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बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

विशेष गीत : हम अभियंता अभियंता संजीव 'सलिल'

विशेष गीत :
हम अभियंता 

अभियंता संजीव 'सलिल'
*
हम अभियंता!, हम अभियंता !!
मानवता के भाग्य-नियंता.....
*
माटी से मूरत गढ़ते हैं,
कंकर को शंकर करते हैं।
वामन से संकल्पित पग धर-
हिमगिरि को बौना करते हैं।
नियति-नटी के शिलालेख पर
अदिख लिखा जो वह पढ़ते हैं।
असफलता का फ्रेम बनाकर
चित्र सफलता का मढ़ते हैं।
श्रम-कोशिश दो हाथ हमारे
फिर भविष्य की क्यों हो चिंता?
हम अभियंता!, हम अभियंता !!
मानवता के भाग्य-नियंता.....
*
अनिल, अनल, भू, 'सलिल', गगन हम
पंचतत्व औजार हमारे।
विश्व, राष्ट्र, मानव उन्नति हित
तन-मन-समय-शक्ति-धन वारे।
वर्तमान, गत-आगत नत हैं
तकनीकों ने रूप सँवारे।
निराकार साकार हो रहे
अपने सपने सतत निखारे।
साथ हमारे रहना चाहे
भू पर उतर स्वयं भगवंता।
हम अभियंता!, हम अभियंता !!
मानवता के भाग्य-नियंता.....
*
भवन, सड़क, पुल, यंत्र बनाते
ऊसर में फसलें लहराते।
हमीं विश्वकर्मा विधि-वंशज
मंगल पर पद-चिन्ह बनाते।
प्रकृति-पुत्र हैं, नियति नटी की
आँखों से हम आँख मिलाते।
हरि सम हर हर आपद-विपदा
गरल पचा अमृत बरसाते।
'सलिल'-स्नेह नर्मदा निनादित
ऊर्जा-पुंज अनादि अनंता। 
हम अभियंता!, हम अभियंता !!
मानवता के भाग्य-नियंता.....
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in.divyanarmada
94251 83244 / 0761 - 2411131 

यातायात अनुज्ञप्ति प्रणाली और अभियंता:

अभियंता बंधु हेतु विशेष आलेख:
थल-यातायात की अनुज्ञप्ति प्रणाली और अभियंता
अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' तथा अभियंता राकेश राठौड़ 
*
प्रारंभ:
मानव सभ्यता का इतिहास परोक्षतः यातायात संसाधनों के उद्भव तथा प्रबंधन के विकास का इतिहास है। आदि मानव जल, भोजन, साथी, आवास तथा सुरक्षा की तलाश में जिन स्थानों पर बार-बार आया-गया, वहाँ उसके पद-चिन्ह पेड़ की टहनी के आकार में अंकित हो गये जिन्हें पग-दण्डी कहा गया। यह पग-डंडी ही वर्तमान भूतलीय पथों, मार्गों, राजमार्गों, महामार्गों की जननी है। पग-डंडियों का स्वयं तथा अपने समूह के सदस्यों के लिए सतत-सुरक्षित रहकर उपयोग करना, क्षति होने पर पुनः सुरक्षित आवागमन के योग्य बनाना, अन्य समूहों अथवा पशुओं को उन पर आधिपत्य करने से रोकना तथा वर्षाकाल में पग-डंडी मिट जाने पर दुबारा खोजना ही आज के यातायात प्रबंधन एवं यातायात अभियांत्रिकी की शुरुआत थी।
अतीत:
ऋग्वेद-काल (ई.पू. 5000) तक यह नन्हीं शुरुआत पग-डंडी, डगर, पथ, राह, लीक, पंथ, सडक, मार्ग, आदि अनेक नाम धारणकर विशाल वट वृक्ष की तरह जड़ें जमा चुकी थी। हर देश-काल में मनुष्यों-पशुओं का आवागमन तथा सामान का सुरक्षित परिवहन राज्य सत्ता, श्रेष्ठि वर्ग तथा जन सामान्य सभी के लिए साध्य तथा शांतिपूर्ण स्थायित्व हेतु साधन भी रहा। यातायात, आवागमन अथवा परिवन पर स्वामित्व व् नियंत्रण सत्ताधिकार, विकास तथा उन्नति का पर्याय हो गया और आज तक है। इतिहास के पृष्ठ पलटें तो पाएंगे कि श्रेष्ठ यातायात-प्रबंधन के काल को स्वर्ण काल तथा उस काल के शासक को आदर्श शासक कहा गया है। वैदिक, मोहनजोदाड़ो, हड़प्पा, रोम, चीन, ग्रीक, मिस्र अदि महान सभ्यताओं के विकास का एक कारण श्रेष्ठ यातायात प्रबन्धन था। दूसरी ओर नाग, रक्ष, असुर, वानर, ऋक्ष, उलूक, किन्नर, गन्धर्व आदि सभ्यताओं के विनाश और पतन के पीछे एक मुख्य कारण यातायात प्रणाली का विकास न कर पाना था। यहाँ तक कि वर्तमान युद्धों तथा आम चुनावों में भी यातायात-प्रणाली तथा प्रबंधन जय-पराजय का निर्णय करने में प्रमुख भूमिका निभाता है।
विकास के चरण:
ऋग्वेद में महामार्ग, विष्णुपुराण तथा अग्निपुराण आदि ग्रंथों में मार्ग निर्माण प्रविधि-मानकों-प्रबंधन आदि का वर्णन, में अयोध्या, जनकपुरी तथा लंका में नगरीय मार्ग, श्री राम द्वारा सेतुबंध का निर्माण, कृष्ण के समय में मथुरा में रथ दौड़ाने योग्य राज्यमार्ग तथा गोकुल आदि ग्रामों में ग्राम्य सड़क,  राजगीर, पटना में ई.पू. 600 की 7.5 मीटर चौड़ी पत्थर निर्मित सड़क, कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सड़कों का विस्तृत उल्लेख, चन्द्रगुप्त मौर्य ई.पू.300, सम्राट अशोक ई.पू. 269, बाबर 1500 ई., शेरशाह सूरी 1540-45 ई. तथा पश्चातवर्ती अनेक शासकों ने मार्ग निर्माण, संधारण तथा प्रबंधन के महत्त्व को समझा। केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग (लार्ड डलहौजी द्वारा 1865 में स्थापित), केन्द्रीत सड़क संस्था 1930, भारतीय सड़क कोंग्रेस 1934, परिवहन सलाहकार समिति 1935, नागपुर सड़क योजना 1943, केन्द्रीय सड़क अनुसन्धान संस्था 1950 आदि भारत में सड़क निर्माण तथा यातायात प्रबंधन के क्षेत्र में मील के पत्थर की तरह महत्वपूर्ण है।
यातायात संसाधनों का क्रमिक विकास:
यातायात के प्रकार:
1. थलयान: हाथ गाडी, पशु (बैल, घोडा, भैंसा, हाथी) गाडी, साइकिल, स्कूटर, मोटर साइकिल, कार, ट्रक, बस, टैंक आदि।
2. जलयान: डोंगी, नाव, बज्र, शिकार, जहाज, पनडुब्बी, जलपोत आदि।
3. वायुयान: गुब्बारा, हवाई जहाज, ग्लाइडर, हेलिकोप्टर, रोकेट, अंतरिक्षयान आदि।

