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शनिवार, 3 नवंबर 2012

गीत: सागर में गिरकर... सीमा अग्रवाल

गीत:

सागर में गिरकर...



सीमा अग्रवाल 
*
सागर में गिर कर हर सरिता बस सागर ही हो जाती है 
लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है 

अस्तित्व स्वयं का तज बोलो 
किसने अब तक पाया है सुख 
गिरवी स्वप्नों की रजनी का 
चमकीला हो कैसे आमुख 

खोती प्रभास दीपक की लौ, जब सविता में घुल जाती है 
लहरें बन ..........

हो विलय ताम्र कंचन के संग 
खो जाता कंचन हो जाता 

कर सुद्रढ़ सुकोमल स्वर्ण गात 
निजता पर प्रमुख बना जाता

तज स्वत्व हेम हित ताम्र ज्योति बन हेम स्वयं मुसकाती है 
लहरें बन ..........

खो कर भी निज सत्ता खुद का 
अभिज्ञान सतत रखना संचित 

माधुर्यहीन,हो क्यों नदीश में 
सलिला सम रहना किंचित 

तांबा सोने में मुस्काता ,तरणी क्षारित कहलाती हैं 
लहरें बन व्याकुल ............

9 टिप्‍पणियां:

UMASHANKER MISHRA ने कहा…

UMASHANKER MISHRA

आदरणीया सीमा जी

आपकी परिकल्पना आपकी सोच पर आशचर्य चकित हो जाता हूँ

आपके द्वारा उद्धृत शब्द आपकी साहित्य प्रवीणता को परिलक्षित करती है

माँ सरस्वती की आपार कृपा है

गिरवी स्वप्नों की रजनी का
चमकीला हो कैसे आमुख

आपको पढ़ हम धन्य हो रहे हैं

ह्रदय से बधाई

राज़ नवादवी ने कहा…

राज़ नवादवी

वाह वाह वाह-

सागर में गिर कर हर सरिता बस सागर ही हो जाती है
लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है

दरिया का तो सागर में डूब के काम हो गया, अब सागर की समस्या है कि वो लहरों पे काबू रखे और उनकी निगहबानी करे. खूबसूरत रचना पे बधाई हो आदरणीया सीमा जी!

Saurabh Pandey ने कहा…

Saurabh Pandey

सीमाजी, ऐसा ?.. .
वैयक्तिकता तथा वैयक्तिक अवधारणाओं के मध्य अंतर स्पष्ट हों तो ऐसी सोच को जीना.. ?!!..

एक समय के बाद, सीमाजी, प्रस्तुतियों में शाब्दिकता या गठन मात्र नहीं विचारों का संप्रेषण देखना समीचीन हुआ करता है. ऐसा हमेशा तो नहीं परन्तु, कई संदर्भों में. उस हिसाब से संघुलन हेतु हेय आयाम का तय होना असहज कर गया. आपसे अब इतना कुछ स्पष्ट रूप से साझा करने की सात्विकता तो है ही.

व्याकुलता हृदय-मस्तिष्क में व्याप जाया करती है. इस व्यापने के लिये ’बनना’ क्रिया उचित होगी क्या?

रचना पर विशेष नहीं कहूँगा. भाव-संप्रेषण हेतु उच्च मानदण्ड आपका सदा से यूएसपी रहा है. यह रचना भी अलग नहीं है. हार्दिक बधाई.

सादर

seema agrawal ने कहा…

seema agrawal

आदरणीय सौरभ जी

रचना के माध्यम से दो समान परिस्थितियों के भिन्न परिणामो को बताने कि कोशिश की है जिसे अंतिम बंद के माध्यम से स्पष्ट करने कि कोशिश भी की है आपका प्रश्न शायद इन पंक्तियों के सन्दर्भ में है

'लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है'

//व्याकुलता हृदय-मस्तिष्क में व्याप जाया करती है//

सौरभ जी व्याकुलता भले ही ह्रदय और मस्तिष्क में व्यापती है पर व्यवहार में परिलक्षित भी तो होती है लहर सिर्फ प्रतीक है उस उद्ग्विनता का ......

बात अपरिहार्य परिस्थितियों की है जो किसी के भी जीवन में यदा-कदा आतीं ही रहतीं हैं एक ऐसी स्थिति जहां आपके समक्ष जो उसमे और आपमे किसी भी गुण धर्म का अंतर विशाल हो ........ऐसे में स्वयं को स्थापित रखना एक चुनौती होती है जो इसे दृढ़ता से स्वीकारता है वो सफल होता है अन्यथा निजता खोने की व्याकुलता ...........

Dr.Prachi Singh ने कहा…

Dr.Prachi Singh

बहुत सुन्दर गीत आदरणीया सीमा जी, कल पढ़ा था इस गीत को पर तब कुछ व्यस्तताओं के चलते टिपण्णी नहीं दे पायी
सागर में गिर कर हर सरिता बस सागर ही हो जाती है

लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है ....................................बहुत सुन्दर शब्द चित्र, आज पूरे रास्ते आपकी इन दो पंक्तियाँ का कई कई भावों और विचारों के साथ मन मस्तिष्क में खेल चलता रहा और कब कॉलेज आ गया पता ही नहीं चला.


