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शुक्रवार, 17 मई 2013

doha gatha 7 doha sakshee samay ka acharya sanjiv verma 'salil'

दोहा गाथा ७ 
दोहा साक्षी समय का
संजीव 

युवा ब्राम्हण कवि ने दोहे की प्रथम पंक्ति लिखी और कागज़ को अपनी पगड़ी में खोंस लिया। बार -बार प्रयास करने पर भी दोहा पूर्ण न हुआ। परिवार जनों ने पगड़ी रंगरेजिन शेख को दे दी। शेख ने न केवल पगड़ी धोकर रंगी अपितु दोहा भी पूर्ण कर दिया।  शेख की काव्य-प्रतिभा से चमत्कृत आलम ने शेख के चाहे अनुसार धर्म परिवर्तन कर उसे जीवनसंगिनी बना लिया। आलम-शेख को मिलनेवाला दोहा निम्न है:
आलम - कनक छुरी सी कामिनी, काहे को कटि छीन?
शेख -      कटि को कंचन काट विधि, कुचन मध्य धर दीन।
  संस्कृत पाली प्राकृत, डिंगल औ' अपभ्रंश.
दोहा सबका लाडला, सबसे पाया अंश.

दोहा दे आलोक तो, उगे सुनहरी भोर.
मौन करे रसपान जो, उसे न रुचता शोर.

सुनिए दोहा-पुरी में, श्वास-आस की तान.
रस-निधि पा रस-लीन हों, जीवन हो रसखान.

समय क्षेत्र भाषा करें, परिवर्तन दिन-रात.
सत्य न लेकिन बदलता, कहता दोहा प्रात.

सीख-सिखाना जिन्दगी, इसे बंदगी मान.
जन्म  सार्थक कीजिए, कर कर दोहा-गान.

शीतल करता हर तपन, दोहा धरकर धीर.
भूला-बिसरा याद कर, मिटे ह्रदय की पीर.

दिव्य दिवाकर सा अमर, दोहा अनुपम छंद.
गति-यति-लय का संतुलन, देता है आनंद.

पढ़े-लिखे को भूलकर, होते तनहा अज्ञ.
दे उजियारा विश्व को, नित दीपक बन विज्ञ.

अंग्रेजी के मोह में, हैं हिन्दी से दूर.
जो वे आँखें मूँदकर, बने हुए हैं सूर.

जगभाषा हिन्दी पढ़ें, सारे पश्चिम देश.
हिंदी तजकर हिंद में, हैं बेशर्म अशेष.

सरल बहुत है कठिन भी, दोहा कहना मीत.
मन जीतें मन हारकर, जैसे संत पुनीत.

स्रोत दिवाकर का नहीं, जैसे कोई ज्ञात.
दोहे का उद्गम 'सलिल', वैसे ही अज्ञात.

दोहा की सामर्थ्य जानने के लिए एक ऐतिहासिक प्रसंग की चर्चा करें। इन्द्रप्रस्थ नरेश पृथ्वीराज चौहान अभूतपूर्व पराक्रम, श्रेष्ठ सैन्यबल, उत्तम आयुध तथा कुशल रणनीति के बाद भी मो॰ गोरी के हाथों पराजित हुए। उनकी आँखें फोड़कर उन्हें कारागार में डाल दिया गया। उनके बालसखा निपुण दोहाकार चंदबरदाई (संवत् १२०५-१२४८) ने अपने मित्र को जिल्लत की जिंदगी से आजाद कराने के लिए दोहा का सहारा लिया। उसने गोरी से सम्राट की शब्द-भेदी बाणकला की प्रशंसा कर परीक्षा किए जाने को उकसाया। परीक्षण के समय बंदी सम्राट के कानों में समीप खड़े कवि मित्र द्वारा कहा गया दोहा पढ़ा, दोहे ने गजनी के सुल्तान के आसन की ऊंचाई तथा दूरी पल भर में बता दी। असहाय दिल्लीपति ने दोहा हृदयंगम किया और लक्ष्य साध कर तीर छोड़ दिया जो सुल्तान का कंठ चीर गया। सत्तासीन सम्राट हार गया पर दोहा ने अंधे बंदी को अपनी हार को जीत में बदलने का अवसर दिया, ऐसी है दोहा, दोहाकार और दोहांप्रेमी की शक्ति। वह कालजयी दोहा है-
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण.
ता ऊपर सुल्तान है, मत चुक्कै चव्हाण.