थल यातायात के साधन:
1. प्रारम्भिक चरण: पैदल (रेंगना, चलना, दौड़ना, कूदना, फिसलना, तैरना आदि।) 
2. पशु आधारित: घोडा, बैल, भैंस, खच्चर, गधा, शेर, चूहा आदि की सवारी।
3. पक्षी आधारित: मयूर, उल्लू, गरुड़ आदि की सवारी।
4. चक्राधारित: 2 चके- हाथगाड़ी, तांगा, बैलगाड़ी, रथ आदि,  3 चके- हाथगाड़ी, रिक्शा, 4- चके ठेला, कार, ट्रक आदि। 5. बहुचक्र- ट्रोले, ट्रक, टैंकर, रेलगाड़ी आदि।
5. चालनप्रणाली: मनुष्य- स्वयं, हाथठेला, रिक्शा, साइकिल आदि। पशु- स्वयं, तांगा, बैलगाड़ी, रथ आदि।
6. ईंधन चालित: स्कूटर, कार, मोपेड, बस, ट्रक, ऑटोरिक्शा, रेलगाड़ी आदि। 
उक्त में से केवल रेलगाड़ी पटरियों पर चलती है, शेष सभी सड़क पर चलते हैं।
यातायात प्रबन्धन:
यातायात प्रबंधन की दृष्टि से यातायात को निम्नानुसार वर्गीकृत किया जा सकता है-
1. स्वतंत्र / निजी यातायात।
2. स्वायत्त संस्था नियंत्रित यातायात।
3. राज्य शासन नियंत्रित यातायात।
4. केंद्र शासन नियंत्रित यातायात।
5. अंतर्राष्ट्रीय यातायात।
6. अंतरिक्षीय यातायात।
अनुज्ञप्ति (लाइसेंसिंग) प्रणाली-
निरंतर बढ़ते यातायात तथा परिवहन संबंधी गतिविधियों के सुचारू सञ्चालन, सम्यक संपादन, प्रभावी नियंत्रण, समुचित सुरक्षा आदि के प्रबंधन हेतु किसी अधिकारी अथवा संस्था की विधिपूर्वक स्थापना, उसके कर्तव्यों, दायित्वों, अधिकारों एवं कार्य विधि का निर्धारण आवश्यक है। ऐसा प्राधिकारी यातायातीय अराजकता को अवरुद्धकर विधि सम्मत गतिविधियों के सम्यक सञ्चालन हेतु अनुमति-पत्र (अनुज्ञप्ति, लाइसेंस, परवाना, पास, टिकिट, टोकन आदि) देकर अथवा न देकर व्यवस्था कायम करता है। व्यवस्था भंग किये जाने पर सम्बंधित को दंड देने का भी उसे अधिकार होता है। वर्तमान में प्रचलित थल यातायात व्यवस्था में निजी, स्थानीय, प्रांतीय, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनुज्ञप्ति प्रणाली के स्तर निम्न हैं:
   यातायात का प्रकार        -   अनुज्ञप्ति का अधिकार
1. अन्तरिक्षीय / अंतर्राष्ट्रीय -   अंतर्राष्ट्रीय संगठन, राष्ट्रीय सरकार ।
2. वायु यातायात             -    अंतर्राष्ट्रीय संगठन, राष्ट्रीय सरकार वायुपत्तन प्राधिकरण ।
3. जल यातायात             -    अंतर्राष्ट्रीय संगठन, राष्ट्रीय सरकार- जलपत्तन प्राधिकरण, जिला प्रशासन, ग्राम पंचायत।
4. थल यातायात             -     राष्ट्रीय सरकार, प्रांतीय सरकार, जिला प्रशासन, नगर पालिका / निगम, ग्राम पंचायत, संगठन, व्यक्तिगत।
थल यातायात हेतु विविध स्तरों पर विविध अनुज्ञप्ति प्रदाता अधिकारी निम्नानुसार हैं-
   सड़क हेतु अनुज्ञप्ति का प्रकार              प्राधिकृत अधिकारी                        शैक्षणिक योग्यता
1.सड़क की उपयुक्तता               कार्यपालन यंत्री लोक निर्माण विभाग          सिविल यांत्रिकी  स्नातक
2.वाहन की उपयुक्तता              क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी (आर.टी.ओ.)           सामान्य स्नातक
3.चालक की उपयुक्तता             क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी (आर.टी.ओ.)           सामान्य स्नातक
4.ईंधन की उपयुक्तता                   खाद्य नियंत्रक / प्रदूषण अधिकारी            सामान्य स्नातक / प्रदूषण यांत्रिकी
5.प्रवेश हेतु अनुमति                राष्ट्रीय, प्रांतीय, जिला प्रशासन, ग्राम              सामान्य स्नातक
                              