अस्तित्व स्वयं का तज बोलो किसने अब तक पाया है सुख .......................यह सही भी है और नहीं भी, अस्तित्व को पूर्णतः विलीन कर देना ही चिदानंद का मार्ग है, पर जब तक 'मैं' जीवित है ये अस्तित्व स्वयं को विलीन होने ही नहीं देता. दूसरा दृष्टिकोण यह भी है कि यदि अस्तित्व को स्वेच्छा से विलीन होने दिया जाए तो यह आनंदकर होता है, और यदि आरोपित बाध्यता हो तो यह एक तड़प बन जाता है.

गिरवी स्वप्नों की रजनी का
चमकीला हो कैसे आमुख ....................जिस पीड़ा को शब्द दिए गए हैं वह संप्रेषित हो ह्रदय संवेदित कर रही है

खोती प्रभास दीपक की लौ, जब सविता में घुल जाती है
लहरें बन ..........
खो कर भी निज सत्ता खुद का
अभिज्ञान सतत रखना संचित ......................यहाँ भी भाव बहुत सुन्दर हैं पर पुनः मन में विरोधाभासी ख़याल ला रहे है , जैसे पूर्ण समर्पण या स्व को मिटाना पर इस बोध के साथ कि मैं भी कुछ हूँ , क्या तब पूर्ण विलय संभव है? . व्यवहारिक ज़िंदगी से सापेक्ष देखें तो लगता है, कि समर्पण को कमजोरी न समझा जाए इस लिए ये कहना उचित है .

आपके गीतों के शब्द हमेशा एक मोहपाश में बाँध लेते हैं . इस सुन्दर गीत हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया सीमा जी

Saurabh Pandey ने कहा…

Saurabh Pandey

//पर व्यवहार में परिलक्षित भी तो होती है लहर सिर्फ प्रतीक है उस उद्ग्विनता का ...//

अच्छा. अब मैं आपकी रचना के मुखड़े को पुनः लेता हूँ -

सागर में गिर कर हर सरिता बस सागर ही हो जाती है
लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है

लहरें बन फिर व्याकुल हो कर तटबंधों से टकराती है.

कृपया देखियेगा, उपरोक्त पंक्ति के माध्यम से आपके विचार स्पष्ट हो पा रहे हैं ?


सीमाजी, जो कुछ मैंने अपनी पिछली टिप्पणी में साझा किया है, उसे संपूर्णता में देखियेगा. सं गच्छध्वं, सं वदध्वं.. की आवृतियों के बाद वैयक्तिकता, भले कितनी ही अपरिहार्य क्यों न प्रतीत होती हो, शब्द-संप्रेषण के क्रम में ऐसे उदाहरणों के आलोक में देखना, जिन्हें मणिकाञ्चन या अन्योन्याश्रय सम्मिलन के संदर्भ में लिया जाता रहा है, झटके दे गया. कि, क्या ताम्र का स्वर्ण से सम्मिलन, या, नदी का नदीश से सम्मिलन आदि आरोपित बन्धनों के समकक्ष रखा जा सकता है !? ऐसे सम्मिलन के पश्चात भी, ये सब अपनी वैयक्तिकता फिर भी जीते हैं, तो क्या दो वृतों की परिधियों पर परस्पर काट-विन्दु का निर्माण होना अनवरत दुखों का कारण नहीं होगा ?

आदरणीया सीमाजी, उच्च-सम्मिलन की अवधारणा वस्तुतः दो वृतों की प्रच्छन्न इकाइयों और उनकी परिधियों का परस्पर अतिक्रमण के समकक्ष न हो कर संकेन्द्रित वृतों (स्पाइरल सर्किल्स) का परस्पर निर्माण के समकक्ष है. जिसके अंतर्गत किसी वृत की परिधि दूसरे वृत की परिधि पर कोई काट-विन्दु का निर्माण नहीं करती, अपितु सर्वस्वीकार्यता के अंतर्गत एक दूसरे को लगातार समेटती चली जाती है. यह व्यक्तिगत ही सही किन्तु, सम्मिलन की आदर्श अवधारणा है.

सीमाजी, आरोपित साहचर्य सम्मिलन का पर्याय न हो कर समझौते (कम्प्रोमाइज) का प्रारूप होते हैं. और, समझौते का जीवन इस देश-काल के लिये सर्वथा आरोपित अवधारणा है. इस पर फिर कभी.. .

rajesh kumari ने कहा…

rajesh kumari

बहुत सुन्दर गीत लिखा है सीमा जी स्वेच्छा से किया सम्पूर्ण विलय आंतरिक आलोकिक सुख प्रदान करता है ताम्र स्वर्ण सुख पाता है तो सरिता भी विशालता प्राप्त करती है जहां अहम् हो वहां सम्पूर्ण समर्पण होता ही कहाँ है बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर गीत के लिए