इतिहास गढ़ने, मोड़ने, बदलने तथा रचने में सिद्ध दोहा की जन्म कुंडली महाकवि कालिदास (ई. पू. ३००) के विकेमोर्वशीयम के चतुर्थांक में है.

मइँ जाणिआँ मिअलोअणी, निसअणु कोइ हरेइ.
जावणु णवतलिसामल, धारारुह वरिसेई..

शृंगार रसावतार महाकवि जयदेव की निम्न द्विपदी की तरह की रचनाओं ने भी संभवतः वर्तमान दोहा के जन्म की पृष्ठभूमि तैयार करने में योगदान किया हो.

किं करिष्यति किं वदष्यति, सा चिरं विरहेऽण.
किं जनेन धनेन किं मम, जीवितेन गृहेऽण.


हिन्दी साहित्य के आदिकाल (७००ई. - १४००ई..) में नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध संतों ने विपुल साहित्य का सृजन किया. सिद्धाचार्य सरोजवज्र (स्वयंभू / सरहपा / सरह वि. सं. ६९०) रचित दोहाकोश एवं अन्य ३९ ग्रंथों ने दोहा को प्रतिष्ठित किया।

जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नांहि पवेस.
तहि वट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेस.


दोहा की यात्रा भाषा के बदलते रूप की यात्रा है. देवसेन के इस दोहे में सतासत की विवेचना है-

जो जिण सासण भाषीयउ, सो मई कहियउ सारु.
जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारू.


चलते-चलते ८ वीं सदी के उत्तरार्ध का वह दोहा देखें जिसमें राजस्थानी वीरांगना युद्ध पर गए अपने प्रीतम को दोहा-दूत से संदेश भेजती है कि वह वायदे के अनुसार श्रावण की पहली तीज पर न आया तो प्रिया को जीवित नहीं पायेगा.
पिउ चित्तोड़ न आविउ, सावण पैली तीज.
जोबै बाट बिरहणी, खिण-खिण अणवे खीज.

संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह.
पंछी थाल्या पींजरे, छूटण रो संदेह.

निवेदन है कि अपने अंचल एवं आंचलिक भाषा में जो रोचक प्रसंग दोहे में हों उन्हें खोजकरभेजें:

दोहा साक्षी समय का, कहता है युग सत्य।
ध्यान समय का जो रखे, उसको मिलता गत्य॥

दोहा रचना मेँ समय की महत्वपूर्ण भूमिका है। दोहा के चारों चरण निर्धारित समयावधि में बोले जा सकें, तभी उन्हें विविध रागों में संगीतबद्ध कर गाया जा सकेगा। इसलिए सम तथा विषम चरणों में क्रमशः १३ व ११ मात्रा होना अनिवार्य है।

दोहा ही नहीं हर पद्य रचना में उत्तमता हेतु छांदस मर्यादा का पालन किया जाना अनिवार्य है। हिंदी काव्य लेखन में दोहा प्लावन के वर्तमान काल में मात्राओं का ध्यान रखे बिना जो दोहे रचे जा रहे हैं, उन्हें कोई महत्व नहीं मिल सकता। मानक मापदन्डों की अनदेखी कर मनमाने तरीके को अपनी शैली माने या बताने से अशुद्ध रचना शुद्ध नहीं हो जाती। किसी रचना की परख भाव तथा शैली के निकष पर की जाती है। अपने भावों को निर्धारित छंद विधान में न ढाल पाना रचनाकार की शब्द सामर्थ्य की कमी है।