            पंचायत, प्राधिकरण, मंडी आदि।
अनुज्ञप्ति प्रणाली के बिना सुव्यवस्थित यातायात प्रणाली की कल्पना भी नहीं की जा सकती हर देश-काल में सर्वाधिक यातायात सड़क-मार्ग से ही होता है किन्तु यातायात प्रबंधन की दृष्टि से सर्वाधिक अव्यवस्था, लापरवाही, कुप्रबंध, अराजकता, भ्रष्टाचार तथा दुर्घटनाएं इसी क्षेत्र में हैं। आश्चर्य तथा दुःख का विषय है कि सड़क यातायात संबंधी अराजकता के मूल कारण की पहचान करने का कोई प्रयास ही अब तक नहीं किया गया, उपाय खोजना तथा निराकरण तो दूर की बात है।
सड़क यातायात प्रबंधन की असफलता का कारण  
वस्तुतः  सड़क यातायात प्रबंधन की असफलता का दोष पंगु और अक्षम अनुज्ञप्ति प्रणाली को है इसे आमूल-चूल बदले बिना सुप्रबंधन संभव ही नहीं है। सड़क निर्माण तथा संधारण प्राविधि, सड़क निर्माण सामग्री का चयन, सड़क की मोती में विविध परतों का निर्धारण, सड़क की भार धारणक्षमता (लोड बिअरिंग केपेसिटी) का अनुमान, तदनुसार वाहनों को आवागमन की अनुमति देना या न देना, वाहन के इंजिन का प्रकार, प्रयोग किया जा रहा ईंधन, ब्रेक प्रणाली तथा उसके द्वारा व्युत्पन्न धक्के (शाक, जर्क, थ्रस्ट) के बल का अनुमान, चकों की संख्या तथा उनके द्वारा सड़क सतह पर डाले जा रहे भार की गणना, गति तथा गतिजनित बलों की गणना, गति-अवरोधकों (स्पीड ब्रेकरों) का स्थान व आकार, मोड़ों तथा घुमावों का निर्धारण, प्रकाश व्यवस्था, संकेत चिन्हों का प्रकार तथा स्थान निर्धारण आदि कार्य पूरी तरह यांत्रिकी एवं तकनीक से सम्बंधित है किन्तु सड़क निर्माण तथा संधारण को छोड़कर शेष कार्य गैर तकनीकी शिक्षा प्राप्त अधिकारियों द्वारा किये जाते हैं। तकनीकी जानकारीविहीन अधिकारियों के हाथों में सञ्चालन तथा नियंत्रण होना ही अव्यवस्था, अराजकता तथा सड़कों के टूटने का कारण है।
क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी (आर.टी.ओ.) की वर्तमान कार्य प्रणाली
वर्तमान में सड़क यातायात नियंत्रण पूरी तरह गैर तकनीकी क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी (आर.टी.ओ.) तथा यातायात पुलिस के हाथों में है। आर.टी.ओ. ही वाहन-चालन हेतु अनुज्ञप्ति (लाइसेंस) जारी करते हैं जबकि उन्हें वाहन-चालक हेतु आवश्यक तत्वों (तकनीकी शिक्षा ताकि विविध यंत्रों की कार्यविधि समझ सके, देखने की क्षमता ताकि मार्ग संकेत, मार्ग का किनारा, आते-जाते वाहनों की स्थिति व् गति का अनुमान कर सके, मानसिकता ताकि संकेतों और नियमों का पालन करे आदि) की न तो कोई जानकारी होती है, न किसी जानकार से परामर्श लिया जाता है। सर्वविदित है की आर.टी.ओ.कार्यालय दलालों के अड्डे हैं जहाँ धन व्यय कर कोई भी अनुज्ञप्ति प्राप्त कर सकता है। इस प्रणाली को तत्काल पूरी तरह बदलकर तकनीकी रूप से सक्षम बमय जाना आवश्यक है तभी मार्गों का जीवनकाल बढ़ेगा तथा दुर्घटनाएं कम होंगीं।
1.सड़क की उपयुक्तता:
भारत शासन के भूतल मंत्रालय का सड़क प्रकोष्ठ तथा भारतीय सड़क कोंग्रेस सडक निर्माण की प्रविधियों, गुणवत्ता नियंत्रण आदि के मानक निर्धारित करती हैं। केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग, सीमा सुरक्षा बल, रेल पथ यांत्रिकी सेवा, सीमा सड़क संगठन, प्रांतीय लोक निर्माण विभाग, राष्ट्रीय राजमार्ग, राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण, सैन्य अभियांत्रिकी सेवा, नगर निगम / पालिका, ग्रामीण यांत्रिकी सेवा, ग्रामीण सड़क प्राधिकरण, नगर विकास प्राधिकरण, सिंचाई विभाग, कृषि उपज मण्डी, ग्राम पंचायत, वन विभाग आदि विविध शासकीय / अर्ध शासकीय संरचनाएं सड़क निर्माण कार्यों में संलग्न हैं। विस्मय है कि अधिकांश सड़क कार्यों का निष्पादन बिना किसी अभियांत्रिकी मार्गदर्शन के कर रहे हैं। संभवतः यह मान लिया गया है सड़क-निर्माण में किसी विशेषज्ञता की आवश्यकता नहीं है तथा कोइ भी यह कार्य कर और करा सकता है। इसका परिणाम गुणवत्ताहीन सड़कों के रूप में सामने है।
यातायात के घनत्व, प्रकार तथा आवृत्ति और उपलब्ध निर्माण सामग्री के आधार पर सड़क का प्रकार जलबंधीय मैकेडम सड़क, डामरी सड़क, सीमेंट कांक्रीट सड़क या  सीमेंट कांक्रीट सड़क तय कर और निर्माण प्रविधि का निर्धारण किया जाता है। यातायात के घनत्व के आधार पर सड़क की चौड़ाई (एक पथीय, दो पथीय, पथीय, चार पथीय या अधिक) का निर्णय किया जाता है। यातायात के घनत्व, चौड़ाई, गति, उपयोग तथा महत्त्व के आधार पर द्रुत महामार्ग, राष्ट्रीय राजमार्ग, प्रांतीय महामार्ग, जिला मार्ग, ग्रामीण मार्ग, पहुँच मार्ग आदि श्रेणी निर्धारित कर तदनुसार निर्माण सामग्री (मिट्टी, मुरम, गिट्टी, डामर मिश्रित गिट्टी, सीमेंट कांक्रीट आदि) की सतह के संदाबन, मोटाई आदि का निर्धारण किया जाता है। गुणवत्ता के लिए सामग्री को विविध परीक्षण कर मानक अनुरूप होने पर ही प्रयोग किया जाता है। सड़क के विविध अंगों (मोटाई, चौड़ाई, ढाल, चढ़ाव, कटाव, भराव, किनाराबंदी (एजिंग), स्कन्ध (बर्म)आदि, संकेत पटल, गति अवरोधक, घर्षण पृष्ठ (विअरिंग कोट), जोड़, फॉर्म वर्क, अधः स्तर (सब ग्रेड), अधः आधार (सब बेस), संदाब (कोम्पैक्शन) आदि के मानकों का पालन आवश्यक है।
2.वाहन की उपयुक्तता:
वाहन कारखानों में निर्माण के समय निर्धारित मानकों का पालन होने पर भी सड़क पर वाहन उतारे जाते समय उसमें कोई त्रुटि तो नहीं है, वाहन के आवागमन के लिए सड़क पर्याप्त मजबूत है या नहीं, सड़क की हालत वाहन के भार सहन करने योग्य है या नहीं देखे बिना ही लाइसेंस जारी कर दिया जाता है। अनुज्ञप्ति अधिकारी तथा वाहन स्वामी / चालाक की अनभिज्ञता के कारण सड़क तथा वाहन दोनों शीघ्र ख़राब होते हैं तथा दुर्घटनाओं में जन-धन की हानि होती है। अनुज्ञप्ति प्रदाय समिति में सिविल तथा मैकेनिकल इंजीनियर हों तो यह स्थिति सुधर सकती है।
3.चालक की उपयुक्तता:
वर्तमान में निर्धारित शुल्क तथा अतिरिक्त राशी का भुगतान कर अनुज्ञप्ति कोई भी प्राप्त कर सकता है। अकुशल चालक दुर्घटनाओं का कारण होता है। चालाक को अनुज्ञप्ति दिए जाने के पूर्व उसे वाहन के विविध हिस्सों तथा यंत्रों के नाम-कार्य विधि-उपयोग करने संबंधी जानकारी, यातायात चिन्हों की समझ, वाहन चालन में दक्षता, नियम पालन की प्रवृत्ति रंगों को देख-पहचानने की क्षमता, एनी वाहनों के हार्न सुन पाने और उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने की क्षमता, त्वरित निर्णय लेकर क्रियांवित करने की क्षमता का परीक्षण चिकित्सक द्वारा किया जाना जरूरी है।
4.ईंधन की उपयुक्तता: वाहन चालन में जलाये गये ईधन से उत्सर्जित धुआँ तथा इंजिन व वाहन की ध्वनि से क्रमशः धूम्र तथा ध्वनि प्रदूषण होता है। ईंधन की गुणवत्ता की जांच खाद्य अधिकारी / निरीक्षक द्वारा की जाती है जो तकनीक तथा जानकारीविहीन होते हैं। म. प्र. प्रदूषण नियंत्रण मंडल के अनुसार वाहन जनित प्रदूषण की सीमा निम्नानुसार होनी चाहिए-

