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गुरुवार, 16 मई 2013

doha muktika ban ja salil ukaab sanjiv

दोहा ग़ज़ल :
संजीव
*
जमा निगाहें लक्ष्य पर, बन जा सलिल उकाब।
पैर जमीं पर जमाकर, देख गगन की आब।।

हूँ तो मैं खोले हुए, पढ़ता नहीं किताब।
आनंदित मन-प्राण पा, सूखा हुआ गुलाब।।

गिनती की साँसें मिलीं, रखना तनिक हिसाब।
किसे पता कहना पड़े, कब अलविदा जनाब।।

दकियनूसी हुए गर, पिया नारियल-डाब।
प्रगतिशील पी कोल्ड्रिंक, करते गला ख़राब।।

किसने लब से छू दिया, पानी हुआ शराब।
बढ़कर थामा हाथ तो, टूट गया झट ख्वाब।।

सच्चाई छिपती नहीं, ओढ़ें लाख नकाब।
उम्र न छिपती बाल पर, मलकर 'सलिल' खिजाब।।

नेह निनादित नर्मदा, प्रमुदित मन पंजाब।
सलिल-प्रीत गोदावरी, साबरमती चनाब।।

***
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

7 टिप्‍पणियां:

deepti gupta ने कहा…

deepti gupta via yahoogroups.com

आदरणीय संजीव जी,

सर्वथा एक नवीन प्रस्तुति ! बहुत सुन्दर और मनोहारी ! आपकी सृजनशीलता को नमन !
सादर ,
दीप्ति

kusum vir ने कहा…

Kusum Vir via yahoogroups.com

बहुत ही सुन्दर दोहे आचार्य जी l
सादर,
कुसुम वीर

achal verma ने कहा…


achal verma

गज़ल भी , गीत भी , और शब्दों में सच्चाई भी
इसलिए रचना लगी प्यारी और म

achal verma ने कहा…

achal verma

गज़ल भी , गीत भी , और शब्दों में सच्चाई भी
इसलिए रचना लगी प्यारी और मन को भाई भी ।

cdewedy@gmail.com ने कहा…


Mahesh Dewedyvia yahoogroups.com

सुन्दर मुक्तिकाओं के लिए बधाई सलिल जी .

महेश चन्द्र द्विवेदी

indira pratap ने कहा…

Indira Pratap via yahoogroups.com

संजीव भाई नई विधा दोहे गज़ल पसंद आई , निम्न दोहे माशाल्लाह,
जमा निगाहें लक्ष्य पर, बन जा सलिल उकाब।
पैर जमीं पर जमाकर, देख गगन की आब।।

हूँ तो मैं खोले हुए, पढ़ता नहीं किताब।
आनंदित मन-प्राण पा, सूखा हुआ गुलाब।।

गिनती की साँसें मिलीं, रखना तनिक हिसाब।
किसे पता कहना पड़े, कब अलविदा जनाब।। सराहना कुबूल करें ,दिद्दा

बेनामी ने कहा…

Shishir Sarabhai
shishirsarabhai@yahoo.com

प्रिय संजीव भाई,

मज़ा आ गया आपके दोहे पढकर .

ढेर दाद के साथ,

सादर,
शिशिर