किसी भाव की अभिव्यक्ति के तरीके हो सकते हैं। कवि को ऐसे शब्द का चयन करना होता है जो भाव को अभिव्यक्त करने के साथ निर्धारित मात्रा के अनुकूल हो। यह तभी संभव है जब मात्रा गिनना आता हो। मात्रा गणना के प्रकरण पर पूर्व में चर्चा हो चुकने पर भी पुनः कुछ विस्तार से लेने का आशय यही है कि शंकाओं का समाधान हो सके.

"मात्रा" शब्द अक्षरों की उच्चरित ध्वनि में लगनेवाली समयावधि की ईकाई का द्योतक है। तद्‌नुसार हिंदी में अक्षरों के केवल दो भेद १. लघु या ह्रस्व तथा २. गुरु या दीर्घ हैं। इन्हें आम बोलचाल की भाषा में छोटा तथा बडा भी कहा जाता है। इनका भार क्रमशः १ तथा २ गिना जाता है। अक्षरों को लघु या गुरु गिनने के नियम निर्धारित हैं। इनका आधार उच्चारण के समय हो रहा बलाघात तथा लगनेवाला समय है।

१. एकमात्रिक या लघु रूपाकारः
अ.सभी ह्रस्व स्वर, यथाः अ, इ, उ, ॠ।
ॠषि अगस्त्य उठ इधर ॰ उधर, लगे देखने कौन?
१+१ १+२+१ १+१ १+१+१ १+१+१
आ. ह्रस्व स्वरों की ध्वनि या मात्रा से संयुक्त सभी व्यंजन, यथाः क,कि,कु, कृ आदि।
किशन कृपा कर कुछ कहो, राधावल्लभ मौन ।
१+१+१ १+२ १+१ १+१ १+२
इ. शब्द के आरंभ में आनेवाले ह्रस्व स्वर युक्त संयुक्त अक्षर, यथाः त्रय में त्र, प्रकार में प्र, त्रिशूल में त्रि, ध्रुव में ध्रु, क्रम में क्र, ख्रिस्ती में ख्रि, ग्रह में ग्र, ट्रक में ट्र, ड्रम में ड्र, भ्रम में भ्र, मृत में मृ, घृत में घृ, श्रम में श्र आदि।
त्रसित त्रिनयनी से हुए, रति ॰ ग्रहपति मृत भाँति ।
१+१+१ १+१+१+२ २ १+२ १‌+१ १+१+१+१ १+१ २+१
ई. चंद्र बिंदु युक्त सानुनासिक ह्रस्व वर्णः हँसना में हँ, अँगना में अँ, खिँचाई में खिँ, मुँह में मुँ आदि।
अँगना में हँस मुँह छिपा, लिये अंक में हंस ।
१+१+२ २ १+१ १+१ १+२, १‌+२ २‌+१ २ २+१
उ. ऐसा ह्रस्व वर्ण जिसके बाद के संयुक्त अक्षर का स्वराघात उस पर न होता हो या जिसके बाद के संयुक्त अक्षर की दोनों ध्वनियाँ एक साथ बोली जाती हैं। जैसेः मल्हार में म, तुम्हारा में तु, उन्हें में उ आदि।
उन्हें तुम्हारा कन्हैया, भाया सुने मल्हार ।
१+२ १+२+२ १+२+२ २+२ १+२ १+२+१
ऊ. ऐसे दीर्घ अक्षर जिनके लघु उच्चारण को मान्यता मिल चुकी है। जैसेः बारात ॰ बरात, दीवाली ॰ दिवाली, दीया ॰ दिया आदि। ऐसे शब्दों का वही रूप प्रयोग में लायें जिसकी मात्रा उपयुक्त हों।
दीवाली पर बालकर दिया, करो तम दूर ।
२+२+२ १+१ २+१+१+१ १+२ १+२ १ =१ २+१
ए. ऐसे हलंत वर्ण जो स्वतंत्र रूप से लघु बोले जाते हैं। यथाः आस्मां ॰ आसमां आदि। शब्दों का वह रूप प्रयोग में लायें जिसकी मात्रा उपयुक्त हों।
आस्मां से आसमानों को छुएँ ।
२+२ २ २+१+२+२ २ १+२
ऐ. संयुक्त शब्द के पहले पद का अंतिम अक्षर लघु तथा दूसरे पद का पहला अक्षर संयुक्त हो तो लघु अक्षर लघु ही रहेगा। यथाः पद॰ध्वनि में द, सुख॰स्वप्न में ख, चिर॰प्रतीक्षा में र आदि।
पद॰ ध्वनि सुन सुख ॰ स्वप्न सब, टूटे देकर पीर।
१+१ १+१ १+१ १+१ २+१ १+१