वाहन की श्रेणी    कार्बन मोनो ऑक्साइड सल्फर डाई ऑक्साइड  हाइड्रोकार्बन   नाइट्रस ऑक्साइड
_______________________________________________________________________
पेट्रोल चलित           3.5 प्रतिशत                0.2प्रतिशत      13.8प्रतिशत       6.0प्रतिशत
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डीजल चलित           0.2 प्रतिशत                0.1प्रतिशत        0.4प्रतिशत       0.5प्रतिशत
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यूरो 1 ग्राम/कि.मी.    2.72                          0.97                                      0.97
_______________________________________________________________________
दुष्प्रभाव               रक्तसंचार में बाधा     श्वसन क्रिया में बाधा       नजला
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5.प्रवेश हेतु अनुमति:
 सड़क, सेतु आदि पर प्रवेश के पूर्व शुल्क संग्रहण से निर्माण लागत वापिस प्राप्त करना अपरिहार्यता के बाद भी न्यूनतम तथा सीमित समय के लिए होता है। लागत तथा संधारण तकनीकी विभाग द्वारा किया जाता है। अतः, वसूली का निर्धारण भी तकनीकी अभियंता द्वारा किया जाना चाहिए। सडक, वाहन, वाहन पर लड़ा भार आदि का सड़क पर पड़नेवाला प्रभाव अभियंता ही जान सकता है। मौसम भी सड़क की भारवहन क्षमता को प्रभावित करता है।
वर्षाकाल तथा हिमपात के समय सड़क के नीचे की सतह गीली तथा नर्म होने से भारवहन क्षमता कम हो जाना स्वाभाविक है।          
सक्षम क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी (आर.टी.ओ.) समिति हेतु आवश्यकताएँ
उक्त से स्पष्ट है कि वर्तमान अक्षम क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी (आर.टी.ओ.) के स्थान पर निम्नानुसार एक सक्षम-कार्य कुशल अनुज्ञप्ति प्रदाता समिति सड़क, वाहन तथा चालक की जांच करे तथा उपयुक्तता के आधार पर ही यातायात की अनुमति दे। समिति में निम्न का होना अनिवार्य किया जाए-
1. स्नातक सिविल अभियंता:
वाहन चालक अनुज्ञप्ति प्रदाता समिति का प्रमुख एक स्नातक सिविल इंजीनियर हो जो सड़क निर्माण की सामग्री, प्रविधि, मानकों, रूपांकन आदि का जानकर हो ताकि सड़क की मजबूती और भार वहन क्षमता का सही आकलन कर सके। उसे यातायात संकेतों के प्रकार और स्थान, प्रकाश की मात्रा और विद्युत खम्भों के स्थान, गति अवरोधकों के आकार-प्रकार तथा स्थान निर्धारण, पुल-पुलियों की निर्माण विधि, भारवहन क्षमता, भार वितरण, चालित भार से उत्पन्न बेन्डिंग मोमेंट्स, बलों आदि की जानकारी होना आवश्यक है।
2. स्नातक यांत्रिकी अभियंता:
वाहन चालक अनुज्ञप्ति प्रदाता समिति का सदस्य एक स्नातक मेकेनिकल इंजीनियर हो जो वाहन के इंजिन के रूपांकन व कार्य प्रणाली, ईंधन के प्रभाव, उससे उत्पन्न होनेवाले धूम्र-ध्वनि प्रदूषण तथा कम्पनजनित प्रभावों का जानकार हो। वह चढ़ावों-उतारों, आकस्मिक ब्रेक लगाने आदि स्थितियों में वाहन के व्यवहार का पूर्वानुमान कर उपयुक्त होने पर ही वहां को अनुज्ञप्ति दिए जाने की अनुशंसा करे। उसे चालक द्वारा वाहन को संचालित तथा नियंत्रित करने की क्षमता का भी आकलन करना होगा। वह वाहन में उपलब्ध हैड लाइटों, सड़क पर उपलब्ध प्रकाश व्यवस्था आदि का अनुमान कर सड़क पर वाहन के चलने के समय का अनुमान कर तदनुसार निर्देश देगा ताकि प्रकाश का अभाव दुर्घटना का कारण न बने।
3. स्नातक चिकित्सक:
वाहन चलन अनुज्ञप्ति डाटा समिति में तीसरा सदस्य एक स्नातक चिकित्सक हो जो वाहन चालक के देखने-सुनने तथा प्रतिक्रिया करने की क्षमता का आकलन करेगा ताकि वह वाहन चलते समय अपने व अन्य वाहनों की स्थिति, गति आदि अनुमान कर अथवा मार्ग संकेत को देखकर या मार्ग पर कोई आपदा (दुर्घटना, बाढ़ का पानी, अग्नि, दरार आदि) होने की स्थिति में वाहन की गति नियंत्रित कर सके या रोक सके। चिकित्सक को मनोविज्ञान की भी सामान जानकारी होना आवश्यक है ताकि वह चालक को अनुज्ञप्ति की अनुशंसा करने के पूर्व उसमें रंगों व् मार्ग संकेतों को पहचानने, नियम पालन करने, संकटग्रस्त को मदद करने, धैर्य-सहिष्णुता आदि की परख कर सके।
उक्त अनुसार परिवर्तन किये जाने पर ही सडक, वाहन त्तथा पुल-पुलियों की उम्र बढ़ेगी दुर्घटनाएं घटेंगी तथा जन-गन सुरक्षित होगा।
भवन, सड़क, पुल देश की, उन्नति के सोपान,
सतत करें उपयोग पर, रखिये यह भी ध्यान।
रखिये यह भी ध्यान, प्रदूषण फ़ैल न पाए।
वाहन चालन का अधिकार योग्य ही पाए।।
पौधारोपण कर घटाइये, दूषण-संकुल-
'सलिल' कहानी कहें प्रगति की, भवन-सड़क-पुल।।

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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
D.C.E., B.E., M.A. (Economics, Philosophy), LL-B., Dip. Journalism.
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in.divyanarmada
094251 83244 / 0761 2411131
AND
Rakesh Rathaor
B.E., M.E.
Chairman IEI jabalpur Centre.

गीत: प्रिये तुम्हारा रूप ... संजीव 'सलिल'

गीत:
प्रिये! तुम्हारा रूप ...
संजीव 'सलिल'
*
प्रिये! तुम्हारा रूप,
झलक जो देखे वह हो भूप।
बंकिम नयन-कटाक्ष
देव की रचना नव्य अनूप।
*
प्रिये! तुम्हारा रूप,
भरे अंजुरी में क्षितिज अनूप।
सौम्य उषा सा शांत
लालिमा सात्विक रूप अरूप।
*
प्रिये! तुम्हारा रूप,
देख तन सोचे कौन अरूप।
रचना इतनी रम्य
रचे जो कैसा दिव्य स्वरूप।
*
प्रिये! तुम्हारा रूप,
कामनाओं का काम्य स्तूप।
शीतल छाँह समेटे
आँचल में ज्यों आये धूप।
*
प्रिये! तुम्हारा रूप,
करे बिम्बित ज्यों नभ को कूप।
श्वेत-श्याम-रतनार
गव्हर-शिख, थिर-चंचला सुरूप।
*  

विशेष रचना: विजयादशमी ...? राकेश खंडेलवाल

विशेष गीत:










विजयादशमी ...?
राकेश खंडेलवाल 
  *
विजयादशमी विजय पर्व है विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
जाने कितने दिन बीते हैं एक प्रश्न को लेकर फ़िरते
कभी धूप में तपे , ओढ़ कर कभी गगन पर बादल घिरते
चट्टानों के दृढ़ सीने से लौटा है सवाल टकराकर
और बह गया बिन उत्तर के नदिया की धारा में तिरते
 
रहा कौंधता यही प्रश्न इक हर इक प्रहर और हर पल छिन
विजयादशमी विजय पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
रामकथा ने बतलाया था हुआ अस्त इस दिन दशकन्धर
जिसकी खातिर अनायास ही बन्धन में था बँधा समन्दर
थी अस्त्य पर विजय सत्य की, तना न्याय का गर्वित सीना
एक तीर ने सोख लिया था आर्यावर्त पर टँका ववंडर
 
रातें हुईं चाँदनी तब से,मढ़े स्वर्ण से थे सारे दिन
विजयादशमी विजय पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
पर वो तब की बातें थीं जो मन को तो बहला देती हैं
किन्तु उदर की यज्ञाग्नि में आहुति एक नहीं देती हैं
सपनों के खींचे चित्रों से टकराता है स्थिति का पत्थर
तो मुट्ठी में शेष रही बस जमना के तट की रेती है
 
आशवासन चुभते हैं मन में जैसे चुभती हो तीखी पिन
विजयादशमी विजय पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
कल के स्वर्णिम आश्वासन में रँगते हुये बरस बीते हैं
मेहमां एक निशा का है तम गाते गाते दिन बीते हैं
इन्द्रधनुष के परे स्वर्ण मुद्राओं की बातों में उलझे
जितने कलश खोल; कर देखे पाये सब के सब रीते हैं
 
नवजीवन की आंखें खुलती हैं तो अब आशाओं के बिन
विजयादशमी विजय पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
अपना बस इतिहास लगाये सीने से कब तक जीना है
कब तक उगी प्यास को आंखों का ही गंगाजल पीना है
जीवन की चौसर पर बाजी कब कब किसके साथ रहे एहै
मा फ़लेषु को छोड़ अधूरा ही श्लोक  गया बीना है
 
जिन खोजा तिन पाया सुनते आये, दिखता कहीं नहीं तिन
विजयादशमी विजय पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
नहीं जीत का नहीं पराजय का ही पल हासिल हो पाया
इस यात्रा में कितना हमने खोया और भला क्या पाया
क्षणिक भ्रमों में अपनी जय का कर लेते उद्गोष भले ही
लेकिन सांझ ढले पर एकाकीपन महज साथ दे पाया
 
