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बुधवार, 29 अगस्त 2012

: आज का विचार : thought of the day :

: आज का विचार : thought of the day :

जीवन में शुभ-सुन्दर घटता तभी 'सलिल'
अशुभ-असुंदर से जब खुद को दूर रखो।

 *
आजू-बाजू  हों या मीलों दूर रहें।
दिल के निकट रहें जो उनको मित्र कहें।
*

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

लघु कथा: ऐसा क्यों? -संतोष भाऊवाला

लघु कथा:
ऐसा क्यों?
 

 
संतोष भाऊवाला 
*
कुमारी का अपने पति से झगडा हो गया था I

उसका घर छोड़ कर वह अपनी माँ के घर रहने लग गई थी I  सुबह शाम मंदिर जाती और दिन में दूसरों के घर का काम कर अपना पेट पाल रही थी I

माँ बाप ने वापस जाने के लिये बहुत समझाया पर नहीं मानी I अब तो अजीबो गरीब हरकते करने लगी थी I कहती थी... उसमे माता का वास है जब जोर जोर से सिर हिलाती तो सभी उसके पैर छूने लगते ...जब वो ये बाते मुझे बताती तो मेरा मन नहीं मानता था .... कैसे किसी  लड़की में माता का वास हो सकता है , वह  माता स्वरुप हो सकती  है?

मैंने उससे पूछा: 'तुम दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेती?'

कहती थी: 'ऐसी बात करना भी मेरे लिये पाप है अब मै देवी हूँ  I' मै चुप हो जाती क्या कहती?...

कल कोई बता रहा था कि कुमारी किसी के साथ भाग गई, वह भी दो बच्चों के पिता के साथ .....
 *


ॐ श्री राम रक्षा स्तोत्र दोहानुवाद संजीव 'सलिल'



श्री राम रक्षा स्तोत्र दोहानुवाद




दोहा अनुवाद: संजीव 'सलिल'


विनियोग



श्री गणेश-विघ्नेश्वर, रिद्धि-सिद्धि के नाथ ।
चित्र गुप्त लख चित्त में, नमन करुँ नत माथ।।
ऋषि बुधकौशिक रचित यह, रामरक्षास्तोत्र।
दोहा रच गाये सलिल, कायथ कश्यप गोत्र।।
कीलक हनुमत, शक्ति सिय, देव सिया-श्री राम।
जाप और विनियोग यह, स्वीकारें अभिराम।।


ध्यान



दीर्घबाहु पद्मासनी, हों धनु-धारि प्रसन्न।
कमलाक्षी पीताम्बरी, है यह भक्त प्रपन्न।।
नलिननयन वामा सिया, अद्भुत रूप-सिंगार।
जटाधरी नीलाभ प्रभु, ध्याऊँ हो बलिहार।।



श्री रघुनाथ-चरित्र का, कोटि-कोटि विस्तार।
एक-एक अक्षर हरे, पातक- हो उद्धार।१।

नीलाम्बुज सम श्याम छवि, पुलिनचक्षु का ध्यान।
करुँ जानकी-लखन सह, जटाधारी का गान।२।

खड्ग बाण तूणीर धनु, ले दानव संहार।
करने भू-प्रगटे प्रभु, निज लीला विस्तार।३।

स्तोत्र-पाठ ले पाप हर, करे कामना पूर्ण।
राघव-दशरथसुत रखें, शीश-भाल सम्पूर्ण।४।

कौशल्या-सुत नयन रखें, विश्वामित्र-प्रिय कान।
मख-रक्षक नासा लखें, आनन् लखन-निधान।५।

विद्या-निधि रक्षे जिव्हा, कंठ भरत-अग्रज।
स्कंध रखें दिव्यायुधी, शिव-धनु-भंजक भुज।६।

कर रक्षे सीतेश-प्रभु, परशुराम-जयी उर।
जामवंत-पति नाभि को, खर-विध्वंसी उदर।७।

अस्थि-संधि हनुमत प्रभु, कटि- सुग्रीव-सुनाथ।
दनुजान्तक रक्षे उरू, राघव करुणा-नाथ।८।

दशमुख-हन्ता जांघ को, घुटना पुल-रचनेश।
विभीषण-श्री-दाता पद, तन रक्षे अवधेश।९।

राम-भक्ति संपन्न यह, स्तोत्र पढ़े जो नित्य।
आयु, पुत्र, सुख, जय, विनय, पाए खुशी अनित्य।१०।