द्विमात्रिक, दीर्घ या गुरु के रूपाकारों पर चर्चा अगले पाठ में होगी। आप गीत, गजल, दोहा कुछ भी पढें, उसकी मात्रा गिनकर अभ्यास करें। धीरे॰धीरे समझने लगेंगे कि किस कवि ने कहाँ और क्या चूक की ? स्वयं आपकी रचनाएँ इन दोषों से मुक्त होने लगेंगी।
 
अंत में एक किस्सा, झूठा नहीं, सच्चा... 

फागुन का मौसम और होली की मस्ती में किस्सा भी चटपटा ही होना चाहिए न... महाप्राण निराला जी को कौन नहीं जानता? वे महाकवि ही नहीं महामानव भी थे। उन्हें असत्य सहन नहीं होता था। भय या संकोच उनसे कोसों दूर थे। बिना किसी लाग-लपेट के सच बोलने में वे विश्वास करते थे। उनकी किताबों के प्रकाशक श्री दुलारेलाल भार्गव द्वारा रचित दोहा संकलन का विमोचन समारोह आयोजित था। बड़े-बड़े दौनों में शुद्ध घी का हलुआ खाते-खाते उपस्थित कविजनों में भार्गव जी की प्रशस्ति-गायन की होड़ लग गयी। एक कवि ने दुलारेलाल जी के दोहा संग्रह को महाकवि बिहारी के कालजयी दोहा संग्रह "बिहारी सतसई" से श्रेष्ठ कह दिया तो निराला जी यह चाटुकारिता सहन नहीं कर सके, किन्तु मौन रहे। तभी उन्हें संबोधन हेतु आमंत्रित किया गया। निराला जी ने दौने में बचा हलुआ एक साथ समेटकर खाया, कुर्ते की बाँह से मुँह पोंछा और शेर की तरह खड़े होकर बडी-बडी आँखों से चारों ओर देखते हुए एक दोहा कहा। उस दिन निराला जी ने अपने जीवन का पहला और अंतिम दोहा कहा, जिसे सुनते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया, दुलारेलाल जी की प्रशस्ति कर रहे कवियों ने अपना चेहरा छिपाते हुए सरकना शुरू कर दिया। खुद दुलारेलाल जी भी नहीं रुक सके। सारा कार्यक्रम चंद पलों में समाप्त हो गया।

इस दोहे और निराला जी की कवित्व शक्ति का आनंद लीजिए और अपनी प्रतिक्रिया दीजिए।

वह दोहा जिसने बीच महफिल में दुलारेलाल जी और उनके चमचों की फजीहत कर दी थी, इस प्रकार है-

                                               कहाँ बिहारी लाल हैं, कहाँ दुलारे लाल?
                                              कहाँ मूँछ के बाल हैं, कहाँ पूँछ के बाल?
                                                                       *****
आभार: हिन्दयुग्म १५-३-२००९

22 टिप्‍पणियां:

Dr.M.C. Gupta ने कहा…

Dr.M.C. Gupta via yahoogroups.com
सलिल जी,

आपका ज्ञान एवं साधना असीम हैं.

