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गुरुवार, 30 मई 2013

DOHA GATHA 10 ACHARYA SANJIV VERMA 'SALIL'

goha gatha 10 acharya sanjiv verma 'salil'

दोहा गाथा १० : मृदुल मधुर दोहा सरस
 संजीव
*
कथ्य, भाव, रस, बिम्ब, लय, अलंकार, लालित्य।
गति-यति नौ गुण नौलखा, दोहा छंदादित्य।।

दोहा की सीमा नहीं, दोहाकार ससीम।
कम  शब्दों को दे सके, दोहा अर्थ असीम।।


दोहा दीप जलाइए, मन में भरे उजास.
मावस भी पूनम बने, फागुन भी मधुमास.

बौर आम के देखकर, बौराया है आम.
बौरा गौरा ने वरा, खास- बताओ नाम?

लाल न लेकिन लाल है, ताल बिना दे ताल.
जलता है या फूलता, बूझे कौन सवाल?

लाल हरे पीले वसन, धरे धरा हसीन.
नील गगन हँसता, लगे- पवन वसन बिन दीन.

सरसों के पीले किए, जब से भू ने हाथ.
हँसते-रोते हैं नयन, उठता-झुकता माथ.
 

दोहों में शब्दों के चयन पर ध्यान दें।  उनके उच्चारण में ध्वनि का आरोह-अवरोह या उतार-चढाव सलिल-तरंगों की तरह होने से गति (भाषिक प्रवाह) तथा यति (ठहराव) दोहे को पठन के साथ गायन योग्य बनाता है। शब्दों का लालित्य मनमोहक हो।  दोहा का वैशिष्ट्य शब्द का विशिष्ट रूप, लावण्य, गागर में सागर, सीप में मोती, सरल, सरस, रुचिकर, गहन, सरलता, सहजता,  लाक्षणिकता, क्षिप्रता, सारगर्भितता आदि है। 
 
प्राचीन दोहाकारों के दोहों का अध्ययन शिल्प तथा कथ्य संबंधी समझ विकसित करने के लिए करें किन्तु उस भाषा का प्रयोग करने से बचें। विनम्रता सहित निवेदन है कि कबीर, रैदास, मलूक आदि अनेक दोहाकार अशिक्षित अथवा अल्प शिक्षित तथा ग्रामीण परिवेश से तथा तुलसी, सूर आदि मंदिरों से सम्बद्ध थे। उस काल में प्रचलित भाषा अब नहीं बोली जाती। अनेक शब्द अपना अर्थ अथवा प्रचार खो चुके हैं। विकास के साथ अनेक नये शब्द हिंदी को समृद्ध बना रहे हैं। अतः, हमें आज की भाषा में दोहा कहना होगा ताकि युवाओं को समझने में आसानी हो। दोहा की शब्दावली विषयवस्तु अथवा कथ्य तथा उसके पाठक-श्रोता वर्ग के अनुकूल हो। ग्रामीण अंचल से जुड़े तथा लोक भाषाओं की विरासत ग्रहण किये दोहकारों को शब्द रूपों की शुद्धता के प्रति अधिक सजग होना होगा। दिल्ली निवासी डॉ. श्यामानन्द सरस्वती 'रौशन' के दोहा संग्रह 'होते ही अंतर्मुखी' से उद्धृत निम्न पठनीय-मननीय दोहों के साथ कुछ समय बितायें तो आपकी कई कही-अनकही समयस्याओं का निदान हो जाएगा। 

दोहे में अनिवार्य हैं, कथ्य-शिल्प-लय-छंद।
ज्यों गुलाब में रूप-रस, गंध और मकरंद।।

चार चाँद देगा लगा, दोहों में लालित्य।
जिसमें कुछ लालित्य है, अमर वही साहित्य।।

दोहे में मात्रा गिरे, यह भारी अपराध।
यति-गति हो अपनी जगह, दोहा हो निर्बाध।।

चलते-चलते ही मिला, मुझको यह गन्तव्य।
गन्ता भी हूँ मैं स्वयं, और स्वयं गंतव्य।।

टूट रहे हैं आजकल, उसके बने मकान।
खंडित-खंडित हो गए, क्या दिल क्या इन्सान।।

जितनी छोटी बात हो, उतना अधिक प्रभाव।
ले जाती उस पार है, ज्यों छोटी सी नाव।।

कैसा है गणतंत्र यह, कैसा है संयोग?
हंस यहाँ भूखा मरे, काग उड़ावे भोग।।

बहरों के इस गाँव में, क्या चुप्पी, क्या शोर।
ज्यों अंधों के गाँव में, क्या रजनी, क्या भोर।।

जीवन भर पड़ता रहा, वह औरों के माथ।
उसकी बेटी के मगर, हुए न पीले हाथ।।

तेरे अलग विचार हैं, मेरे अलग विचार।
तू फैलता जा घृणा, मैं बाँटूंगा प्यार।।

शुद्ध कहाँ परिणाम हो, साधन अगर अशुद्ध.
साधन रखते शुद्ध जो, जानो उन्हें प्रबुद्ध.

