लघुकथा
सहानुभूति
खलील जिब्रान
*
शहर भर की नालियां और मैला साफ़ करने वाले आदमी को देख दार्शनिक महोदय ठहर गए.
"बहुत
कठिन काम है तुम्हारा ! यूँ गंदगी साफ़ करना. कितना मुश्किल होता होगा !
दुःख है मुझे ! मेरी सहानुभूति स्वीकारो. " दार्शनिक ने सहानुभूति जताते
हुए कहा.
"शुक्रिया हुज़ूर !" मेहतर ने जवाब दिया.
"वैसे आप क्या करते हैं ?" उसने दार्शनिक से पूछा.
"
मैं ? मैं लोगों के मस्तिष्क पढ़ता हूँ ! उन के कृत्यों को देखता हूँ ! उन
की इच्छाओं को देखता हूँ ! विचार करता हूँ ! " दार्शनिक ने गर्व से जवाब
दिया.
"ओह ! मेरी सहानुभूति स्वीकारें जनाब !" मेहतर का जवाब आया.
***
[खलील जिब्रान की 'सैंड एंड फ़ोम' से.]
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