चलते-चलते--

बात निराला कह गए देखा आव न ताव
मूँछ-पूँछ आख्यान ने छोड़ा विकट प्रभाव.

--ख़लिश

kusum vir ने कहा…

Kusum Vir via yahoogroups.com

माननीय आचार्य जी,
मैंने आपका यह पूरा आलेख और दोहे बहुत चाव से पढ़े हैं l
आप ज्ञान के भंडार हैं l आपकी साधना असीम है और लेखन अद्भुत है l
हमेशा ही आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है l
बहुत आभार l
सादर,
कुसुम वीर

sanjiv ने कहा…

कुसुम जी
दोहा लेखन बहुत सरल किन्तुहोने के साथ-साथ बहुत कठिन भी है. दिए गए दोनों को निरंतर गुनगुनाइए और शब्दों में बदलाव कर नए दोहे बनाने का प्रयास करें तो गति-यति और लय का अभ्यास होगा। छान्दस रचनाओं के लिए लय का अभ्यास आवश्यक है। अपने उत्साहवर्धन किया, धन्यवाद।

rakesh khandelwal ने कहा…

Rakesh Khandelwal

जब बहती दोहा सलिल
जाग उठे इतिहास
गाथा कह संजीवजी
बिखरा रहे सुवास.

सादर
राकेश

Shriprakash Shukla ने कहा…

Shriprakash Shukla
आदरणीय सलिल जी,
आप से कुछ व्यक्तिगत साझा कर रहा हूँ । इ-कविता मंच के एक सदस्य ने एक बार मेरे द्वारा लिखी कुण्डलिया का मज़ाक उड़ाया मैंने गुस्से में आकर उनके ऊपर ही एक कुण्डलिया लिखी पर शिष्टाचार के नाते उसे प्रकाशित नहीं किया । उसका दोहा इधर दे रहा हूँ ये बताने के लिए कि गहरे उदगार दोहे में आसानी से प्रकट हो जाते हैं ।
इ-कविता के मंच पर बैठा एक भुजंग
सर्दी में नंगा फिरे तेल लगा कर अंग
आप द्वारा प्रकाशित सामग्री रुच से पढ़ रहा हूँ । आशा है आप सपरिवार कुशल से होंगे ।
सादर
शुभेच्छु
श्रीप्रकाश शुक्ल

kusum vir ने कहा…

Kusum Vir via yahoogroups.com

आ ० आचार्य जी,
मार्गदर्शन हेतु धन्यवाद l तदनुसार, मैं अवश्य प्रयास करूँगी l

sanjiv ने कहा…

माननीय
अपने एक अछूता प्रसंग सांझा किया, आभारी हूँ।
आपकी पंक्तियों को समस्यापूर्ति मानकर एक कुंडली समर्पित है-
ई-कविता के मंच पर बैठा एक भुजंग
सर्दी में नंगा फिरे तेल लगा कर अंग
तेल लगाकर अंग रंग बदरंग कर रहा
जैसे कलियों से लिप्त हो कोई अजदहा
छिपे मेघ की आड़ देख उसको खुद सविता
कभी दंग कुछ तंग रहे उससे ई कविता

indira pratap ने कहा…

Indira Pratap via yahoogroups.com

दोहे ( संजीव भाई के संम्मान में )
हमहूँ बैठे सोचते, कैसे हो कल्याण |
हमने तो सीखा नहीं, अब तक अक्षर ज्ञान ||
दोहे पर दोहे रचैं, भैया नहीं थकात|
चाह रहें हैं वह यही, हम सब हों निष्णात ||
कर्म भला तुम कर रहै, दोहे रस की खान |
रचना से रचना तरै, मिले कवि सम्मान ||
इंदिरा

kusum vir ने कहा…

Kusum Vir via yahoogroups.com

आचार्य जी के सम्मान में आपने बहुत ही सुंदर दोहे लिखे हैं दिद्दा l
सादर,
कुसुम वीर

deepti gupta ने कहा…

deepti gupta via yahoogroups.com

प्यारी दिद्दा,

आपके दोहों का जवाब नहीं . बहुत सटीक बाते कही है !
चाह रहें हैं वह यही , हम सब हों निष्णात ||