सावित्री शर्मा जी के दोहा संकलन पांच पोर की बाँसुरी से बृज भाषा के कुछ दोहों का रसपान करें। इन दोहों की भाषा उक्त दोहों से कुछ भिन्न है। ऐसी शब्दावली ब्रज भाषा के अनुकूल है पर खड़ी हिन्दी के लिए अनुपयुक्त है। रेखांकित शब्द-रूपों को देखिये क्या इन्हें इस रूप में आधुनिक हिंदी में प्रयोग किया जाना ठीक होगा? इनका उपयोग होने पर जो अहिन्दीभाषी हिंदी सीखकर शब्दकोष की सहायता से पढ़ते हैं क्या इनका अर्थ समझ सकेंगे?

शब्द ब्रम्ह जाना जबहिं, कियो उच्चरित ॐ।
होने लगे विकार सब, ज्ञान यज्ञ में होम।।

मुख कारो विधिना कियो, सुन्दर रूप ललाम।
जनु घुंघुची कीन्हेंसि कबहुँ, अति अनुचित कछु काम।।

तन-मन बासंती भयो, साँस-साँस मधु गंध।
रोम-रोम तृस्ना जगी, तज्यो तृप्ति अनुबंध।।

कितनउ बाँधो मन मिरिग, फिरि-फिरि भरे कुलांच.
सहज नहीं है बरजना, संगी-साथी पॉँच.

चित चंचल अति बावरो, धरे न नेकहूँ धीर.
छिन जमुना लहरें लखें, छिन मरुथल की पीर.

मन हिरना भरमत फिरत, थिर रहै छिन एक.
अनुचित-उचित बिसारि कै, राखै अंपनी टेक.

तिय-बेंदी झिलमिल दिपै, दर्पण बारहि-बार.
दरकि हिया कहुं जाय नहि, करि कामिनि श्रृंगार.

होत दिनै-दिन दूबरो, देखि पूनमी चंद.
माथ बड़ेरी बींदिया, परै नेकहुं मंद.

झलमल-झलमल व्है रही, मुंदरी अंगुरी माहि.
नेह-नगीने नयन बिच, वेसहि तिरि-तिरि जात.

अब देखिये बांदा के अल्पज्ञात कवि राम नारायण उर्फ़ नारायण दास 'बौखल' (जिन्होंने ५००० से अधिक बुन्देली दोहे लिखे हैं) की कृतियों नारायण अंजलि भाग १-२ से कुछ बुन्देली दोहे--
गुरु ने दीन्ही चीनगी, शिष्य लेहु सुलगाय.
चित चकमक लागे नहीं, याते बुझ-बुझ जाय.

वाणी वीणा विश्व वदि, विजय वाद विख्यात.
लोक-लोक गाथा गढी, ज्योति नवल निर्वात.

आध्यात्मिक तौली तुला, रस-रंग-छवि-गुण एक.
चतुर कवी कोविद कही, सुरसति रूप अनेक.

अलि गुलाब गंधी बिपिन, उडी स्मृति गति पौन.
रूप-रंग-परिचय-परस, उमगि पियत रज मौन.

पंच व्यसन प्राणी सनो, तरुण वृद्ध अरु बाल.
'बौखल' घिसि गोलक तनु, तृष्णा तानति जाल.

बैरिन कांजी योग सो, दूध दही हो जाय.
माखन आवै आन्गुरी, निर्भय माट मथाय.

बहु भाषा आशा अमित, समुझि मूढ़ मन सार.
मरत काह जग साडिया, चढिं-चढिं ऊंच कगार.

चातक वाणी पीव की, निर्गुण-सगुण समान.
बरसे-अंबर से जलद, बिना बोध अनुमान.

मरै न मन संगै रहै, मलकिन बारह बाट.
भवनै राखि मसोसि नित, खोलत नहीं कपाट. 
 
मृदुल कीर्ति जी के भोजपुरी दोहों का रस लें-
 
कामधेनु दोहावली, दुहवत ज्ञानी वृन्द.
सरल, सरस, रुचिकर,गहन, कविवर को वर छंद.