वसुधा नभ पाताल में, विचरें छलिया मूर्त।
राम-नाम-बलवान को, छल न सकें वे धूर्त।११।

रामचंद्र, रामभद्र, राम-राम जप राम।
पाप-मुक्त हो, भोग सुख, गहे मुक्ति-प्रभु-धाम।१२।

रामनाम रक्षित कवच, विजय-प्रदाता यंत्र।
सर्व सिद्धियाँ हाथ में, है मुखाग्र यदि मन्त्र।१३।

पविपंजर पवन कवच, जो कर लेता याद।
आज्ञा उसकी हो अटल, शुभ-जय मिले प्रसाद।१४।

शिवादेश पा स्वप्न में, रच राम-रक्षा स्तोत्र।
बुधकौशिक ऋषि ने रचा, बालारुण को न्योत।१५।

कल्प वृक्ष, श्री राम हैं, विपद-विनाशक राम।
सुन्दरतम त्रैलोक्य में, कृपासिंधु बलधाम।१६।

रूपवान, सुकुमार, युव, महाबली सीतेंद्र।
मृगछाला धारण किये, जलजनयन सलिलेंद्र।१७।

राम-लखन, दशरथ-तनय, भ्राता बल-आगार।
शाकाहारी, तपस्वी, ब्रम्हचर्य-श्रृंगार।१८।

सकल श्रृष्टि को दें शरण, श्रेष्ठ धनुर्धर राम।
उत्तम रघु रक्षा करें, दैत्यान्तक श्री राम।१९।

धनुष-बाण सोहे सदा, अक्षय शर-तूणीर।
मार्ग दिखा रक्षा करें, रामानुज-रघुवीर।२०।



राम-लक्ष्मण हों सदय, करें मनोरथ पूर्ण।
खड्ग, कवच, शर,, चाप लें, अरि-दल के दें चूर्ण।२१।

रामानुज-अनुचर बली, राम दाशरथ वीर।
काकुत्स्थ कोसल-कुँवर, उत्तम रघु, मतिधीर।२२।

सीता-वल्लभ श्रीवान, पुरुषोतम, सर्वेश।
अतुलनीय पराक्रमी, वेद-वैद्य यज्ञेश।२३।

प्रभु-नामों का जप करे, नित श्रद्धा के साथ।
अश्वमेघ मख-फल मिले, उसको दोनों हाथ।२४।

पद्मनयन, पीताम्बरी, दूर्वा-दलवत श्याम।
नाम सुमिर ले 'सलिल' नित, हो भव-पार सुधाम।२५।

गुणसागर, सौमित्राग्रज, भूसुतेश श्रीराम।
दयासिन्धु काकुत्स्थ हैं, भूसुर-प्रिय निष्काम।२६क।

अवधराज-सुत, शांति-प्रिय, सत्य-सिन्धु बल-धाम।
दशमुख-रिपु, रघुकुल-तिलक, जनप्रिय राघव राम।२६ख।

रामचंद्र, रामभद्र, रम्य रमापति राम।
रघुवंशज कैकेई-सुत, सिय-प्रिय अगिन प्रणाम।२७।

रघुकुलनंदन राम प्रभु, भरताग्रज श्री राम।
समर-जयी, रण-दक्ष दें, चरण-शरण श्री धाम।२८।

मन कर प्रभु-पद स्मरण, वाचा ले प्रभु-नाम।
शीश विनत पद-पद्म में, चरण-शरण दें राम।२९।

मात-पिता श्री राम हैं, सखा-सुस्वामी राम।
रामचंद्र सर्वस्व मम, अन्य न जानूं नाम।३०।



लखन सुशोभित दाहिने, जनकनंदिनी वाम।
सम्मुख हनुमत पवनसुत, शतवंदन श्री राम।३१।

जन-मन-प्रिय, रघुवीर प्रभु, रघुकुलनायक राम।
नयनाम्बुज करुणा-समुद, करुनाकर श्री राम।३२।

मन सम चंचल पवनवत, वेगवान-गतिमान।
इन्द्रियजित कपिश्रेष्ठ दें, चरण-शरण हनुमान।३३।

काव्य-शास्त्र आसीन हो, कूज रहे प्रभु-नाम।
वाल्मीकि-पिक शत नमन, जपें प्राण-मन राम।३४।