लेकिन हम ही नालायक है कि कोशिश ही नही करना चाहते. समय निकाल कर अभ्यास ही नहीं करना चाहते .

ढेर सराहना के साथ,

सस्नेह, दीप्ति

deepti gupta ने कहा…

deepti gupta via yahoogroups.com

दोहा गुरु को सादर एक तुच्छ भेंट -

संजीव जी दोहे लिखे, पढ़े चाव हर जन
गायें गुण रस घोल के, फिर भी भरे न मन ।।

दोहा बोला दोहे से, है ये कौन 'सलिल'
हमें सजा-संवार के,लूटे सबका दिल।।

कर्मठता संजीव की, गर देखा चाहे आप
लिखत रहत दिन-रात ये, जाड़ा हो या ताप।।
दीप्ति

sanjiv ने कहा…

दिद्दा ने दोहे रचे, पढ़ आया आनंद।
लिखें दीप्ति तब पायेगा, नई दिशाएं छंद।।
*
कुसुम रचें आयाम कुछ, नए मिलेंगे आप।
मधु के दोहों में सके, नवल मधुरता व्याप।।
*
रच दें समय-अभाव के, दोहे प्रणव अनेक।
सदुपयोग तब समय का, सलिल करे सविवेक।।
*
दोहों में आनंद के, करुणा रहे प्रधान।
विजय करें पुरुषार्थ का, दोहों में नित गान।।
*

kusum vir ने कहा…

Kusum Vir via yahoogroups.com
दोहा गुरु को मेरी और से भी तुच्छ भेंट

शीश नवा के गुरु को, दोहा लिखूँ मैं आज
जीवन में रस घोल दे, कर दे नया उजास

सजीव जी दोहे लिखें, एक से बढ़कर छंद
कुसुम दीप्ति ले रहीं, जी भर के आनंद

दिद्दा भी लिखने लगीं, दोहा - गाथा छंद
विजय मधु रहें सोचते, हम भी बांधें बंद

दोहा गाथा श्रेष्ठ है, नित - नित बढ़ता मान
दोहे में बसता यहाँ, जीवन मधुर सुजान

सादर,
कुसुम वीर

deepti gupta ने कहा…

deepti gupta via yahoogroups.com

बहुत खूब कुसुम जी ! अतिसुन्दर !

शुभ कामनाएँ ...........

सस्नेह, दीप्ति

sanjiv ने कहा…

दोहा गोष्ठी:१.
संजीव
*
दोहा के इस छात्र के, मन-भाई सौगात.
दीप्ति हर सके तिमिर को, मिटे रात हो प्रात।।
*
कुसुम सुवासित कर रहीं, दोहा-गुलशन नित्य।।
प्रथम-पूज्य दिद्दा हुईं, रचना यज्ञ अनित्य।।
*
निरख-परख कर लीजिए, दोहा का आनंद।
परिवर्तन से निखरता, है मानव सम छंद।।
*
बुरा न मानें- लीजिए, नहीं अन्यथा मीत।
रचें नहीं बदलाव तो, भूल- निभाएं प्रीत।।
*
शीश नवा के गुरु को,
२ १ १२ २ १ १ २ = १२, १३ मात्रा चाहिए, 'के' नहीं 'कर '
दोहा लिखूँ मैं आज
२ २ १ २ २ २ १ = १२, ११ मात्रा चाहिए, लय में अटकाव
जीवन में रस घोल दे,
२ १ १ २ १ १ २ १ २ = १३, लय सही।
कर दे नया उजास
११ २ १२ १२१ = ११, लय सही।
आज तथा उजास - तुकांत सही नहीं।
--------------
शीश नवा गुरुदेव को, दोहा लिखूं- प्रयास।
जीवन में रस घोल दे, भर दे नया उजास।।
'उजास करने' की तुलना में 'उजास भरना' अधिक सार्थक
--------------
सजीव जी दोहे लिखें,
नाम अशुद्ध, सही लिखने से मात्रा-वृद्धि
एक से बढ़कर छंद = १२ , ११ चाहिए, लय भंग
कुसुम दीप्ति ले रहीं = ११ , १३चाहिए,
जी भर के आनंद ११, मात्रा सही, 'के' के स्थान पर 'कर' बेहतर
----------------

