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शुक्रवार, 24 मई 2013

dharm aur vigyan 2 sanjiv

धर्म और विज्ञान: २
संजीव
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धारण करने योग्य जो, कहा गया वह धर्म।
सर्व लोक हित जो- करें धारण, समझें मर्म।।

धारण नाद को मूल कह, करता अंगीकार।
अक्षर ईश्वर को कहे, कहाँ शेष तकरार।।

शब्द ब्रम्ह है ज्ञान का, वाहक नहीं विरोध।
निहित कथा-उपदेश में, शिक्षा मूल्य प्रबोध।।

नहीं व्यक्तिगत आचरण, पंथ- धर्म पर्याय।
वैज्ञानिक का आचरण, हैं न विषय अध्याय।।

धर्म-और धार्मिक नहीं, हो सकते हैं एक।
खूबी-खामी व्यक्ति में, धर्म अनेकानेक।।

हर युग का जो सत्य है, वही धर्म का अंग।
रच संगणक पुराण हम, भर सकते नव रंग।।

अणु-सूत्रों को समाहित, किये हुए ऋग्वेद।
वास्तु सिविल इंजीनियरिंग, क्यों न मानिए?खेद।।

मिले पुराणों में कई, नगर-न्यास-सिद्धांत।
मूल चिकित्सा-शास्त्र का, समझ न हम दिग्भ्रांत।।

कंद मूल जड़ पत्तियाँ मृदा, मिटातीं रोग।
धर्म करे उपयोग पर, 'ज्ञान करे उपभोग।।

धर्म प्रकृति को माँ कहे, पूजें-रक्षें मीत।
कह पदार्थ विज्ञान ने शोषण किया अनीत।।

धर्म और विज्ञानं हैं, सिक्के के दो पक्ष।
लक्ष्य एक मानव बने, जग-हितकारी दक्ष।।
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2 टिप्‍पणियां:

achal verma ने कहा…

achal verma

मुझे इस रचना से बहुत कुछ मिला जो
मैं अबतक नहीं जानता था।
आभारी हूँ आपका , आचार्य जी।....अचल.....

dr. saroj gupta ने कहा…
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