तुलसी ने श्री राम को, नाम रूप रस गान.
दोहावलि के छंद में, अद्‍भुत कियो बखान.

दोहे की महिमा महत, महत रूप लावण्य.
अणु अणियाम स्वरूप में, महि महिमामय छंद.

गागर में सागर भरो, ऐसो जाको रूप.
मोती जैसे सीप में, अंतस गूढ़ अनूप.

रामायण में जड़ित हैं, मणि सम दोहा छंद.
चौपाई के बीच में, चमकत हीरक वृन्द.

दोहा के बड़ भाग हैं, कहत राम गुण धाम,
वन्दनीय वर छंद में, प्रणवहुं  बहुल प्रणाम. 

दोहा लेखन में ध्यान रखें कि लय (मात्रा-संतुलन) के साथ-साथ शब्द-चयन और विन्यास भाषा की प्रवृत्ति के अनुकूल हो। दोहा की मारक शक्ति का प्रमाण यह है कि उसे ललित काव्य के साथ-साथ पत्राचार, टिप्पणी, समीक्षा आदि में भी प्रयोग किया जा सकता है। विख्यात कवयित्री मृदुल कीर्ति जी के निम्न पत्र में दोहा का प्रांजल रूप निरखिए। 

Saumya Salil ji,
You are a great scholar, accept my Naman. Your doha classes are wonderful and amazing too. So many lessons I am grasping.
Kabeer , Meera, Soor, Raskhan, Tulsee never been to vyakaran process but they are so perfect as ever been. So real poems come from the realm of Reality and automatically they are perfect because HE is perfect.
आत्मीय! हूँ धन्य मैं, पा स्नेहिल उपहार।
शक्ति-साधना पर्व पर, मुदित ह्रदय-आभार।।

दोहा गाथा में इन्हें, पढ़ सीखेंगे छात्र।
दोहा का वैशिष्ट्य क्या, नहीं दोपदी मात्र।।

दोहा-चौपाई ललित, छंद रचे अभिराम।
जिव्हा पर हैं शारदा, शत-शत नम्र प्रणाम।।

दोहा कक्षा को दिए, दोहा-रत्न अमोल।
आभारी हम आपके, पा अमृतमय बोल।।

सचमुच शिक्षित नहीं थे, मीरा सूर कबीर।
तुलसी और रहीम थे, शिक्षित गुरु गंभीर।।

दोहा रचता कवि नहीं, रचवाता परमात्म।
शब्द-ब्रम्ह ही प्रतिष्ठित, होता बनकर आत्म।।

दोहा करे कमाल 
 
कबीर जुलाहा थे। वे जितना सूत कातते, कपडा बुनते उसे बेचकर परिवार पालते लेकिन माल बिकने पर मिले पैसे में से साधु सेवा करने के  बाद बचे पैसों से घर के लिए सामान खरीदते. सामान कम होने से गृहस्थी चलाने में माँ लोई को परेशान होते देखकर कमाल को कष्ट होता। लोई के मना करने पर भी कबीर 'यह दुनिया माया की गठरी' मान कर 'आया खाली हाथ तू, जाना खाली हाथ' के पथ पर चलते रहे। 'ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया' कहने से बच्चों की थाली में रोटी तो नहीं आती। अंतत: लोई ने कमाल को कपड़ा बेचने बाज़ार भेजा। कमाल ने कबीर के कहने के बाद भी साधुओं को दान नहीं दिया तथा पूरे पैसों से घर का सामान खरीद लिया। कमाल की भर्त्सना करते हुए कबीर ने कहा-

बूडा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल।
हरि का सुमिरन छाँड़ि कै, भरि लै आया माल।।

चलती चाकी  देखकर, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबित बचा न कोय।।
 
कमाल कबीर की दृष्टि में भले ही खरा न रहा हो पर था तो कबीर का ही पूत... बहुत सुनने के बाद उसके मुँह से भी एक दोहा निकल पड़ा-
 
चलती चाकी देखकर , दिया कमाल ठिठोंय।
जो कीली से लग रहा, मार सका नहीं कोय।।

कबीर यह गूढ़ दोहा सुनकर अवाक रह गए और बोले की तू
कहने को कह गया लेकिन कितनी बड़ी बात कह गया तुझे खुद नहीं पता।