चुकता नहीं सांस की पूंजी का धड़कन दे देकर भी ॠन
विजयादशमी विजय पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
विजयी कौन? अराजकता के दिन प्रतिदिन बढ़ते शासन में
विजयी कौन? एक वह जिसको सांसें मिलती हैं राशन में
जयश्री का अपहरण किये बैठे हैं सामन्तों के वंशज
विजयी कौन?विजय के होते नये नये नित अनुवादन में
 
सत्यमेव जयते का नारा, काट रहा अपने दिन गिन गिन
विजयादशमी विजय पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
विजयी वह को हिन्दी का सम्मेलन करता है विदेश में
विजयी वह जो लक्ष्मी ढूँढ़ा करता आयातित गणेश में
विजयी वह जो फ़टी गूदड़ी भी तन से उतार लेता है
विजयी वह जो दोनों हाथों से संचय करता प्रदेश में
 
विजयी नहीं सपेरा, बजवाती जो बीन वही इक नागिन
विजयादशमी विजय पर्व है विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
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मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

एक फूल की चाह -स्व. सियाराम गुप्त

धरोहर : स्व.सियारामशरण गुप्त

इस स्तम्भ में विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ मूल रचना देवनागरी लिपि में, हिंदी अनुवाद, रचनाकार का परिचय व चित्र, रचना की श्रेष्ठता का आधार जिस कारण पसंद है. संभव हो तो रचनाकार की जन्म-निधन तिथियाँ व कृति सूची दीजिए. धरोहर में स्व. सियाराम शरण गुप्त की रचना का।
एक फूल की चाह
*
उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ,
              हृदय-चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचण्ड हो
              फैल रही थी इधर उधर।
क्षीण-कण्ठ मृतवत्साओं का
              करुण-रुदन दुर्दान्त नितान्त,
भरे हुए था निज कृश रव में
              हाहाकार अपार अशान्त।
बहुत रोकता था सुखिया को
              'न जा खेलने को बाहर',
नहीं खेलना रुकता उसका
              नहीं ठहरती वह पल भर।
मेरा हृदय काँप उठता था,
              बाहर गई निहार उसे;
यही मानता था कि बचा लूँ
              किसी भांति इस बार उसे।
भीतर जो डर रहा छिपाये,
              हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को
              ताप-तप्त मैंने पाया।
ज्वर से विह्वल हो बोली वह,
              क्या जानूँ किस डर से डर -
मुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल ही दो लाकर।

बेटी, बतला तो तू मुझको
              किसने तुझे बताया यह;
किसके द्वारा, कैसे तूने
              भाव अचानक पाया यह?
मैं अछूत हूँ, मुझे कौन हा!
              मन्दिर में जाने देगा;
देवी का प्रसाद ही मुझको
              कौन यहाँ लाने देगा?
बार बार, फिर फिर, तेरा हठ!
              पूरा इसे करूँ कैसे;
किससे कहे कौन बतलावे,
              धीरज हाय! धरूँ कैसे?
कोमल कुसुम समान देह हा!
              हुई तप्त अंगार-मयी;
प्रति पल बढ़ती ही जाती है
              विपुल वेदना, व्यथा नई।
मैंने कई फूल ला लाकर
              रक्खे उसकी खटिया पर;
सोचा - शान्त करूँ मैं उसको,
              किसी तरह तो बहला कर।
तोड़-मोड़ वे फूल फेंक सब
              बोल उठी वह चिल्ला कर -
मुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल ही दो लाकर!

क्रमश: कण्ठ क्षीण हो आया,
              शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव-नव उपाय की
              चिन्ता में मैं मनमारे।
जान सका न प्रभात सजग से
              हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण-घनों में कब रवि डूबा,
              कब आई सन्ध्या गहरी।
सभी ओर दिखलाई दी बस,
              अन्धकार की छाया गहरी।
छोटी-सी बच्ची को ग्रसने
              कितना बड़ा तिमिर आया!
ऊपर विस्तृत महाकाश में
              जलते-से अंगारों से,
झुलसी-सी जाती थी आँखें
              जगमग जगते तारों से।
देख रहा था - जो सुस्थिर हो
              नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! बही चुपचाप पड़ी थी
              अटल शान्ति-सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं
              उसे स्वयं ही उकसा कर -
मुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल ही दो लाकर!

हे मात:, हे शिवे, अम्बिके,
              तप्त ताप यह शान्त करो;
निरपराध छोटी बच्ची यह,
              हाय! न मुझसे इसे हरो!
काली कान्ति पड़ गई इसकी,
              हँसी न जाने गई कहाँ,
अटक रहे हैं प्राण क्षीण तर
              साँसों में ही हाय यहाँ!
अरी निष्ठुरे, बढ़ी हुई ही
              है यदि तेरी तृषा नितान्त,
तो कर ले तू उसे इसी क्षण
              मेरे इस जीवन से शान्त!
मैं अछूत हूँ तो क्या मेरी
              विनती भी है हाय! अपूत,
उससे भी क्या लग जावेगी
              तेरे श्री-मन्दिर को छूत?
किसे ज्ञात, मेरी विनती वह
              पहुँची अथवा नहीं वहाँ,
उस अपार सागर का दीखा
              पार न मुझको कहीं वहाँ।
अरी रात, क्या अक्ष्यता का
              पट्टा लेकर आई तू,
आकर अखिल विश्व के ऊपर
              प्रलय-घटा सी छाई तू!
पग भर भी न बढ़ी आगे तू
              डट कर बैठ गई ऐसी,
क्या न अरुण-आभा जागेगी,
              सहसा आज विकृति कैसी!
युग के युग-से बीत गये हैं,
              तू ज्यों की त्यों है लेटी,
पड़ी एक करवट कब से तू,
              बोल, बोल, कुछ तो बेटी!
वह चुप थी, पर गूँज रही थी
              उसकी गिरा गगन-भर भर -
'मुझको देवी के प्रसाद का -
              एक फूल तुम दो लाकर!'

"कुछ हो देवी के प्रसाद का
              एक फूल तो लाऊँगा;
हो तो प्रात:काल, शीघ्र ही
              मन्दिर को मैं जाऊँगा।
तुझ पर देवी की छाया है
              और इष्ट है यही तुझे;
देखूँ देवी के मन्दिर में
              रोक सकेगा कौन मुझे।"
मेरे इस निश्चल निश्चय ने
              झट-से हृदय किया हलका;
ऊपर देखा - अरुण राग से
              रंजित भाल नभस्थल का!
झड़-सी गई तारकावलि थी
              म्लान और निष्प्रभ होकर;
निकल पड़े थे खग नीड़ों से
              मानों सुध-बुध सी खो कर।
रस्सी डोल हाथ में लेकर
              निकट कुएँ पर जा जल खींच,
मैंने स्नान किया शीतल हो,
              सलिल-सुधा से तनु को सींच।
उज्वल वस्र पहन घर आकर
              अशुचि ग्लानि सब धो डाली।
चन्दन-पुष्प-कपूर-धूप से
              सजली पूजा की थाली।
सुकिया के सिरहाने जाकर
              मैं धीरे से खड़ा हुआ।
आँखें झँपी हुई थीं, मुख भी
              मुरझा-सा था पड़ा हुआ।
मैंने चाहा - उसे चुम लें,
              किन्तु अशुचिता से डर कर
अपने वस्त्र सँभाल, सिकुड़कर
              खड़ा रहा कुछ दूरी पर।
वह कुछ कुछ मुसकाई सहसा,
              जाने किन स्वप्नों में लग्न,
उसकी वह मुसकाहट भी हा!
              कर न सकी मुझको मुद-मग्न।
अक्षम मुझे समझकर क्या तू
              हँसी कर रही है मेरी?
बेटी, जाता हूँ मन्दिर में
              आज्ञा यही समझ तेरी।
उसने नहीं कहा कुछ, मैं ही
              बोल उठा तब धीरज धर -
तुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल तो दूँ लाकर!