हरते हर आपद-विपद, दें सम्पति, सुख-धाम।
जन-मन-रंजक राम प्रभु, हे अभिराम प्रणाम।३५।

राम-नाम-जप गर्जना, दे सुख-सम्पति मीत।
हों विनष्ट भव-बीज सब, कालदूत भयभीत।३६।

दैत्य-विनाशक, राजमणि, वंदन राम रमेश।
जयदाता शत्रुघ्नप्रिय, करिए जयी हमेश।३७ क।

श्रेष्ठ न आश्रय राम से, 'सलिल' राम का दास।
राम-चरण-मन मग्न हो, भव-तारण की आस।
३७ ख।३७ख।

विष्णुसहस्त्रनाम सम, पावन है प्रभु-नाम।
रमे राम के नाम में, सलिल-साधना राम।
३८।३८।

मुनि बुधकौशिक ने रचा, श्री रामरक्षास्तोत्र।
'शांति-राज'-हित यंत्र है, भाव-भक्तिमय ज्योत।
३९।

आशा होती पूर्ण हर, प्रभु हों सत्य सहाय।
तुहिन श्वास हो नर्मदा, मन्वंतर गुण गाय।
४०।४०।



राम-कथा मंदाकिनी, रामकृपा राजीव।
राम-नाम जप दे दरश, राघव करुणासींव।४१।


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कविता: आभास बीनू भटनागर

कविता: 


      आभास

     

      बीनू भटनागर
     
      सूखे सूखे होंट,
      बाट निहारती पलकें
      कुछ आभास,
      कोई आहट,
      गूँजा है कंही,
      कोई प्रेम गीत।
     
      मै खो गई,
      सपनों के झुरमट मे,
      वीणा की झंकार,
      दूर बजी बंसी,
      गरजे बादल,
      बिजुरी चमकी,
      तन दहका,
      मन महका,
      पायल खनकी,
      काजल  बिखरा,
      अहसास तुम्हारे आने का,
      पाने से ज़्यादा सुन्दर है।
     
      चितचोर छुपा है,
      दूर कंही,
      सपनों मे जिसको देखा था,
      अहसास नया,
      आभास नया,
      पर ना पाना चाहूँ उसको,
      बस,
      दूर खड़ी महसूस करूँ
      अपने मन के,
      मधुसूदन को।
     
binu.bhatnagar@gmail.com
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दोहा सलिला: प्रेम: संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:

प्रेम:



संजीव 'सलिल'
*
गुणिजन शिशु को पढ़ाते, नित्य प्रेम का पाठ.
सब से मिलता प्रेम तो, होते उसके ठाठ..

बालक चाहे टालना नित्य, नये कुछ काम.
'सीखो बच्चे प्रेम से', कहते हो यश-नाम..

हो किशोर जब प्रेम से, लेता कहीं निहार.
करते निगरानी स्वजन, मिले डांट-फटकार..

युवा प्रेम का पाठ पढ़, चाहे भरे उड़ान.
खाप कतरती पर- कहे: 'ले लो दोनों जान.'

क्षेम प्रेम में हो अगर, दोनों दिल में आग.
इकतरफा हो तो 'सलिल',है जहरीला नाग..

हो वयस्क तो प्रेम के, आड़े आता काम.
जले न चूल्हा जेब में, अगर नहीं हों दाम..

साँप और रस्सी लगे, जब तुलसी को एक.
प्रेम वासना बन कहे, पाठ पढ़ाओ नेक..

प्रौढ़ हुआ तो प्रेम की, खुसरो फूले श्वास.
कविता पड़ती सुनाना, तब बुझ पाती प्यास.. 

प्रेम-पींग केशव भरे, 'सलिल' न दम दे साथ.
'बाबा' सुन कर माथ पर, पटक रहा है हाथ..

वृद्ध प्रेम कर राम से, वही आयेंगे काम.
रति न काम के प्रति रहे, प्रेम करे निष्काम..



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एक षटपदी: प्रेम संजीव 'सलिल'

एक षटपदी:
प्रेम




संजीव 'सलिल'
*
तन न मिले ,मन से मिले, थे शीरीं-फरहाद.
लैला-मजनूं को रखा, सदा समय ने याद..
दूर सोहनी से रहा, मन में बस महिवाल.
ढोल-मारू प्रेम की, अब भी बने मिसाल..
मिल न मिलन के फर्क से, प्रेम रहे अनजान.
आत्म-प्रेम खुशबू सदृश, 'सलिल' रहे रस-खान..
*

दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.इन
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सोमवार, 27 अगस्त 2012

एक कविता: बिखरी सी मुस्कान... संजीव 'सलिल

एक कविता:
बिखरी सी मुस्कान.
..