कबीर-कमाल के इन दोहों के दो अर्थ हैं। एक सामान्य- कबीर ने कहा कि चलती हुई चक्की को देखकर उन्हें रोना आता है कि दो पाटों के घूमते रहने से उनके बीच सब दाने पिस गये कोई साबित नहीं बचा। कमाल ने उत्तर दिया कि चलती हुई चक्की देखकर उसे हँसी आ रही है क्योंकि जो दाना बीच की कीली से चिपक गया उसे पाट चलते रहने पर भी कोई हानि नहीं पहुँच सके, वे दाने बच गये।

इन दोहों का गूढ़ अर्थ समझने योग्य है- 
 
कबीर ने दूसरे दोहे में कहा ' इस संसार रूपी चक्की को चलता देखकर कबीर रो रहा है क्योंकि स्वार्थ और परमार्थ के दो पाटों के बीच में सब जीव नष्ट हो रहे हैं, कोई भी बच नहीं पा रहा।

कमाल ने उत्तर में कहा- संसार रूपी चक्की को चलता देखकर कमाल हँस रहा है क्योंकि जो जीव ब्रम्ह रूपी कीली से लग गया उसका सांसारिक भव-बाधा कुछ नहीं बिगाड़ सकी। उसकी आत्मा पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होकर ब्रम्ह में लीन हो गयी।

दोहा के सूफियाना मिजाज़ का एक और रंग देखें। खुसरो (संवत १३१२-१३८२) से पहले दोहा को सूफियाना रंग में रंगा बाबा शेख फरीद शकरगंज (११७३-१२६५) ने। गुरु ग्रन्थ साहिब में रहसा और राग सूही के ४ पदों और ३० सलोकों में बाबा और उनके पश्चातवर्ती शेख अब्राहीम फरीद (१४५०-१५५४) की रचनाएँ हैं। आध्यात्म की पराकाष्ठा पर पहुँचे बाबा का निम्न दोहा उनके समर्पण की बानगी है। 
कागा करंग ढढोलिया, सगल खाइया मासु।
ए दुई नैना मत छुहऊ, पिऊ देखन कि आसु।।
 
पाठांतर:
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खइयो मास।
दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।
इस दोहे के भी सामान्य और गूढ़ आध्यात्मिक दो अर्थ हैं जिन्हें आप समझ ही लेंगे। कठिनाई होने दीप्ति जी से निवेदन कर पूछिए।
 
चलते-चलते एक और सच्चा किस्सा-

अंग्रेजी में एक कहावत है 'power corrupts, absolute power corrupts absolutely' अर्थात सत्ता भ्रष्ट करती है तो निरंकुश सत्ता पूर्णतः भ्रष्ट करती है, भावार्थ- 'प्रभुता पाहि काहि मद नाहीं' . घटना तब की है जब मुग़ल सम्राट अकबर का सितारा बुलंदी पर था. भारत का एकछत्र सम्राट बनाने की महत्वाकांक्षा, हर बेशकीमती-लाजवाब चीज़ को अपने कब्जे में रखने का लोभ, हर सुन्दर स्त्री को अपने हरम में लाने की हवस तथा ऐसा कर उस स्त्री के पति, परिवार तथा कुनबे को पद दलित करने का नशा उसके सिर पर सवार था. दरबारी उसे निरंतर उकसाते रहते और वह अपने सैन्य बल से मनमानी करता रहता। गोंडवाना पर उन दिनों लोकमाता महारानी दुर्गावती अपने अल्प वयस्क पुत्र की अभिभावक बनकर शासन कर रही थीं। उनकी सुन्दरता, वीरता, लोकप्रियता, शासन कुशलता तथा सम्पन्नता की चर्चा चतुर्दिक थी। सुन्दर महारानी, चतुर दीवान अधारसिंह कायस्थ तथा सफ़ेद हाथी 'एरावत' अकबर की आँख में कांटे की तरह गड़ रहे थे। वीरांगना महारानी मालवा सुलतान बाज बहादुर को धुल चटा चुकी थीं। अधारसिंह के कारण राज्य में शासन व्यवस्था व समृद्धता थी। लोक मान्यता थी की जहाँ सफ़ेद हाथी होता है वहाँ लक्ष्मी वास करती है. अकबर ने रानी के पास सन्देश भेजा-
अपनी सीमाँ राज की, अमल करो फरमान।
भेजो नाग सुवेत सो, अरु अधार दीवान।।