ऊँचे शैल-शिखर के ऊपर
              मन्दिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे
              पाकर समुदित रवि-कर-जाल।
परिक्रमा-सी कर मन्दिर की,
              ऊपर से आकर झर झर,
वहाँ एक झरना झरता था
              कल कल मधुर गान कर कर।
पुष्प-हार-सा जँचता था वह
              मन्दिर के श्री चरणों में,
त्रुटि न दिखती थी भीतर भी
              पूजा के उपकरणों में।
दीप-दूध से आमोदित था
              मन्दिर का आंगन सारा;
गूँज रही थी भीतर-बाहर
              मुखरित उत्सव की धारा।
भक्त-वृन्द मृदु-मधुर कण्ठ से
              गाते थे सभक्ति मुद-मय -
"पतित-तारिणि पाप-हारिणी,
              माता, तेरी जय-जय-जय!"
"पतित-तारिणी, तेरी जय-जय" -
              मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को
              जानें किस बल से ढिकला!
माता, तू इतनी सुन्दर है,
              नहीं जानता था मैं यह;
माँ के पास रोक बच्चों की,
              कैसी विधी यह तू ही कह?
आज स्वयं अपने निदेश से
              तूने मुझे बुलाया है;
तभी आज पापी अछूत यह
              श्री-चरणों तक आया है।
मेरे दीप-फूल लेकर वे
              अम्बा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब
              आगे को अंजलि भरके,
भूल गया उसका लेना झट,
              परम लाभ-सा पाकर मैं।
सोचा - बेटी को माँ के ये
              पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।

सिंह पौर तक भी आंगन से
              नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि - "कैसे
              यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो, देखो भाग न जावे,
              बना धूर्त यह है कैसा;
साफ-स्वच्छ परिधान किये है,
              भले मानुषों जैसा!
पापी ने मन्दिर में घुसकर
              किया अनर्थ बड़ा भारी;
कुलषित कर दी है मनिदर की
              चिरकालिक शुचिता सारी।"
ए, क्या मेरा कलुष बड़ा है
              देवी की गरिमा से भी;
किसी बात में हूँ मैं आगे
              माता की महिमा से भी?
माँ के भक्त हुए तुम कैसे,
              करके यह विचार खोटा
माँ से सम्मुख ही माँ का तुम
              गौरव करते हो छोटा!
कुछ न सुना भक्तों ने, झट से
              मुझे घेर कर पकड़ लिया;
मार मार कर मुक्के-घूँसे
              धम-से नीचे गिरा दिया!
मेरे हाथों से प्रसाद भी
              बिखर गया हा! सब का सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक
              कैसे पहुँच सके यह अब।
मैंने उनसे कहा - दण्ड दो
              मुझे मार कर, ठुकरा कर,
बस यह एक फूल कोई भी
              दो बच्ची को ले जाकर।

न्यायालय ले गये मुझे वे
              सात दिवस का दण्ड-विधान
मुझको हुआ; हुआ था मुझसे
              देवी का महान अपमान!
मैंने स्वीकृत किया दण्ड वह
              शीश झुकाकर चुप ही रह;
उस असीम अभियोग, दोष का
              क्या उत्तर देता; क्या कह?
सात रोज ही रहा जेल में
              या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविस्श्रान्त बरसा करके भी
              आँखें तनिक नहीं रीतीं।
कैदी कहते - "अरे मूर्ख, क्यों
              ममता थी मन्दिर पर ही?
पास वहाँ मसजिद भी तो थी
              दूर न था गिरिजाघर भी।"
कैसे उनको समझाता मैं,
              वहाँ गया था क्या सुख से;
देवी का प्रसाद चाहा था
              बेटी ने अपने मुख से।

दण्ड भोग कर जब मैं छूटा,
              पैर न उठते थे घर को
पीछे ठेल रहा था कोई
              भय-जर्जर तनु पंजर को।
पहले की-सी लेने मुझको
              नहीं दौड़ कर आई वह;
उलझी हुई खेल में ही हा!
              अबकी दी न दिखाई वह।
उसे देखने मरघट को ही
              गया दौड़ता हुआ वहाँ -
मेरे परिचित बन्धु प्रथम ही
              फूँक चुके थे उसे जहाँ।
बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर
              छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल-सी कोमल बच्ची
              हुई राख की थी ढेरी!
अन्तिम बार गोद में बेटी,
              तुझको ले न सका मैं हाय!
एक फूल माँ का प्रसाद भी
              तुझको दे न सका मैं हा!
वह प्रसाद देकर ही तुझको
              जेल न जा सकता था क्या?
तनिक ठहर ही सब जन्मों के
              दण्ड न पा सकता था क्या?
बेटी की छोटी इच्छा वह
              कहीं पूर्ण मैं कर देता
तो क्या अरे दैव, त्रिभुवन का
              सभी विभव मैं हर लेता?
यहीं चिता पर धर दूँगा मैं,
              - कोई अरे सुनो, वर दो -
मुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल ही लाकर दो!