संजीव 'सलिल
*
श्री-प्रकाश अधमुंदे नयन से,
झर-झर कर झरता था.
भोर रश्मि का नव उजास
आलोक धवल भरता था.
अधरों पर सज्जित थी उसके
बिखरी सी मुस्कान.
देवों को भी दुर्लभ
ऐसी अद्भुत उसकी शान.
जिसने देखा ठगा रह गया
स्वप्न लोक का राजा.
जाने क्या कुछ देख रहा था?
किसे बुलाता आ जा?
रामलला-कान्हा दोनों की
छवि उसने पायी थी.
छह माताओं की किस्मत पा
मैया हर्षायी थी.
नभ को नाप रहा या
सागर मथकर खुश होता है.
कौन बताये समय धरा में
कौन बीज बोता है?
मानव से ईश्वर ने अब तक
रार नहीं ठानी है.
'सलिल' मनुज ने बाधाओं से
हार नहीं मानी है.
तम कितना भी सघन रहे
नव दीप्ति-किरण लायेगा.
नन्हा वामन हो विराट
जीवन की जय गायेगा.

*

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कविता: सभी चाहते संजीव 'सलिल' / poem: everybody needs

कविता:
सभी चाहते 



संजीव 'सलिल'
*
कौन और क्या हो 
इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
सभी चाहते मिल जाए 
तो टूट सके जड़ता।

ऊपर-नीचे, खड़े या पड़े 
दंभी या अनुदार।
कीड़ा पाले अहंकार का 
या हो परम उदार। 

लखपति हो या हो भिखमंगा   


निर्धन या धनवान।
शोषित हो या शोषक हो 
निर्बल हो या बलवान।

नहीं मिले तो आसपास 
या दूर खोजते रहते।
खीझ रहे चुप लेकिन 
चाहें एक, नहीं क्यों कहते। 


जीवन लेता कड़ी परीक्षा 
या करना संघर्ष।
धूर्त ठगों से पला हो या 
संतों से संपर्क।

बदमिजाज रूखे स्वभाव का 
यदि कोई मिल जा
मौका पाकर पिंड छुडा
पीछे से हम मुस्काए।

समय बुरा हो या जब 
सब कुछ शुभ ही शुभ होता हो।
कुछ करने का जो वाजिब 
प्रतिदान अगर खोता हो।

मानो जो खोया, पाया फिर 
मन ही मन मुस्काओ।
चाह रहे तुम और सभी 
तज फ़िक्र गले लग जाओ। 

*



poem:

everybody needs
*




No matter who you are, you need one
no matter what you do, you want one
No matter if you are uptight or smug
everybody needs a hug

Even if you are up or even if you’re down
even if you’re flat on the ground
Even if you feel like you’ve got some kind of bug
everybody needs a hug

Maybe you’re a millionaire
or maybe you have no underwear
Maybe your life sucks and your beer is full of suds
maybe you just need some hugs

When you can’t seem to get around
when you have to look up to see down
When all you have to eat is one small spud
sounds like it’s time for a hug

If you’ve been dragged over the coals
if life is taking it’s toll
If you’re being chased by a thug
just open your arms and give him a hug

Sometimes people are very rude
just because they’re in a bad mood
You should get up close and snug
Then reach out and give their ass a hug

When everyday all you see is bad omens
when life keeps feeding you lemons
When for the things you are owed, you never get paid
Just give a hug and say it's all paid.


 

***

रविवार, 26 अगस्त 2012

चित्र पर कविता: 7 जागरण

चित्र पर कविता: 7
जागरण 

इस स्तम्भ की अभूतपूर्व सफलता के लिये आप सबको बहुत-बहुत बधाई. एक से बढ़कर एक रचनाएँ अब तक प्रकाशित चित्रों में अन्तर्निहित भाव सौन्दर्य के विविध आयामों को हम तक तक पहुँचाने में सफल रहीं हैं. संभवतः हममें से कोई भी किसी चित्र के उतने पहलुओं पर नहीं लिख पाता जितने पहलुओं पर हमने रचनाएँ पढ़ीं. 