मरता क्या न करता... रानी ने अधारसिंह को दिल्ली भेजा। अकबर अधारसिंह को कैद करना चाहता था। अधारसिंह ने यह पूर्वानुमान कर लिया। अकबर ने एक चाल चली। मुग़ल दरबार में जाने पर अधारसिंह ने देखा कि सिंहासन खाली था। दरबार में बादशाह को कोर्निश (झुककर सलाम) न करना बेअदबी होती जिसे गुस्ताखी मानकर उन्हें कैद कर लिया जाता। खाली सिंहासन को कोर्निश करते तो हँसी के पात्र बनते कि इतनी भी अक्ल नहीं है कि सलाम बादशाह सलामत को किया जाता है गद्दी को नहीं। अधारसिंह धर्म संकट में फँस गये, उन्होंने अपने कुलदेव चित्रगुप्त जी का स्मरण कर इस संकट से उबारने की प्रार्थना करते हुए चारों और देखा। अकस्मात् उनके मन में बिजली सी कौंधी और उन्होंने दरबारियों के बीच छिपकर बैठे बादशाह अकबर को कोर्निश की। सारे दरबारी और खुद अकबर आश्चर्य में थे कि वेश बदले हुए अकबर की पहचान कैसे हुई? झेंपते हुए बादशाह उठकर अपनी गद्दी पर आसीन हुआ और अधारसिंग  से पूछा कि उसने बादशाह को कैसे पहचाना?

अधारसिंह ने विनम्रता से उत्तर दिया कि जंगल में जिस तरह शेर के न दिखने पर अन्य जानवरों के हाव-भाव से उसका पता लगाया जाता है क्योंकि हर जानवर शेर से सतर्क होकर बचने के लिए उस पर निगाह रखता है। इसी आधार पर उन्होंने बादशाह को पहचान लिया चूंकि हर दरबारी उन पर नज़र रखे था कि वे कब क्या करते हैं? अधारसिंह की बुद्धिमानी के कारण अकबर ने नकली उदारता दिखाते हुए कुछ माँगने और अपने दरबार में रहने को कहा। अधारसिंह अपने देश और महारानी दुर्गावती पर प्राण निछावर करते थे। वे अकबर के दरबार में रहते तो गुलाम होकर रहना पड़ता
, मना करते तो बादशाह रुष्ट होकर दंड देता। उन्होंने पुनः चतुराई से बादशाह द्वारा कुछ माँगने के हुक्म की तामील करते हुए अपने देश लौट जाने की अनुमति माँग ली। अकबर रोकता तो वह अपने कौल से फिरने के कारण निंदा का पात्र बनता। अतः, उसने अधारसिंह को जाने तो दिया किन्तु बाद में अपने सिपहसालार को गोंडवाना पर हमला करने का हुक्म दे दिया। दोहा बादशाह के सैन्य बल का वर्णन करते हुए कहता है-
कै लख रन मां मुग़लवा, कै लख वीर पठान?
कै लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान?

इक लख रन मां मुगलवा, दुई लख वीर पठान।
तिन लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान।।

असाधारण बहादुरी से लम्बे समय तक लड़ने के बाद भी अपने देवर की गद्दारी का कारण अंततः महारानी दुर्गावती, अधारसिंह तथा अन्य वीर अपने देश और आजादी पर शहीद हो गय। मुग़ल सेना ने राज्य को लूट लिया। भागते हुए लोगों और औरतों तक को नहीं बख्शा। महारानी का नाम लेना भी गुनाह हो गया। जनगण ने अपनी लोकमाता को श्रद्धांजलि देने का एक अनूठा उपाय निकाल लिया। दुर्गावती की समाधि के रूप में सफ़ेद पत्थर एकत्र कर ढेर लगा दिया गया, जो भी वहाँ से गुजरता वह आस-पास से एक सफ़ेद कंकर उठाकर समाधि पर चढ़ा देता। स्वतंत्रता सत्याग्रह के समय भी इस परंपरा का पालन कर सत्याग्रहियों ने आजादी के लिये संघर्ष करने का संकल्प किया जिनमें इन पंक्तियों के लेखक के ताऊ जी षW. ज्वाला प्रसाद वर्मा भी थे। दोहा आज भी दुर्गावती, अधारसिंह और आजादी के दीवानों की याद दिल में बसाये है-
ठाँव बरेला आइये, जित रानी की ठौर।
हाथ जोर ठांड़े रहें, फरकन लगे बखौर।।

अर्थात यदि आप बरेला गाँव में रानी की समाधि पर हाथ जोड़कर श्रद्धाभाव से खड़े हों तो उनकी वीर गाथा सुनकर आपकी भुजाएं फड़कने लगती हैं. अस्तु... वीरांगना को महिला दिवस पर याद न किये जाने की कमी पूरी करते हुए आज दोहा-गाथा उन्हें प्रणाम कर धन्य है
                                                         =======================
 

आभार : हिन्दयुग्म २८.३.२००९


 

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