बच्चे
तो फिर जपने लगेंगे
नारद की तरह रोटी-रोटी

अपने बालों को बिखराए
चेहरे पर खून के खरोंचे लिए
मुँह से फेन गिराती
पिपरा के पेड़ के नीचे
कल शाम से खिलखिला कर हँस रही है
मेरी घरतिया
दो माह के दुधमुँहे छुटके को
दो सौ में बेच कर आयी है डायन
आज मेरे चारों बच्चे भात और रोटी
दोंनों खा रहे है
पांचवा मैं खा लूँ गर
थोड़ा सा भात
पांच लोगों को श्राद्ध खिलाने की
पंडित जी की आज्ञा पूरी हो
मिल जाये छुटके को जीते जी मोक्ष.
*

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