चित्र और कविता की प्रथम कड़ी में शेर-शेरनी संवाद, कड़ी २ में पराठा, दही, मिर्च-कॉफी,
कड़ी ३ में दिल-दौलत, चित्र ४ में रमणीक प्राकृतिक दृश्य, चित्र ५ हिरनी की बिल्ली शिशु पर ममता,  चित्र ६ में पद-चिन्ह के पश्चात प्रस्तुत है चित्र ७. ध्यान से देखिये यह नया चित्र और रच दीजिये एक अनमोल कविता.



 1.
बीनू भटनागर

*
सू्र्यदेव का स्वागत,
मै बाँहें फैला कर करता हूँ,
आग़ोश मे लेलूँ सूरज को,
महसूस कभी ये करता हूँ।
इस सुनहरे पल मे,
कुछ आधात्मिक अनुभूति
होतीं हैं।
जो नहीं मिला मंदिर मे कभी,
उसका दर्शन मै करता हूँ।
*
"Binu Bhatnagar" <binu.bhatnagar@gmail.com>
____________________________________
  2.

sanjiv verma (आप) का प्रोफ़ाइल फ़ोटो

संजीव 'सलिल'
*
पग जमाये हूँ धरा पर, हेरता आकाश.
काल को भी बाँध ले, जब तक जिऊँ भुज-पाश..

हौसलों का दिग-दिगंतिक, व्योम तक विस्तार.
ऊर्जा रवि-किरण देतीं, जीत लूँ संसार.

आत्म-पाखी प्रार्थना कर, चहचहाता है.
वंदना कर देव से, वरदान पाता है.

साधना होती सफल, संकल्प यदि पक्का.
रुद्ध कब बाधाओं से, होता प्रगति-चक्का..

दीप मृण्मय तन, जलाकर आत्म की बाती.
जग प्रकाशित कर बने रवि, नियति मुस्काती.

गिरि शिखर आलोचना के, हुए मृग-छौने.
मंद श्यामल छवि सहित, पग-तल नमित बौने.

करे आशीषित क्षितिज, पीताभ चक्रों से.
'खींच दे साफल्य-रेखा, पार वक्रों के.'

हूँ प्रकृति का पुत्र, है उद्गम परम परमात्म.
टेरता कर लीन खुद में, समर्पित है आत्म.

Acharya Sanjiv verma 'Salil'
९४२५१ ८३२४४ / ०७६१ २४१११३१ 
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__________________________________
3.
Pranava Bharti का प्रोफ़ाइल फ़ोटो




प्रणव भारती
              अभिषेक सूरज का.....
     
   अभिषेक हुआ है सूरज का 
   मन लगता है कुछ भरा-भरा.....|
   जीवन की लघुतम सच्चाई 
   है बियाबान ओढ़े आती 
   पागल-पागल सी तन्हाई
   नीलांबर पर है छा जाती  
   उन्मुक्त  नहीं  मन मानव का |

   ऊंचे-ऊचे से स्वप्न सजे,
   कुछ बिखर गये,कुछ शूल बने 
   चंदा के घूँघट में छिपकर 
   काली दुल्हन सज,इतराती  
   परिवेश यही है मानव का |
   
    चंदा-तारे सब ही हारे
    खेलें वे आँख-मिचौनी सी
    फिर कहाँ-कहाँ रख आज कदम 
    जीवन खेले है होली सी 
    सर्वेश यही तो मानव का |

    सूरज दादा उत्ताप-प्रचंडित
    तड़ित-मडित ऊपर झूमें 
    नीचे  मानव खा हिचकोले 
    चाहे  धरती-अंबर छू ले 
    संदेश पुकारे मानव का |