दिद्दा भी लिखने लगीं, दोहा - गाथा छंद
विजय मधु रहें सोचते, हम भी बांधें बंद

दोहा गाथा श्रेष्ठ है, नित - नित बढ़ता मान
दोहे में बसता यहाँ, जीवन मधुर सुजान

kusum vir ने कहा…

Kusum Vir via yahoogroups.com

अब पता चला गुरु जी कि दोहा लिखना कितना कठिन है l
यह मात्राओं का जोड़ करना थोड़ा कठिन है l
लिखते वक्त इन मात्राओं को कैसे जोड़ना है, समझाकर बताइयेगा l
सधन्यवाद, सादर,
कुसुम वीर

sanjiv ने कहा…

कुसुम जी
आरम्भ में पंक्ति की रचना करने के बाद उसकी मात्र गिनकर कम - अधिक होने पर शब्द परिवर्तन कर संतुलित किया जाता है. क्रमशः अपने आप ही संतुलित पद रचना होने लगती है. मात्रा संबंधी जानकारी पूर्व कड़ियों में २ बार दी जा चुकी है.
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

Shriprakash Shukla ने कहा…



आदरणीय सलिल जी,
आप से कुछ व्यक्तिगत साझा कर रहा हूँ । इ-कविता मंच के एक सदस्य ने एक बार मेरे द्वारा लिखी कुण्डलिया का मज़ाक उड़ाया मैंने गुस्से में आकर उनके ऊपर ही एक कुण्डलिया लिखी पर शिष्टाचार के नाते उसे प्रकाशित नहीं किया । उसका दोहा इधर दे रहा हूँ ये बताने के लिए कि गहरे उदगार दोहे में आसानी से प्रकट हो जाते हैं ।
इ-कविता के मंच पर बैठा एक भुजंग
सर्दी में नंगा फिरे तेल लगा कर अंग
आप द्वारा प्रकाशित सामग्री रुच से पढ़ रहा हूँ । आशा है आप सपरिवार कुशल से होंगे ।
सादर
शुभेच्छु
श्रीप्रकाश शुक्ल

Shriprakash Shukla ने कहा…

Shriprakash Shukla

आदरणीय सलिल जी,

वो कवी शरद तैलंग थे । बात आपकी एक कुंडली से चली थी । अब दोहा स्पष्ट हो जाएगा ।

सादर
श्री

dks poet ने कहा…

dks poet

बहुत खूब आचार्य जी,
आगे भी आपसे ऐसे रोचक और ज्ञानवर्धक प्रकरणों की अपेक्षा रहेगी।
सादर


धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

dks poet ने कहा…

dks poet

आदरणीय सलिल जी,
मैंने दोहा गाथा नाम से एक फ़ोल्डर बना लिया है। आपकी ये सारी मेल्स वहीं डाल रहा हूँ भविष्य में संदर्भ के लिए। दोहों की तीर्थयात्रा जारी रखें।
सादर

धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

sanjiv ने कहा…

आपकी गुणग्राहकता को नमन