  
* * * 

क्या द्रौपदी मनस्विनी बन पाई है? -डॉ. सुमित्रा अग्रवाल


क्या द्रौपदी मनस्विनी बन पाई है?
डॉ. सुमित्रा अग्रवाल

जन्म: 13 सितंबर 1947, को कराची पाकिस्तान। 
महाभारत की द्रौपदी और आधुनिक रूप विषय पर राजस्थान यूनिवर्सिटी से 2007 में डी.लिट् के लिए थीसिस जमा किया गया‌।
1992 में एस.एन.डी.टी. यूनिवर्सिटी, मुंबई से नरेश मेहता के काव्य में मिथकीय चेतना विषय पर पीएच-डी. जिसके लिए 3 वर्ष तक जीआरएस प्राप्त।
मुंबई यूनिवर्सिटी के स्नातकोत्तर विभाग में व्याख़्याता तथा सोफिया कॉलेज में व्याख्याता के रूप में अध्यापन।
प्रकाशन :
नरेश मेहता के काव्य में मिथकीय चेतना शीर्षक से आनंद प्रकाशन द्वारा 1994 में पुस्तक प्रकाशितविभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में 15 रिसर्च पेपर तथा 50 से अधिक समीक्षाएँ तथा लेख प्रकाशित।
संप्रति :
बहुपतित्व : एक तुलनात्मक अध्ययन – खस आदिवासी समाज तथा महाभारत की द्रौपदी के विशेष संदर्भ में
संपर्क : बी/604, वास्तु टावर, एवरशाइन नगर, मलाड (पश्चिम) पिन : 400 064 मो. 98921 38846
_________________________________
``मैंने जब कहानी लिखने के लिये कलम पकड़ी तो यह मेरे जेहन का तकाजा था कि मेरी कहानी की किरदार वह औरत होगी जो द्रौपदी की तरह भरी सभा में कोई सवाल पूछने की जुर्रत रखती हो.... इसलिये कह सकती हूँ कि मेरी कहानियों में जो भी किरदार हैं, उन औरतों के किरदान जिन्दगी से ही लिये हुये हैं, लेकिन उन औरतों के जो यथार्थ और यथार्थ का फासला तय करना जानती है - यथार्थ जो है, और यथार्थ जो होना चाहिये - और वह जो द्रौपदी की तरह भरी सभा में वक्त के निजाम से कोई सवाल पूछने की जुर्रत रखती है।''1
अमृता प्रीतम का उपर्युक्त मंतव्य यह सोचने के लिये प्रेरित करता है कि ऐसा क्या है इस प्राचीना द्रौपदी में जो आज की अति आधुनिक और स्वतंत्रचेता लेखिका के लिये भी वह रोलमॉडल बनकर उसके मानस में विराज रही है और इसी के साथ नित नये रूप धारणकर, नये सवालों के साथ काल के समान खड़ी हो रही है। उसके सवालों की धार पहले भी बड़ी पैनी थी, आज भी वह उतनी ही पैनी है। कहाँ से पाई उसने यह धार? कब तक उसका सवाल हवा में यों ही खड़ा रहेगा? भविष्य की नारी भी क्या उसके सवालों की ध्वनि में अपने सवालों के बीज देखेगी?
कैसी है यह द्रौपदी? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिये जब समुद्र के समान विशाल, वहन और गंभीर महाभारत खोलते हैं तो यज्ञ की अग्नि से बाहर आती पूर्णयौवना, सर्वांगसुंदरी, नित्ययौवना द्रौपदी दिखाई देती है। उसका प्रादुर्भाव और अधिक असाधारण बनाने के लिये कवि ने एक चमत्कार की सृष्टि की है जो द्रौपदी की महानता और शक्तिमत्ता को प्रकर्ष तक पहुँचाता है। यज्ञ की ज्वालाओं से अपनी मानसपुत्री द्रौपदी को आविर्भूत होते दर्शाकर महामुनी व्यास ने लौकिकता पर अलौकिकता का दर्शन देते हुये उसे एक अभिनव व्यक्तित्व प्रदान किया है। महाभारत के पटल पर उसका अविर्भाव देवों, यक्षों और मानवों द्वारा समान रूप से काम्य स्त्री के रूप में हुआ है। युधिष्ठिर के शब्दों में एक पुरूष जैसी स्त्री की कामना करता है - द्रौपदी वैसी ही है। आकर्षण उसका दुनिर्वार है, कमनीयता लुब्ध करनेवाली है, बुद्धिमत्ता चमत्कृत करनेवाली है, धैर्य अभिभूत करनेवाला है और तेजस्विता प्रखर है। उसका गतिशील उर्जासंपन्न स्त्रीत्व, परिवेश से समायोजन की उसकी अद्भुत क्षमता, जागृत विवेक, समर्थ मनस्विता, सहज मनःपूत व्यक्तित्व सभी मिलकर उसे एक ऐसे तेजोवलय में स्थापित करते हैं जो उसके जन्मना तेजराशि रूप के अनुरूप ही है। वह मानो सीता, मैत्रेयी और रति का सम्मिलित नारी विग्रह है। महाभारत में उसका स्त्रीत्व इतना प्रभावशाली है कि उसके समक्ष द्रौपदी के स्त्री-जीवन की विविध भूमिकायें नेपथ्य में चली जाती हैं और केवल उसका सचेतन स्त्रीत्व सम्मुख रह जाता है।
भारतीय स्त्रीत्व के समस्त आदर्शों का मूर्त रूप होने पर भी वह लौकिक ही है। हिमालयी बहुपतित्वयुक्त प्रदेशों में वह देवी की स्थानापन्न है। उसके नाम पर बलि दी जाती है, पूर्वकाल में वहाँ पांडवनृत्य में उसकी भूमिका का निर्वाह करनेवाली अभिनेत्री उसके नाम पर बलि दी गई बकरी का खून पीती थी और द्रौपदी की आत्मा द्वारा अविष्ट होकर अपनी भूमिका का निर्वषन पूर्ण जीवंतता के साथ करती थी। इसीलिये प्रत्येक स्त्री के अंदर द्रौपदी सांस लेती है - अपनी ही तरह से। यही उसके सार्वकालिक आधुनिक व्यक्तित्व का केंद्रबिंदु है।
द्रौपदी मे एक सनसनाता चैतन्य है, एक ऐसी उर्मि है कि अपने स्थान और काल को लांघकर अपने युग के विभूतिपुरूष श्रीकृष्ण से वह सख्य स्थापित कर पाती है। यह सख्य उसके व्यक्तित्व का पूरक बनकर उसे समृद्ध करता है। यह उर्मि उसे नित नवीना बनाये रखती है और यह पूर्णता, यह समृद्धि, यह संपन्नता, उसके आकर्षण में एक दीप्ति उत्पन्न करती है। जीवन के अन्य सभी रूढ़, सम्बन्ध व्यक्ति को पूर्ण करते हैं पर उस पूर्णता के पश्चात् भी कुछ ऐसा रह जाता है जो उसमें समा नहीं पाता। उसी कुछ को द्रौपदी ने इस सख्य में समो दिया है।
एक आधुनिक स्त्री का मानस स्वकेन्द्रित होता है। उसी स्वकेन्द्रित मानस के द्वारा लिये गये निर्णय को वह सुविधा के अनुसार भिन्न-भिन्न व्यक्तियों से पूर्ण कराती है और इस सारे आयोजन के केन्द्र में स्वयं स्थित रहती है। द्रौपदी का आधुनिक मानस भी स्वयं केन्द्र में स्थित रहकर अपने द्वारा लिये निर्णयों को अन्य शक्तियों की सहायता से पूर्ण करता है। महाभारत की नायिका द्रौपदी अपने समय से भिन्न या विपरीत व्यक्तित्व अर्जित कर सकी है। उसकी विशिष्ट आनुवंशिक तथा पारिवेशिक शक्तियाँ इस संदर्भ में उसकी सहायक हुई हैं। `स्व' से निर्मित स्वातंत्र्यचेतना का विकास वह इस सीमा तक करती है कि उसके प्रकाश में एक स्वतंत्र जीवनस्वप्न वह न केवल देखती है अपितु उसके आधार पर अपने जीवन और परिवेश का मूल्यांकन भी करती है, विदुषी, पंडिता, महाप्राज्ञा द्रौपदी इसी विशिष्ट संदर्भ में `मनस्विनी' है। यह मनस्विनी युधिष्ठिर द्वारा हारे गये तेरह वर्षों के काल को मुट्ठी से सरकने नहीं देती - उसे बांधे रखती है।