    अब बैठें न गुमसुम होकर 
    लेलें उधार कुछ सूरज से 
    अपमानित न हों जीवन भर 
    जीवन के द्वार अमी बरसे 
    अतिमुक्त रहे मन मानव का..........| 
*
Pranava Bharti  द्वारा yahoogroups.com 
______________________________________
4. 
चित्र ७ पर कविता
आह्वान
इन्दिरा प्रताप 
मैं खड़ा हुआ उत्तुंग शिखर पर
आह्वान करता हूँ ----------
हे , तेज पुंज ! हे , रश्मिरथी !
तुम जगती के कण – कण में,
नव प्रकाश भर दो ,
तुम ऐसा वर दो |
उदय – अस्त का खेल तुम्हारा ,
धुप छाहँ का छलके प्याला ,
हिम शिखरों के उच्च श्रृंगों को
ज्योतिर्मय कर दो ,
तुम ऐसा वर दो |
देखो, धरती चटक रही है ,
पीकर तेज तुम्हारा ,
नव जीवन की, नव फुहार से
इस धरती को ,
हरा भरा कर दो;
तुम ऐसा वर दो |
तन मन में प्रकाश भर दे जो ,
हृदय- तार झंकृत कर दे जो ,
दूर करे मन का अँधियारा ,
जैसे अंधकार में नन्हा दीप बेचारा,
हे प्रभात के दिव्य पुंज !
छोटे से मुझ स्नेह दीप को ,
आलोकित कर दो ,
तुम ऐसा वर दो |
हे तेज पुंज ! हे रश्मि रथी !
तुम सृष्टि के इस महताकाश में
चिर प्रकाश भर दो ,
तुम ऐसा वर दो |  
*
Indira Pratap  द्वारा yahoogroups.com 
____________________________________
5. 
             

कविता : मैं संतोष भाऊवाला

कविता :
मैं
 संतोष भाऊवाला 
*
मैं ..... अदना सा कण
या फिर एक बिंदु
या छोटा सा बीज
मैं  .... एक शब्द  भर
कर देता नि:शब्द पर
इसके अनेक विकार
स्वार्थ,इर्ष्या,अहंकार
कण से विराट
बिंदु से सिन्धु  
बीज से  वृक्ष
तक के  सफ़र में
मैं के अनेक रूप
बदलते स्वरुप
इसी मैं  के कारण
हुए घमासान युद्ध
इसे छोड़ा जब तो
हुए महात्मा बुद्ध
पर कोई अछूता रह न पाये
लक्ष्मीपति हो या लंकापति
इस मै से छुट ना पाये
जीवन भर पछताये
यह मै छोड़े से भी छुटता नहीं
पर जिस दिन छुट गया
मनुज महात्मा बन जाये
समझो तर जाये
बिना मांगे ,मोक्ष पाये  
 
*******

गीत : आर.सी.शर्मा ’आरसी’

गीत :

 आर.सी.शर्माआरसी
 
 अधजली लाशें सिसकतीं बस्तियाँ देतीं धुआं,
 मिट गए सिन्दूर लाखों चीखतीं है राखियाँ,
 माँ के शव पर करते क्रन्दन दुधमुँहे शिशु बेजुबाँ,
 किस जगह जाकर रुकेगा दोस्तो यह कारवाँ ?
 *
 धर्म तो विश्वास है एक आस्था का नाम है,
 एक दूजे को लड़ाए किस धरम का काम है ?
 रक्त की नदियाँ बहें कश्मीर से गुजरात तक,
 क्या यही हिन्दुत्व है और क्या यही इस्लाम है ?
 
 प्रश्न कल तुमसे करेंगे देश के जब नौजवां,
 किस जगह जाकर रुकेगा दोस्तो यह कारवाँ ?
 *
 वो जो सत्ता-सुन्दरी की बांह में मदहोश हैं,
 अब भला उनको कहाँ जन-भावना का होश है ?
 काश ! आखें खोलकर वो देखते यह दुर्दशा,
 या तो हम मज़बूर थे या यह व्यवस्था-दोष है
 
 अँधे-बहरे बन गए हों देश के जब रहनुमाँ,
 किस जगह जाकर रुकेगा दोस्तो यह कारवाँ ?
 *
 राम जाने कब धडा़ यह सब्र का भर पाएगा,
 अय खुदा तू ही बता वह दिन भला कब आएगा ?
 अब तो दस्तक दे गईं संसद पे आके गोलियाँ,
 सिंह पर एक श्वान पागल कब तलक गुर्राएगा ?
 
 जुगनुओं के डर से सूरज जब फिरे छिपता हुआ,
 किस जगह जाकर रुकेगा दोस्तो यह कारवाँ
 *
 हम शिवा के पुत्र, गुरु गोविन्द की औलाद हैं,
 हम भगत सिंह, राजगुरु, हम बिस्मिलो-आजा़द हैं,
 कर्मभूमी कृष्ण की इस परम पावन देश में,
 स्वयं मर्यादा प्रतिष्ठित राम के परिवेश में,
 
 द्रोपदी लुटती रहे और भीष्म खोलें जुबाँ,
 किस जगह जाकर रुकेगा दोस्तो यह कारवाँ ?
 *