Laxman Prasad Ladiwala ने कहा…

Laxman Prasad Ladiwala

बहुत सुन्दर मधुरम गीत पढ़कर मन आनंदित हो गया आदरणीया सीमा अग्रवाल जी, सागर में सरिता, मधुर मिलन में (पति- पत्नी) जब एक दूजे में समा जाते, दीपक की लौ दीया में बाति, कंचन धातु में ताम्र जैसे विलय पश्चात अपना अस्तित्व खो (समाहित) कर देते है, कहना चाहिए नौछावर कर देते है,ऐसे और भी उदहारण है जैसे गुरु/इश्वर भक्ति में लीन शिष्य | फिर भी इनका अपना महत्त्व सदा बना रहता है, इनका अपना आदर्श भी सबके सम्मुख रहता है | इसलिए गीत की अंतिम पंक्तिया बहुत ही प्रभाव पूर्ण है :-
खो कर भी निज सत्ता खुद का
अभिज्ञान सतत रखना संचित
माधुर्यहीन,हो क्यों नदीश में
सलिला सम रहना किंचित

हार्दिक बधाई स्वीकारे |

sanjiv verma salil ✆ ने कहा…

सीमा जी!
आपकी उर्वरा कल्पनाशक्ति और कलम को नमन।
गीत का सृजन और विवेचना दो भिन्न आयाम है। गीति काव्य की रचना भावनाप्रधान कर्म है जिसमें तर्क या विवेचना गौड़ है। गीत को पढ़कर समझना पाठक की पात्रता और मनोभूमि पर निर्भर करता है। आपके इस गीत पर हुई स्वस्थ्य परिचर्चा के सभी सहभागियों को बधाई।
सागर में गिर कर हर सरिता बस सागर ही हो जाती है
लहरें बन व्याकुल हो हो फिर तटबंधों से टकराती है
मेरी बाल बुद्धि के अनुसार सरिता जलप्रपात, गव्हर या निर्झर में गिरती कही जाती है, सागर में विलय के समय सागर की और ढाल पर बहती हुई सागर से मिल जाती है। मुझे लगता है 'गिरकर' के स्थान पर 'मिलकर' अधिक उपयुक्त होता। भाव की दृष्टि से 'गिरना' पतन का पर्याय है, 'मिलना' समानता या समर्पण का।
सरिता लहरों का ही समुच्चय है। सरिता और सागर का मिलन लहरों का लहरों से मिलन है। 'लहरें बन' से आभासित होता है कि मिलन के पश्चात् लहरों का निर्माण हुआ और वे बार-बार व्याकुल होकर तटबंधों से टकराती हैं। व्याकुलता विवशताजनित ही हो सकती है, स्वेच्छा में तो सुख की प्रतीति होती फिर टकराना नहीं ... 'हो' का दुहराव इंगित करता है कि व्याकुलता बार-बार हो रही है और टकराना केवल एक बार। 'हो फिर फिर' होता तो व्याकुलता की क्रिया एक बार और टकराने की क्रिया की आवृत्ति इंगित होती।
'बन' क्रिया को भी दो तरह से लिया जा सकता है... पहला लहरों का बनना दूसरा व्याकुलता की मनःस्थिति का बनना।
रचनाकार भाव-प्रवाह का माध्यम बन रचना करता है। पाठक प्रायः सहज भाव से उस भाव में डूबता है और समीक्षक उसके विविध आयामों की तलाशता है। मानस की विवेचना हर विवेचक अपनी दृष्टि से करता है। सम्भाव्तन स्वयं तुली भी इतने प्रकार से विवेचित नहीं करते रहे होंगे।
'बहु विधि कहहिं सुनहिं सब संता'... आजकल किसी रचना पर ऐसी चर्चा विरल होती है। अतः, यह मंच, पाठक, आप और रचना सभी साधुवाद के पात्र हैं।
प्रथम अन्तरा मिलन से अस्तित्व मिटने और दूसरा अन्तरा मिलन से अस्तित्व समुन्नत होने के ऊपर से विरोधाभासी प्रतीत होते किन्तु मूलतः परिपूरक भावों को इन्गित करते हैं। यहाँ तथ्य और तत्त्व स्पष्टता से अभिव्यक्त हो सके हैं। 'लौ' और 'सविता' का स्त्रीलिंग होना या 'ताम्र' और 'स्वर्ण' का पुल्लिंग होना सायास नहीं प्रतीत हुआ।
'खो कर भी निज सत्ता खुद का / अभिज्ञान सतत रखना संचित' यह रचनाकार द्वारा दी गयी सीख या रचना का उद्देश्य है। 'तांबा सोने में मुस्काता, तरणी क्षारित कहलाती हैं' यह निष्कर्ष पाठक को सोचने के लिए प्रेरित करता है।
सारतः रचनाकार न मिलन की पैरवी करता है न विरोध... वह मिलन के दोनों पक्षों को इंगित कर उनके परिणाम पाठक के सामने परोस देता है। मिलन कब-कहाँ उत्थानपरक है, कहाँ पतनोन्मुख मिलन के पूर्व यह विचारना आवश्यक है। अस्तु...
मेरी बाल-बुद्धि कुछ गलत समझ रही हो तो कृपया, मार्गदर्शन करियेगा।