महाभारतकालीन समाज में स्त्री का स्थान पतनोन्मुख था उसके गौरव की दीप्ति धुंधली पड़ती जा रही थी। पर स्त्री के इस दासत्वकाल में द्रौपदी एक प्रज्वलित दीपशिखा के रूप में महाभारत के पटल पर उभरती है। वह अदम्य स्वातंत्र्यचेतना द्वारा परिचालित है। अपने स्वयंवर को यह मनस्विनी अपने अपार मनोबल से वास्तविक `स्वयं-वर' बना देती है। विवाह के पश्चात् उसका बहुपतित्व उसे कुंठित नहीं बनाता - उसकी प्रभा में और भी दीप्ति ला देता है। पांडवों सदृश्य अमित तेजस्वी वीरों की पत्नी के रूप में वह अपने गौरव का स्मरण महाभारत में अनेक स्थलों पर करती है जिससे स्पष्ट है कि यह बहुपतित्व द्रौपदी की सामर्थ्य में श्रीवृद्धि कर उसे और अधिक गौरवशालिनी और अधिक समर्थ तथा और अधिक आकर्षक बनाता है। भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व से युक्त अपने पांचों पतियों को एकसूत्र में आबद्ध रखने में समर्थ द्रौपदी की प्रशंसा महाभारत के अनेक प्रमुख व्यक्तियों ने की है, अपने सफल बहुपतित्व से समर्थ बनी द्रौपदी युगपुरूष कृष्ण की सखी बनती है। सखी बनकर इस सख्य को वह केवल भावात्मक आयाम तक सीमित नहीं रखती अपितु जीवन के प्रत्येक आयाम में वह इस सख्य को मूर्त रूप प्रदान कर सखा कृष्ण का आवाहन करती है।
द्रौपदी का बहुपतित्व उसकी सामर्थ्य में किस प्रकार वृद्धि कर उसे भारतीय इतिहास पुराण की सर्वश्रेष्ठ स्त्री के रूप में प्रतिष्ठित करता है - इस तथ्य की स्थापना के क्रम में एक अन्य सत्य उद्घाटित हुआ कि आदिवासी स्त्री की मूल्य संकल्पना, प्रखर स्वातंत्र्यचेतना और बहुपतित्व के निर्वाह की अद्भुत सहज क्षमता महाभारत की द्रौपदी में उसी रूप और मात्रा में विद्यमान है। यह सत्य इस तथ्य का संकेतन है कि द्रौपदी की आनुवांशिकता का घनिष्ठ सम्बन्ध इस स्वतंत्र समर्थ आदिवासी स्त्री से है और उसका अग्नि से जन्म उसके व्यक्तित्व के अग्निसंस्कार का संकेतक है। परिस्थिति जन्य प्रमाण इस अवधारणा का समर्थन करते हैं।
द्रौपदी को देखकर प्रतीत होता है कि द्रौपदी यानि व्यास महामुनि के मन की स्त्री विषयक कल्पना तो नहीं है? महामुनि को अभिप्रेत वास्तविक स्त्री संभवतः द्रौपदी के रूप में उन्होंने साकार की है। इसलिये वह `है' `जैसी ही है' - बनती नहीं गई है। स्त्रीत्व के सारे सौन्दर्य, सारे माधुर्य, सारी शालीनता, स्त्री में निहित स्त्रीत्व की धारदार अस्मिता, स्वत्व का प्रचंड भान अखंड सेवावृत्ति - इन सबका प्रतीक है द्रौपदी। द्रौपदी जो भारतीय बहुपतित्व की आनंदप्रद देवी भी है। 
द्रौपदी की प्रासंगिकता और आधुनिकता की दृष्टी से मृणाल कुलकर्णी के विचार महत्त्वपूर्ण है जिन्होने दूरदर्शन के धारावाहिक `द्रौपदी' में द्रौपदी के पात्र को जीवन्त किया है। उनकी दृष्टी में, ``पूरे विश्व में वह अपने हक के लिये अकेली लड़ती है। वास्तव में द्रौपदी के अन्दर सीता, गार्गी और क्लियोपेट्रा का अद्भुत संगम नजर आता है। द्रौपदी ही महाभारत की धुरी है। उसी के चारों और महाभारत की समूची कहानी घूमती है। वह पांडवों की शक्ति और प्रेरणा है। द्रौपदी अपने समय से बहुत आगे थी वास्तव में वह हर समय की महिला का प्रतिनिधित्व करती है। यही वजह है कि द्रौपदी का पात्र आज भी प्रासंगिक है।''2
स्त्री की बदलती तस्वीर की बात उठने पर संदर्भित किया गया है द्रौपदी को। कुरूसभा में द्रौपदी ने जो प्रश्न उठाया है वह आज भी उठाया जा रहा है - नये संदर्भों में, नये रूपों में। इस विषय में मृदुला गर्ग सदृश विचारशील लेखिका का मंतव्य दृष्टव्य है - ``मुझे लगता है, द्रौपदी के प्रश्न का उत्तर हमें मध्यवर्ग की औरत के बजाय श्रमिकवर्ग की औरत ही दे सकती है। वह जानती है कि उसका मूल्य उसकी कल्याणकारी शक्ति में निहित है। उसे अपने प्रभाव का दायरा बढ़ाना होगा, जिसमें घर-गृहस्थी से आगे बढ़कर वह परिवेश और पर्यावरण को भी समेट सके। उसके लिये जरूरी है कि सरकार स्थानीय पर्यावरण के रखरखाव, प्रबंध और नवीनीकरण का अधिकार महिलाओं को दे दें।''3
अपनी इसी आधुनिकता के कारण महाभारत की बीजस्वरूपा प्राचीना द्रौपदी आधुनिक भारतीय साहित्य में अनेक रंगों में, अनेक रूपों में स्वयं को अभिव्यक्त कर रही है। यह उसके व्यक्तित्व की शक्ति है कि अनेक प्रतिष्ठित मनस्वी सर्जकों ने उसके बहुआयामी व्यक्तित्व को अनेक नवीन आयामों में देखा है। ये सभी नवीन आयाम मिलकर जिस प्रतिमा का निर्माण करते हैं वह प्रतिमा अत्यंत अनूठी है। आधुनिक भारतीय भाषाओं में द्रौपदी के मिथकीय पुनःसर्जन में उसके व्यक्तित्व की जिस विशिष्टता को प्रमुखता से रेखांकित किया गया है वह है उसकी शक्तिमत्ता, उसकी तेजस्विता, उसकी सनातन आधुनिकता। असमिया महाभारत से लेकर अति नवीन सृजनों तक उसकी यह विशिष्टता बनी रही है। कहीं वह पांडवों की विजयिनी सेना का नेतृत्व कर रही है, कहीं भारतमाता के रूप में अन्याय के प्रतिकार की शपथ ले रही है, कहीं पांडवों की गांडीव शक्ति है और कहीं वीरांगना क्षत्राणीरूप होकर युद्धकथाओं को सुनकर पुलकित हो रही है। सभी स्थानों पर वह पांडवों को चैतन्य करनेवाली ऊर्जा है। वह कृष्णप्रीति के रंग में रंगी है पर साथ ही मनस्विनी स्वयंसिद्धा है। उसका मनःपूत व्यक्तित्व अपनी ही पवित्रता से शुचितासंपन्न है।
आधुनिक स्त्री-विमर्श जिस शक्तिस्वरूपा, स्वयंसिद्धा, मनस्विनी नारी की प्रतिमा सामने रखकर अपनी बात कह रहा है वह प्रतिमा महामुनि व्यास ने महाभारत में हजारों वर्षों पूर्व ही गढ़कर लोकमानस में प्रस्थापित कर दी थी। यह द्रौपदी निरंतर मेरे मन में बसी रही, नित्य नवीन रूपों में मन के आकाश में उदित होती रही और इसी क्रम में पुनः अमृता प्रीतम की द्रौपदी मन के आकाश में आ खड़ी होती है-
``मैं जन्म जन्म की द्रौपदी हूँ
 मैं पाँच तत्व की काया....
 किसी एक तत्व से ब्याही हूँ....
 जुए की वस्तु की तरह
 राजसभा में आई थी
 इस जन्म में भी वह कौरव हैं
 वही चेहरे, वही मोहरें,
 और उन्होंने वही बिसात बिछायी है
 मैं वही पांच तत्व की काया
 मैं वही नारी द्रौपदी...
 आज जुए की वस्तु नहीं हूँ
 मैं जुआ खेलने आयी हूँ....
 मैं जन्म-जन्म की द्रौपदी हूँ।
 पूरा समाज कौरवों ने जीत लिया
 और नया दांव खेलने लगे
 तो पूरी सियासत दांव पर लगा दी।
 मैंने दाएँ हाथ से समाज हार दिया
 बायें हाथ से सियासत हार दी
 लेकिन कौरव दुहाई देते हैं-
 कि पांच तत्व... मेरे पांच पांडव हैं
 मैं भरी सभा से उठी हूँ
 और पाँचों जीतकर लायी हूँ...
 मैं जन्म जन्म की द्रौपदी हूँ।''4
1. द्रौपदी से द्रौपदी तक - अमृता : एक नजरिया/इमरोज
2. नवभारत टाइम्स, मृणाल कुलकर्णी 15/10/2001
3. मृदुला गर्ग, नवभारत टाइम्स 15/10/2001
4. द्रौपदी से द्रौपदी तक - अमृता : एक नजरिया/इमरोज
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आभार: रचना समय 

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

धरोहर : जीवन की आपाधापी में... स्व. हरिवंश राय बच्चन

धरोहर :

 
स्व. हरिवंश राय बच्चन
इस स्तम्भ में विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ मूल रचना देवनागरी लिपि में, हिंदी अनुवाद, रचनाकार का परिचय व चित्र, रचना की श्रेष्ठता का आधार जिस कारण पसंद है. संभव हो तो रचनाकार की जन्म-निधन तिथियाँ व कृति सूची दीजिए. आनंद लीजिए  धरोहर में स्व. हरिवंश राय बच्चन की रचना का।

जीवन की आपाधापी में...
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।